हिन्दू संस्कृति में नाग को भगवान मानकर पूजा जाता है। भगवान विष्णु भी शेषनाग पर शयन करके मानो जीवरक्षा का संदेश देते हैं कि जिस जीव को हम विषधर कहकर मारने लगते हैं, वही जीव हमारी संस्कृति में पूजा जाता है।
हमारी संस्कृति में हर साल नागपूजा की जाती है जिसे आम भाषा में नाग-पंचमी का पर्व कहा जाता है। भगवान शिव भी सर्पों की माला गले में धारण करके मानो नाग देवता के प्रति आदर करने का उपदेश देते हैं।
जैन धर्म, दर्शन तथा साहित्य में भी नाग को विशिष्ट स्थान दिया गया है। तेईसवें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ के गर्भकाल में ही मां वामादेवी ने समीप में सरकते नाग को देखा जो दैवी दिव्यता का प्रतीक था।
भगवान पाश्र्वनाथ की नाग से समलंकृत प्रतिमा की ओजस्विता का अपना अनूठा ही आकर्षण है।
बौद्ध धर्म में भी सर्पों से संबंधित कई प्रसंग आए हैं। भगवान बुद्ध की मूर्तियों पर भी नागदेव की छाया देखी जा सकती है।
जैन एवं बौद्ध शिल्पकला-मूर्तिकला में भी सर्प संबंधी पर्याप्त सामग्री देश के कोने-कोने में पाई जाती है।
विश्व के अनेक देशों व धर्मों में नागपूजा की प्रथा प्रचलित है। वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो भी नाग हमारे पर्यावरण के लिए काफी उपयोगी सिद्ध होते हैं।
सांप का जहर यूं तो काफी जहरीला होता है पर इससे कई जीवनरक्षक दवाएं भी बनाई जाती हैं। इन्हीं सब कारणों से सर्प को मारना वर्जित है। अत: सर्प से सतर्क रहते हुए भी इसकी पूजा-अर्चना की प्रथा सभी धर्मों में प्रचलित है।