हर साल उजड़ने और नये सिरे से बसने की कहानी भर हो गयी जिंदगी
फर्रुखाबादः जनपद मे विगत एक माह से अधिक से गंगा की बाढ़ कहर ढाये है। गाहे-ब-गाहे रामगंगा भी गंगा की ताल पर सुर मिलाने लगती है। जनपद के दर्जनों गांव बाढ़ से प्रभावित हैं। हजारों की संख्या में ग्रामीण इस दैवीय आपदा से पीड़ित हैं। अपनी घर ग्रहस्थी छोड़-छाड़ कर सड़कों और बियाबानों में डेरा डाले हैं। दैवीय आपदा राहत के नाम पर प्रशासन ने आंकड़ों का मकड़जाल तैयार कर रखा है। पर हकीकत तो यह है कि राहत मिलता तो दूर बाढ़ पीड़ितों को यह तक नहीं मालूम कि उनको किसी प्रकार की सहायता का अधिकार भी है। सड़कों के किनारे बांसों पर पॉलीथीन तान कर डेरा डाले बाढ़ पीड़ितों के पास कोई वाहन अनायास भी रुकता है तो उनकी निगाहें उम्मीद से उस ओर उठ जाती हैं। अपने छोटे-छोटे नाती-पोतों के साथ सड़क किनारे घेरे बैठी़ वृद्ध महिला से पूछा कि कोई मदद को आया तो उसके चेहरे पर अजीब सी मुस्कुराहट तैर गयी। व्यंगात्मक लहजे में बोली ‘अभयीं कोई नाहीं आओ लल्ला, बोटन की बेरा सब अहियैं’। बूढ़ी महिला का यह वयंग प्रशासन से लेकर नेताओं तक को शर्मसार करने के लिये काफी है। पर शर्म का क्या है ‘पहले आती थी, अब किसी बात पर नहीं आती।
जनपद का एक बड़ा भाग गंगा और रामगंगा के किनारे बसा है। लगभग हर साल ही इन नदियों में आने वाली बाढ़ इन तटवर्ती ग्रमों को फिर से बसने से पहले ही उजाड़ जाती है। पर इनकी मजबूरी है कि यह बेचारे इसी को भाग्य मान चुके हैं। पंचायत से लेकर लोकसभा चुनाव तक हर स्तर के नेता सहानुभुति के नाम पर इन गरीबों की बदनसीबी का मजाक उड़ाते हैं पर इनकी समस्या के स्थायी हल के लिये कोई कुछ करने को राजी नहीं है। [bannergarden id=”8″]विगत लगभग एक माह से गंगा और रामगंगा कभी तोला कभी माशा का खेल रही हैं। प्रशासन के दफ्तरों में जल स्तर को आंकड़ों की तरह सहेजा जा रहा है। जैसे-जैसे घटियाघाट पर गंगापुल के नीचे खंबे पर बने पैमाने पर पानी लाल निशान के निकट आता जाता है, सरकारी किताबों में आपदा राहत की कलम भी लाल होती जाती है।
बरेली हाईवे के किनारे कई किलोमीटर में फैली बाढ़ पीड़ितों की इस बस्ती में बच्चे भी हैं, बूढ़े भी। जवान बेटियां भी हैं और नवविवाहिता बहुएं भी। पर मुसीबत ने सारी मर्यादायें ध्वस्त कर दी है। मुश्किल तो तब होती है [bannergarden id=”11″]जब वर्षा के कारण इस 6‘X4’ के डेरे में सब घुस कर सिर छिपाये बैठने को मजबूर होते हैं। इनमें से किस डेरे में चूल्हा जला या किस मां ने अपने मासूम बच्चे को थपक कर भूखा ही सुला दिया।
स्थानीय ग्राम प्रधानों को छोड़ भी दे तो चार-चार विधायकों ने अपने अपने क्षेत्र में एक-दो बार फोटो सेशन कराने के अलावा कोई गंभीर पहल नहीं की है। भाजपा को छोड़कर लगभग सभी बड़े दलों के लोकसभा प्रत्याशी तय कर दिये है। भाजपा में भी एक से अधिक टिकटार्थी लालायित दिख रहे हैं। ईद, स्वतंत्रता दिवस और जन्माष्टमी की बधाई के नाम पर बड़-बड़े होर्डिंग-पोस्टर शहर के हर गली मोहल्ले तक में लगे नजर आ जायेंगे। इन नेताओं ने बधाइयों के नाम पर जो लाखों रुपये फूँक दिये उनसे कमसे कम इन बदनसीब बाढ पीड़ितों का एक सप्ताह तो भरपेट भोजन चल ही सकता था। मजे की बात है कि स्वयं मदद न करना तो एक बात है, परंतु किसी जन प्रतिनिधि ने शासन से आने वाली सहायता के वास्तविक वितरण की परीवीक्षा तक की जहमत गवारा नहीं की।
रही बात जिला प्रशासन की तो उसकी आंकड़ों की बाजीगरी का ब्यौरा कुछ यूं है-
तहसील |
सदर |
कायमगंज |
अमृतपुर |
योग |
मृतक |
4 |
4 |
1 |
9 |
वितरित अनुग्रह |
6,00,000 |
6,00,000 |
1,50,000 |
13,50,000 |
गृह अनुदान |
33400 |
660500 |
|
693900 |
लाभार्थी |
10 |
197 |
|
206 |
सहायता धनराशि |
0 |
20,000 |
1,00,000 |
1,20,000 |
लाभार्थी |
|
47 |
67 |
114 |
कुल धनराशि |
633400 |
1280500 |
250000 |
2163900 |
कुल लाभार्थी |
14 |
248 |
68 |
330 |
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