लानत है- साहब के बच्चो की पेंसिल और शार्पनर सरकारी खाते से …..

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stop corruptionडेस्क: साहबो की क्या क्या कहिये| मौका मिलने पर ईमानदारी का पाठ मंचो से ऐसे झाड़ते मिल जायेंगे जैसे हरिश्चंद्र की विरासत के असली हकदार यही है| मगर जरा पेंट उचका कर देखिये तो तमाम प्योंदे दिख जायेंगे| प्रशासनिक हो या विकास सेवा, अफसरों को वैसे तो किसी चीज की कमी नहीं रहती लेकिन कुछ अफसर ऐसे भी हैं जो हर छोटे-बड़े सरकारी माल पर नजर गड़ाए रहते हैं। जिले के एक महकमे में तैनात रहे आला अधिकारी की कारगुजारियों के किस्से इन दिनों खूब चटखारे लेकर बयां किए जा रहे हैं। जहां बैठते हैं बगले झाकते नजर आते है| बहुत हुआ तो दातो से नाखून चबा लिया|

साहबो के बच्चे सरकारी गाडी से स्कूल जाते है| बीबियाँ सरकारी गाडी से शोपिंग करती है| किटी पार्टी के लिए भी मेमसाहब को सरकारी ड्राईवर जनता के टैक्स वाला डीजल डाल गाडी में छोड़ आता है| यहाँ तक तो बात ठीक थी लेकिन जब दफ्तर से रजिस्टर, ब्लेड, पेंसिल-रबर, पेन तथा अन्य स्टेशनरी भी साहब के घर जाने लगी तो बात खबरनबीसो तक पहुचनी ही थी|

लोगों ने खोजबीन की तो पता चला कि बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए स्टेशनरी आदि का इंतजाम भी सरकारी खर्चे से ही कर रहे हैं। जब बड़े साहब का यह हाल था तो स्टाफ कहां पीछे रहने वाला। साहब के नाम पर स्टाफ ने भी खूब हाथ साफ किया। सरकारी नौकरी है तो सरकारी माल भी अपना। कम कीमत का हो या ज्यादा का, इससे क्या फर्क पड़ता है?

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