फर्रुखाबाद:जिले में पक्षियों की चहचहाहट लगातार कम होती जा रही है। गिद्ध और बाज विलुप्त होते जा रहे हैं। कौए की संख्या भी लगातार घट रही है। इन पक्षियों के सरंक्षण के लिए सरकार की तरफ से कोई योजना भी नहीं बनाई गई है। दिलचस्प यह है कि सरकारी विभाग के पास ऐसा कोई डाटा भी नहीं है कि जनपद में कहां-कहां इन पक्षियों का बसेरा है। ऐसे में आने वाले दिनों में इन पक्षियों को बचाना मुश्किल होगा। कई वर्षो से गायब से हो गये सफेद चील शनिवार को जेएनआई के कैमरे में कैद हुए| लेकिन उन्हें देखकर लगता है की यह भी कुछ दिनों के मेहमान ही है|
गिद्ध व बाज विलुप्त प्राय पक्षी बन चुके है। इसकी मुख्य कारण जानकारों ने बताया है कि मानव या अन्य पशुओं के शवों में दर्द निवारक दवाओं और इंजेक्शन की मात्रा रह जाती है। ये दवाएं इन पक्षियों के शरीर में पहुंचने पर उनकी मौत का कारण बन जाती हैं। इसके पीछे की यह बड़ी वजह है।मनुष्य या पशुओं को जो दर्द निवारक दवाएं दी जाती हैं उसमें डाइक्लोफिनेक सोडियम होता है। यह दर्द तो खत्म कर देता है, लेकिन इंसान या पशु के टिश्यू में ही रह जाता है। मौत होने की स्थिति में शव अगर खुला रहता है और गिद्ध, बाज या कौए इन्हें खाते हैं तो यह रसायन पशु के शरीर में पहुंच जाता है। डाइक्लोफिनेक सोडियम इन पक्षियों के लिए टॉक्सिन का काम करता है और उनके लीवर पर असर डालता है, जिससे इनकी मौत हो जाती है। वहीं कुनैन या अन्य कोई कीटनाशक युक्त अनाज गौरेया और तोतों को डाला जाता है तो उनकी भी मौत हो जाती है।
सर्दी में दिखाई पड़ते थे गिद्द और बाज
आमतौरपर सर्दी के मौसम में गिद्ध दिखाई पड़ते थे। जनवरी में 10 से 15 दिनों तक गिद्ध दिखाई देते थे। गिद्द भी जनपद में ना के बराबर या यूँ कहें इक्का-दुक्का ही दूसरे स्थानों पर दिखाई देते हैं। यह हाल सिर्फ जनपद कानहीं है अन्य जनपदों में भी लगभग 99 प्रतिशत गिद्ध विलुप्त हो चुके हैं। गिद्ध की तरह ही बाज भी विलुप्त होने के कगार पर हैं। बाज भी विलुप्त होते जा रहे हैं। हालांकि जिले में बाज का भी कोई सर्वे नहीं हुआ है।
बड़े काम के हैं पक्षी
कुक्कुटप्रजाति मुर्गे, बटेर समेत तमाम पक्षी अंडे-मांस के चलते व्यापारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।
गिद्ध, बाज, कौआ सफाई प्रहरी पक्षी होते हैं। ये शवों को खाकर धरती को साफ रखने में मदद करते हैं।
गौरेया समेत कई पक्षी नए पौधों के लिए सहायक होते हैं।
पक्षियों के विलुप्त होने का असर पर्यावरण संतुलन पर भी दिख रहा है।
गौरेया भी गायब
अबघर-आंगन में गौरेया भी नहीं दिखती है। घरों में घोंसले बनाने वाली और अपनी चहचहाहट से सुबह का खुशनुमा माहौल का अहसास कराने वाली गौरेया की संख्या भी तेजी से घट रही है। इसके पीछे की बड़ी वजह मोबाइल टॉवरों से होने वाले रेडिएशन को माना जा रहा है। गोरैया की तरह तोते भी कम हो रहे हैं।