विभाजन के बाद जिन्ना को क्यों हुआ पछतावा!

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Zinnaनई दिल्ली। आजादी यानी इंसान और इंसानियत के इतिहास का सबसे खूबसूरत लफ्ज। सैकड़ों साल की जद्दोजहद के बाद हिंदुस्तान के आसमान पर जब आजादी का सूरज उगा तो रोशनी से ज्यादा अंधेरे की लकीरें नजर आ रही थीं। ये लकीरें अंग्रेज साम्राज्यवादियों के इरादों का सबूत थीं, जिन्होंने हमेशा ही, आबाद नहीं, बरबाद हिंदुस्तान की ख्वाहिश की थी। एक ख्वाब था यूनियन जैक को उतार फेंकना…एक ख्वाब था तिरंगे को आसमान में फहराते देखना…लेकिन जब ये सब हो रहा था, तो छह लाख इंसानों की लाशें बिखरी पड़ी थीं। करीब डेढ़ करोड़ लोगों को अपना घर-बार छोड़कर उन इलाकों का रुख करना पड़ा था जो उनके सपनों की सरहद से भी सैकड़ों मील दूर थे। इतिहास कई देशों की खूनी क्रांतियों का गवाह है, लेकिन वहां भी इतने लोग नहीं मारे गए, जितने शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण के नाम पर हुए भारत विभाजन में। किसी ने भी इस खौफनाक मंजर की कल्पना नहीं की थी। हर तरफ एक हैरानी पसरी थी जो आज तक खत्म नहीं हो पाई है।
इतिहासकार प्रोफेसर इरफान हबीब कहते हैं कि किसी ने कल्पना नहीं की थी कि इतने लोग मारे जाएंगे। जिन्ना जैसे लोग समझते थे कि ये तो तात्कालिक है। उस वक्त की लीडरशिप ने अंदाजा नहीं लगाया था कि परिणाम कितने भयावह होंगे। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर कहते हैं कि मेरे हिसाब से विभाजन जरूरी नहीं था क्योंकि हिंदू मुसलमान एक हजार साल से एक साथ रहते थे लेकिन जब मुस्लिम लीग ने पॉलिटिक्स को धर्म के साथ मिलाया तो उसके बाद कोई चारा नहीं बचा था लेकिन अजीब सी बात है कि एक हजार साल से इकट्ठे रह रहे थे और एकदम से बंटवारा हो गया।
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सवाल ये है कि भारत के तपे-तपे नेताओं की जमात देश को एक रखने में नाकाम कैसे हुई। आखिर गांधी जैसे महामानव की जिद बेकार कैसे चली गई। इस किस्से की जड़ में जाना हो तो 90 बरस पहले का पन्ना पलटना पड़ेगा जब हिंदुस्तान में आजादी की पहली जंग दुनिया का ध्यान खींच रही थी। वो 1857 की गर्मियां थीं। ऐसा अंधड़ उठा कि ब्रिटिश राज कांप उठा। यूं कुछ लोग इसे महज कुछ राजे-रजवाड़ों का विद्रोह मानते हैं, लेकिन इसमें बड़ी तादाद में आम लोग, किसान, मजदूर, दस्तकार शामिल थे। सबसे बड़ी बात ये कि हिंदू-मुस्लिम का फर्क मिट गया था। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई हों, या बिठूर में बैठे नानासाहब पेशवा या फिर अवध की बेगम हजरत महल, सबने दिल्ली के बादशाह बहादुरशाह जफर का परचम उठा लिया था।
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सेना के भीतर हिंदू और मुसलमान अफसरों और सिपाहियों की एकता वह आधारशिला थी जिस पर उत्तर भारत में ये अंग्रेज विरोधी राष्ट्रीय मोर्चा बना था। इस एकता से अंग्रेज घबरा गए। उन्होंने धर्म के आधार पर दंगे कराने की कोशिश की, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। दिसंबर 1857 को अवध के चीफ कमिश्नर जार्ज कूपर ने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया के सेक्रेटरी जी.एफ.एडमंस्टन को लिखा कि बरेली के हिंदुओं को मुसलमान बागियों के खिलाफ भड़काने के लिए जो 50 हजार रुपये की रकम निर्धारित की गई थी, वह खर्च नहीं हुई क्योंकि भड़काने की कोशिश बिलकुल बेकार साबित हुई।
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ऐसा लगता था कि भारतीय सैनिक अंग्रेजी राज की शुरुआत करने वाले 1757 की प्लासी की लड़ाई को भूले नहीं थे। सौ साल बाद वे युद्ध भूमि में अंग्रेजों का रक्त बहाकर राष्ट्रीय अपमान का बदला ले रहे थे। राष्ट्रीय एकता और स्वाधीनता उनका नारा था। विद्रोह के गढ़ कानपुर में कुरान और गंगा की कसमें खाकर अंग्रेजों पर धावा बोला गया लेकिन इतिहास अंग्रेजों के पक्ष में था। अंग्रेजों ने पूरी ताकत और छल-बल से पलटवार किया। क्रांति का ये महाप्रयास असफल हो गया। पर 1857 की नाकामी में भी एक कामयाबी छिपी थी। ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का अंत हो गया। हिंदुस्तान अब सीधे ब्रिटिश ताज के अधीन हो गया। उधर, अंग्रेजों को समझ में आ गया कि हिंदू और मुसलमान अगर एक हो गए तो उनका सूरज डूबते देर नहीं लगेगी इसलिए बांटो और राज करो, अब उनके शासन चलाने की खास नीति बन गई।
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1857 की घटनाओं ने अंग्रेजों और हिंदुस्तानियों, दोनों को सबक दिया। अंग्रेजों को समझ में आ गया कि भारतीयों के आक्रोश को बहुत दिनों तक दबाया नहीं जा सकता। उन्हें देर-सबेर शासन-प्रशासन में कुछ हिस्सेदारी देनी पड़ेगी। उनकी तकलीफों को सुनना पड़ेगा। वहीं हिंदुस्तानियों के बड़े हिस्से को ये बात समझ में आ गई कि सशस्त्र संघर्ष के जरिये अंग्रेजों को देश से बाहर करना आसान नहीं है। 28 दिसंबर 1885 को एक पूर्व अंग्रेज अफसर ए. ओ. ह्यूम के प्रयत्नों से बंबई में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। ह्यूम को लगता था कि भारत सशस्त्र विद्रोह के मुहाने पर है। कांग्रेस के प्रारंभिक उद्देश्य के बारे में लाला लाजपत राय ने लिखा है कांग्रेस की स्थापना का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य को खतरे से बचाना था। भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए प्रयास करना नहीं, ब्रिटिश साम्राज्य का हित प्रमुख था और भारत का गौण।
लेकिन जल्द ही घोड़ा सवार की इच्छा के खिलाफ दौड़ने लगा। कांग्रेस ने तमाम राष्ट्रवादियों को आकर्षित किया और इसके उद्देश्य बदलते गए। कांग्रेस में हिंदू और मुसलमान का भेद नहीं था। लेकिन इस बीच मुस्लिम नेताओं का भी एक वर्ग सामने आ गया था जो अंग्रेजों के साथ सहयोग की नीति पर चल रहा था। अलीगढ़ विश्वविद्यालय की नींव डालने वाले सर सैयद अहमद खां इसके अगुवा थे। यूं तो वे हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे और उन्होंने हिंदुस्तान को एक सुंदर दुल्हन और हिंदू और मुसलमानों को उसकी दो चमकीली आंखें बताया था, लेकिन उन्होंने मुसलमानों को कांग्रेस से अलग रखने का पूरा प्रयास किया। उन्होंने कांग्रेस को हिंदुओं की संस्था कहा। 1857 का पाठ पढ़ चुके अंग्रेज मुसलमानों की एक अलग राजनीतिक संस्था के विचार को हवा दे रहे थे।
1 अक्टूबर 1906 को आगा खां के नेतृत्व में मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमंडल शिमला में वॉयसराय लार्ड मिंटो से मिला। प्रतिनिधिमंडल ने मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन, विधानसभा में अधिक स्थान, सरकारी नौकरियों में अहम और अधिक पद और वॉयसराय कौंसिल में जगह मांगी। वॉयसराय ने मांगों पर ध्यान देते हुए प्रतिनिधिमंडल के सम्मान में पार्टी दी। अंग्रेजों ने इसे बेहद अहम घटना माना। उसी दिन एक अंग्रेज अधिकारी ने श्रीमती मिंटो को पत्र लिखा-मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि आज एक बहुत बड़ी घटना हुई है। यह दूरदर्शितापूर्ण एवं राजनीतिक कौशल का एक ऐसा काम है जो भारतीय इतिहास को अनेक वर्षों तक प्रभावित करता रहेगा। छह करोड़ 20 लाख भारतीय मुसलमानों को आज विद्रोही दल में शामिल होने से रोक दिया गया है।
विद्रोही दल यानी कांग्रेस। अंग्रेजों की कूटनीति का नतीजा जल्द ही सामने आया। 30 दिसंबर 1906 को ढाका के नवाब सलीम उल्ला खां के निमंत्रण पर एक सम्मेलन हुआ जिसमें अखिल भारतीय मुस्लिम लीग का गठन हुआ। ये खासतौर पर मुस्लिम जमींदारों का संगठन था। उनकी ये सोच थी कि मुसलमानों ने कई सौ साल तक हिंदुस्तान पर हुकूमत की है। अंग्रेजों को चाहिए कि वे जहां तक हो सके मुसलमानों को उनकी हैसियत लौटाएं। 1906 से 1911 के बीच मुस्लिम लीग सांप्रदायिक नीति पर चलते हुए कांग्रेस का विरोध करती रही। कांग्रेस इस दौरान 1905 में हुए बंगभंग के खिलाफ आंदोलन छेड़े हुए थी। लोकमान्य तिलक जैसे राष्ट्रवादी स्वराज को जन्मसिद्ध अधिकार बताकर लहर पैदा कर रहे थे। इस बीच 1909 में सरकार ने मार्ले-मिंटो सुधार का ऐलान कर दिया। अंग्रेज इसके तहत मुसलमानों को इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में अलग से प्रतिनिधित्व देकर राजनीतिक अलगाव को गहरा करने में कामयाब रहे। लेकिन जल्द ही दो घटनाओं ने माहौल में नया जोश भर दिया।
कांग्रेस से जुड़े प्रखर राष्ट्रवादी वकील मोहम्मद अली जिन्ना 1913 में मुस्लिम लीग के सदस्य बन गए। 1915 में गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट आए। जिन्ना को आम भारतीय भारत विभाजन का सबसे बड़ा गुनाहगार समझता है। लेकिन शुरुआत में जिन्ना की छवि एकदम उलट थी। वे प्रखर राष्ट्रवादी माने जाते थे। भारत कोकिला सरोजिनी नायडू तो उन्हें हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक कहती थीं। वे गोपाल कृष्ण गोखले के शिष्य थे और कहा जाता है कि उनके कहने पर ही उन्होंने 1913 में लंदन में मुस्लिम लीग की सदस्यता ले ली। मकसद था मुस्लिम लीग को कांग्रेस के करीब लाकर राष्ट्रीय आंदोलन को गति देना।
बैरिस्टर जिन्ना की शुरुआती अभिलाषा थी कि वे मुसलमानों के गोखले बनें। वहीं गोखले का कहना था कि जिन्ना में वास्तविक गुण हैं कि और वे सभी तरह के संकीर्ण पूर्वाग्रहों से मुक्त हैं, जो उन्हें हिंदू-मुस्लिम एकता का श्रेष्ठ प्रवर्तक बनाएंगे। राष्ट्रवादी जिन्ना का असर ये हुआ कि मुस्लिम लीग का चरित्र बदलने लगा। उसने स्वशासन का सिद्धांत अपना लिया। लीग और कांग्रेस धीरे-धीरे करीब आने लगे। 1915 में लीग के अधिवेशन में महात्मा गांधी, सरोजिनी नायडू और मदन मोहन मालवीय जैसे कांग्रेस नेताओं ने हिस्सा लिया। इसका नतीजा 1916 में लखनऊ समझौते के रूप में सामने आया। इसके तहत तय हुआ कि मुसलमानों को पृथक चुनाव प्रणाली के माध्यम से अपने प्रतिनिधि चुनने की व्यवस्था बरकरार रखी जाए। मुसलमानों के प्रतिनिधित्व का अनुपात निश्चित हो।
इस समझौते के बाद कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने मिलकर अंग्रेजों से मांग की कि भारतवर्ष को पराधीनता की वेदी से ऊपर उठाकर आत्मशासित उपनिवेश की भांति साम्राज्य के कामों में बराबर का हिस्सेदार बनाया जाना चाहिए। लखनऊ समझौते के जरिये कांग्रेस ने पहली बार सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया। लेकिन एकता के इस प्रसंग पर अंग्रेजों को मुस्कराने का मौका दे दिया। उन्हें ये समझौता बांटो और राज करो की नीति की जीत लगा। कुछ लोगों का मानना है कि विभाजन के बीज इसी लखनऊ समझौते में थे। कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं ने समझौते को सौदे का अंतिम अध्याय समझा था लेकिन वह पहला अध्याय ही साबित हुआ। इसके अंतिम अध्याय का शीर्षक था…पाकिस्तान। लेकिन उस दिन के आने में अभी वक्त था क्योंकि गांधी नाम के तूफान ने स्वतंत्रता आंदोलन में नया तेवर भर दिया।
महात्मा गांधी के नेतृत्व ने स्वतंत्रता आंदोलन का नक्शा ही बदल दिया। कमान उच्च वर्ग से निकलकर आम जनता के हाथ आने लगी जिसके दिल में एक फकीर ने प्रजातंत्र की आग भरनी शुरू कर दी थी। दुनिया इस समय पहले विश्वयुद्ध की तकलीफों से रूबरू थी। युद्ध का फायदा उठाकर अंग्रेज सरकार ने 1919 में रौलट एक्ट पास कर दिया। इसके तहत किसी को भी संदेह के आधार पर गिरफ्तार किया जा सकता था। इसके विरोध में गांधी जी ने देशव्यापी सत्याग्रह का आह्वान किया। 1919 की 6 अप्रैल से सत्याग्रह शुरू हुआ और 9 अप्रैल को गांधीजी दिल्ली के करीब पलवल से गिरफ्तार कर लिए गए। इस बीच 13 अप्रैल को अमृतसर में जलियांवाला कांड हो गया।
बेरहम जनरल डायर ने बाग में रौलट एक्ट के विरोध में सभा कर रहे लोगों पर दस मिनट तक अंधाधुंध गोलियां चलवाईं। कांग्रेस के मुताबिक हजार से ज्यादा लोग मारे गए। इस बीच तुर्की में खलीफा के हटाए जाने के खिलाफ मुसलमानों ने खिलाफत आंदोलन शुरू किया जिसे गांधी जी ने पूरी तरह सही माना। गांधी जी के इस रुख से मुसलमानों का बड़ा तबका गांधी जी से जुड़ा। हालांकि विदेशी और धार्मिक मुद्दे को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ने के लिए गांधी की आलोचना भी हुई। 1920 में गांधी जी ने असहयोग आंदोलन का ऐलान किया तो गली-गली आजादी के तराने गूंज उठे। लेकिन चौरीचौरा में एक पुलिस चौकी पर हुए हमले के बाद गांधी जी ने आंदोलन वापस ले लिया। वे रचनात्मक काम में जुट गए।
उधर गांधी जी के आंदोलन से इतर एक और धारा पनपने की कोशिश कर रही थी। 1915 में कुंभ मेले के दौरान हिंदू महासभा की स्थापना हुई जिसका नेतृत्व मदन मोहन मालवीय जैसे कांग्रेस के नेताओं के पास था। लेकिन धीरे-धीरे इसमें कट्टरवादी तत्व मजबूत होते गए जो सभी सवालों को हिंदू-मुसलमान के नजरिये से देखते थे। गांधी जी की उदारता उन्हें कतई रास नहीं आती थी। 1925 में आरएसएस के गठन और आर्यसमाज के शुद्धि आंदोलन में आई तेजी ने मुस्लिम लीग को सशंकित कर दिया। लीग में ये बात घर करती गई कि आजाद और लोकतांत्रिक भारत में हिंदू बहुमत में होंगे। इस बात की पूरी आशंका रहेगी कि वे मुसलमानों के खिलाफ कानून बना दें। इसलिए मुसलमानों को आजादी के पहले ही संवैधानिक संरक्षण मिल जाना चाहिए। 30 मार्च 1927 को जिन्ना ने मशहूर दिल्ली प्रस्ताव रखा। इसमें मुख्य तौर पर केंद्रीय विधानसभा में मुसलमानों के लिए 33 फीसदी सीटें आरक्षित करने की बात थी। जिन्ना ने कहा-सारी बात का निचोड़ ये है कि मुसलमानों को ये अहसास होना चाहिए कि वे संक्रमण काल में हिंदू बहुमत के खिलाफ सुरक्षित हैं।
लेकिन गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस बड़ी रेखा खींचने की कोशिश में जुटी थी। कांग्रेस ने 1928 में मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में बनी रिपोर्ट को स्वीकार करते हुए प्रादेशिक स्वायत्तता को ही तात्कालिक लक्ष्य मान लिया। नेहरू रिपोर्ट भविष्य के भारत का संविधान गढ़ने की कोशिश कर रही थी। इसमें सांप्रदायिक चुनाव पद्धति खत्म करने के साथ ही अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की बात थी। लेकिन मुस्लिम लीग ने इसे स्वीकार नहीं किया। जिन्ना ने मुसलमानों का अखिल भारतीय सम्मेलन बुलाकर 14 सूत्री मांगें रख दीं। उधर, कांग्रेस में जवाहरलाल नेहरू और सुभाषचंद्र बोस जैसे नेता केवल डोमेनियन स्टेट यानी प्रादेशिक स्वायत्तता से संतुष्ट नहीं थे। बहरहाल सरकार को 31 दिसंबर 1929 तक का वक्त दिया गया। लेकिन कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला तो इसी तारीख की आधी रात को कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में सबसे महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित हुआ। ये था पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव। 26 जनवरी 1930 को सारे देश में स्वाधीनता दिवस मनाने का ऐलान कर दिया गया।
इसी के साथ गांधी जी ने दांडी यात्रा के साथ सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया। नमक इसका प्रतीक बना। नमक पर लगे टैक्स के खिलाफ गांधी जी ने दांडी यात्रा शुरू की। शहर-शहर नमक बनाया जाने लगा। महिलाओं ने पर्दे से बाहर निकलकर शराब की दुकानों पर पिकेटिंग की। विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई। गोलमेज सम्मेलनों के जरिये हल निकालने की कोशिश की गई लेकिन आंदोलन का ज्वार बढ़ता जा रहा था। मुस्लिम लीग से जुड़े मुसलमान जरूर इन आंदोलनों से दूर थे, लेकिन कांग्रेस के पास मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसा अपना मुस्लिम नेतृत्व था। उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत में खान अब्दुल गफ्फार खां के नेतृत्व में खुदाई खिदमतगारों का संगठन बना जिसने गांधी जी को अपना नेता मान लिया। आखिरकार सरकार ने 1935 में भारत सरकार अधिनियम लागू करने का ऐलान किया। इसके तहत प्रांतों को स्वायत्ता देने का ऐलान किया गया। 1937 में प्रांतीय सरकारों के गठन के लिए चुनाव कराए गए।
कांग्रेस 1935 के भारत सरकार अधिनियम के खिलाफ थी लेकिन 1937 के चुनाव में उसने हिस्सा लिया और शानदार सफलता पाई। मुस्लिम लीग को 482 मुस्लिम सीटों में से महज 81 पर जीत हासिल हुई। कांग्रेस की सात प्रांतों में सरकारें बनीं। 1937 के चुनाव में मिली हार से मुस्लिम लीग निराश हुई। जिन्ना चाहते थे कि संयुक्त प्रांत यानी आज के उत्तर प्रदेश में मुस्लिम लीग को सरकार में शामिल करके दो मंत्रिपद दिए जाएं। लेकिन नतीजों ने कांग्रेस नेताओं में ये भाव भर दिया था कि लीग को सारे मुसलमानों का समर्थन हासिल नहीं है। कांग्रेस उनकी नुमाइंदगी भी करती है। लिहाजा जिन्ना का प्रस्ताव नामंजूर कर दिया गया। आहत जिन्ना ने पलटवार करने में देर नहीं की। उन्होंने आरोप लगाना शुरू किया कि कांग्रेस अल्पसंख्यकों के हितों को समाप्त करना चाहती है। लीग ने इस्लाम खतरे में है का नारा लगाया। उसने उर्दू के सवाल को भी अपनी सांप्रदायिक राजनीति का हथियार बनाया जो हिंदुओं और मुसलमान दोनों को प्यारी थी।
मुस्लिम लीग जिस उर्दू को मुसलमानों की भाषा बता रही थी उसे लिखना-पढ़ना खुद जिन्ना के बस की बात नहीं थी। कुछ समय पहले तक उसे हिंदी ही कहा जाता था। मशहूर शायर मीर तकी मीर ने किसी शेर में सुरूरे कल्ब शब्द आने पर कहा था-क्या जाने लोग कहते हैं किसको सुरूरे कल्ब, आया नहीं है लफ्ज ये हिंदी जबां के बीच। ध्यान दीजिए, मीर अपनी जुबान को हिंदी जबां कह रहे थे। खैर, आजादी की ओर बढ़ते कदमों के बीच सुरूरे कल्ब यानी दिल की तरंग पीछे छूट रही थी और तंग नजरिया ही असल रंग ढंग बनता जा रहा था। 1939 में जब कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने इस्तीफा दिया तो मुस्लिम लीग ने मुक्ति दिवस मनाया। लेकिन असली विस्फोट होने में कुछ महीने की देर थी। 1937 में अहमदाबाद में हिंदू महासभा का 19वां अधिवेशन हुआ इसे संबोधित करते हुए विनायक दामोदर सावरकर ने कहा कि यह कतई नहीं कहा जा सकता कि हिंदुस्तान एकता में पिरोया हुआ राष्ट्र है। इसके विपरीत हिंदुस्तान में दो राष्ट्र हैं, हिंदू और मुसलमान।
खुद को कट्टर राष्ट्रवादी और देशभक्त होने का दावा करने वाली हिंदू महासभा के अधिवेशन में सावरकर के इस भाषण ने जैसे जिन्ना को नई ताकत दे दी। जिन्ना को सावरकर का ये बयान खूब रास आया। उन्होंने मार्च 1940 में मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेश में दोराष्ट्र के सिद्धांत को सही मानते हुए मुसलमानों के लिए अलग पाकिस्तान की मांग की। उन्होंने साफ कहा कि हिंदू और मुसलमान कभी भी मिलकर एक राष्ट्र नहीं बन सकते।
जिन्ना के इस रुख ने माहौल गरमा दिया। लेकिन इसी बीच द्वितीय विश्वयुद्ध भी शुरू हो चुका था। अंग्रेजों ने भारतीयों का समर्थन प्राप्त करने के लिए 8 अगस्त 1940 को घोषणा की कि युद्ध के बाद भारतीयों की प्रतिनिधि सभा नए संविधान का निर्माण करेगी। लेकिन कांग्रेस से टकराव कम नहीं हुआ। गांधी जी के आह्वान पर व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू हो गया। करीब 15 महीने तक बड़े-बड़े नेता सत्याग्रह करते हुए जेल जाते रहे। 23 मार्च 1942 को कुछ नए सुझावों के साथ क्रिप्स मिशन भारत आया लेकिन उसे असफलता ही हाथ लगी। तनाव बढ़ता जा रहा था। 24 मई 1942 को गांधी जी ने एक लेख में अंग्रेजों को भारत को भगवान भरोसे छोड़ देने को कहा। कांग्रेस कार्यसमिति ने इस पर मुहर लगा दी और 9 अगस्त को भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हो गया। गांधी जी ने नरा दिया-करो या मरो। इस नारे ने तूफान खड़ा कर दिया। ये दुनिया का अनोखा आंदोलन था जिसमें, अहिंसा को हथियार बनाकर दुनिया की सबसे बड़ी ताकत को झुकने पर मजबूर किया गया। आजादी से जुड़े ख्वाब किसी पार्टी या उसकी कमेटी में शामिल लोगों तक सीमित नहीं रहे। वे जन-जन की ख्वाहिशों का हिस्सा बन गए थे।
भारत छोड़ो आंदोलन ने युद्ध में उलझी ब्रिटिश सरकार को बुरी तरह से परेशान कर दिया। 1943 में लार्ड वेवल को भारत का नया वॉयसराय बनाकर भेजा गया। उन्होंने गांधी जी को रिहा कराया और गतिरोध तोड़ने का रास्ता तलाशते रहे। 25 जून 1945 को उन्होंने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के अलावा भी कई दलों के नेताओं का सम्मेलन बुलाया। लेकिन सम्मेलन के दौरान जिन्ना इस बात के लिए अड़ गए कि लीग ही सभी मुसलमानों की नुमाइंदगी करती है। सम्मेलन असफल हो गया। उधर, अंग्रेजों को युद्ध में जीत मिल चुकी थी। इसका फायदा उठाने के लिए प्रधानमंत्री चर्चिल ने चुनाव की घोषणा कर दी, लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा। लेबर पार्टी ने जीत हासिल की जो भारत को आजादी देने के पक्ष में थी। लार्ड एटली नए प्रधानमंत्री बने।
दूसरे विश्वयुद्ध में मित्र राष्ट्रों को जीत जरूर हासिल हुई थी लेकिन आर्थिक तौर पर ये इंग्लैंड पर भारी बोझ साबित हुआ था। भारत में गांधी जी ने तूफान खड़ा कर दिया था, उसे दबा पाने के लिए ज्यादा संसाधनों की जरूरत थी। गांधी जी चाहते थे कि युद्ध के बाद बनी शांति के फल का समान वितरण हो। ये भी कि आजादी शांति की जु़ड़वा बहन है और निर्भयता दोनों की जननी। ब्रिटेन की हिम्मत पस्त होने लगी थी।
15 मार्च, 1946-प्रधानमंत्री एटली ने भारतीयों के आत्मनिर्णय के अधिकार और संविधान बनाने की मांग को मान लिया। एक मंत्रिमंडलीय शिष्टमंडल यानी कैबिनेट मिशन 24 मार्च 1946 को भारत पहुंचा। मिशन ने ब्रिटिश भारत और भारतीय राजाओं को मिलाकर एक भारतीय संघ बनाने का प्रस्ताव रखा, जिसमें उसके पास केवल विदेशी मामले, प्रतिरक्षा और संचार विभाग तथा शेष शक्तियां राज्यों के पास रहनी थी। कहा गया कि एक संविधान सभा का निर्माण किया जाएगा जिसमें जनसंख्या के आधार पर सांप्रदायिक आधार पर प्रतिनिधि होंगे। मिशन ने इस बात पर बल दिया कि ब्रिटिश सेना तब तक नहीं हटाई जाएगी जब तक कि स्वतंत्र भारत की सरकार न बन जाए।
तमाम आपत्तियों के बावजूद कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने कैबिनेट मिशन की योजना को स्वीकार कर लिया। इसके बाद जुलाई 1946 में संविधान सभा के निर्माण के लिए चुनाव कराए गए। चुनाव में कांग्रेस ने 214 सामान्य सीटों में से 205 पर जीत हासिल की। मुस्लिम लीग को 78 मुस्लिम स्थानों में से 73 सीट हासिल हुईं। जिन्ना ने इसके बाद पाकिस्तान की मुहिम तेज कर दी। उन्हें लग गया कि मुस्लिम समुदाय में उनकी पैठ गहरी हो गई है और वे अपना ख्वाब पूरा कर सकते हैं। उन्होंने कैबिनेट मिशन की योजना को नामंजूर करते हुए 16 अगस्त 1946 को सीधी कार्रवाई दिवस मनाने का ऐलान कर दिया। नतीजतन बंगाल, संयुक्त प्रांत, पंजाब, सिंध और उत्तर पश्चिम सीमाप्रांत में दंगे भड़क उठे। आजादी के करीब पहुंचने के साथ भड़की इस आग ने तमाम भरोसे को स्वाहा कर दिया।
2 सितंबर 1946 को पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार का गठन हुआ, मुस्लिम लीग पहले बंटवारे की मांग पर डटी थी, लेकिन फिर 26 अक्टूबर 1946 को सरकार में शामिल हो गई। हालांकि वो संविधानसभा में शामिल नहीं हुई। विभाजन होना तय लग रहा था। कांग्रेस के नेता मन ही मन इसके लिए तैयार हो गए थे। लेकिन महात्मा गांधी किसी भी कीमत पर इसे रोकना चाहते थे।
22 मार्च 1947 को अंतिम वॉयसराय लार्ड माउंटबेटन दिल्ली पहुंचे। 24 मार्च को शपथ ग्रहण करने के बाद वे भावी आजादी के खाके को अंतिम रूप देने में जुट गए। कांग्रेस और लीग के नेताओं से मुलाकात में उन्होंने आपसी कड़वाहट का अहसास हो गया। लेकिन गांधी जी ने एक अद्भुत प्रस्ताव रखकर उन्हें चौंका दिया। गांधी जी ने कहा—जिन्ना को मंत्रिमंडल बनाने का मौका पहले देना चाहिए। यदि जिन्ना उसे स्वीकार कर लेते हैं तो उन्हें ईमानदारी से तब तक समर्थन देते रहना चाहिए, जब तक वे सभी हिंदुस्तानियों के हित में काम करते रहें। उनके सही या गलत होने का अंतिम फैसला वॉयसराय करें। देश में सांप्रदायिक सद्भाव बनाना उनकी जिम्मेदारी होगी। लीग को नेशनल गार्ड रखने की आजादी नहीं होगी। जिन्ना ये प्रस्ताव न मानें तो कांग्रेस को मौका दिया जाए।
इस प्रस्ताव का मतलब था जिन्ना को प्रधानमंत्री की कुर्सी सौंपना। ये एक महात्मा की जिन्ना का हृदय को जीतने और भारत को एक रखने की महान कोशिश थी। शायद उन्हें
उम्मीद थी कि इस बहाने शायद वे उस राष्ट्रवादी जिन्ना के दिल को झकझोर सकें जो कभी मुस्लिम गोखले बनना चाहता था। लेकिन कांग्रेस नेतृत्व अधीर था। गांधी जी के प्रस्ताव की जानकारी होने पर पं. नेहरू और सरदार पटेल ने माउंटबेटन से कहा कि एक अर्से से गांधी जी वस्तुस्थिति से अनभिज्ञ हैं। इसलिए उनका सुझाव अव्यावहारिक है। ये प्रस्ताव जिन्ना तक कभी भेजा भी नहीं गया। ऐसा होता तो इतिहास की दिशा बदल सकती थी। हालांकि चतुर जिन्ना इसे गांधी की चालाकी समझकर खारिज भी कर सकते थे।
21 अप्रैल 1946 को नेहरू ने संयुक्त प्रांतीय राजनैतिक सम्मेलन में कहा-अगर मुस्लिम लीग पाकिस्तान चाहती है तो उसे मिल जाएगा, किंतु इस शर्त पर कि वह भारत के उन भागों को न मांगे जो पाकिस्तान में शामिल नहीं होना चाहते। शुरुआत में सरदार पटेल केंद्रीय सरकार का उपयोग करके मुस्लिम लीग की हिंसा को दबाना चाहते थे। लेकिन बाद में वे राजी हो गए। गृह युद्ध का खतरा उठाने के बजाय या स्वाधीनता खोने के बजाय कांग्रेस ने पाकिस्तान को मान लेना बेहतर समझा।
गांधी जी बुरी तरह आहत थे। उन्होंने कभी कहा था बंटवारा उनकी लाश पर होगा। लेकिन कांग्रेस को अब उनकी जैसे चिंता ही नहीं रह गई थी। 7 मई को गांधी जी ने प्रार्थना सभा में कहा-कांग्रेस ने पाकिस्तान स्वीकार कर लिया है और पंजाब तथा बंगाल का विभाजन मांगा है। भारत के विभाजन का मैं आज भी उतना ही विरोधी हूं जितना सदा से रहा हूं। लेकिन मैं क्या कर सकता हूं। मैं तो केवल यही कर सकता हूं कि ऐसी योजना से अपने आपको अलग कर लूं। ईश्वर के अलावा कोई मुझे इसे स्वीकार करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता।
गांधी जी एक बार फिर माउंटबेटन से मिलने गए। उन्होंने सलाह दी कि वे सैनिकों समेत भारत छोड़कर चले जाएं। भारत को उपद्रव तथा अराजकता के भरोसे छोड़ने का खतरा उठा लें। अंग्रेजों के चले जाने पर कुछ समय तक उपद्रव होंगे, लेकिन ये आग हमको शुद्ध कर देगी। परंतु गांधी जी की कौन सुनता था। उन्होंने अपने एक सहयोगी को लिखा-हमारे नेता थक गए हैं और दूरदृष्टि खो बैठे हैं। वे स्वाधीनता के टलने से डरते थे। गांधी शायद इस आशा से देर करना चाहते थे कि अंत में संयुक्त देश को आजादी प्राप्त हो, न कि दो विरोधी भारतों को। लेकिन गांधी जी की कोशिश काम नहीं आई।
3 जून 1947 को माउंटबेटन ने भारत विभाजन की योजना रखी। इसके तहत बंगाल और पंजाब के विभाजन के साथ भारत का दो भागों में बंटवारा तय हुआ। कहा गया कि पूर्व और पश्चिम के मुस्लिम बहुल इलाकों को मिलाकर पाकिस्तान बनेगा। ब्रिटिश संसद में 4 जुलाई 1947 को भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम पास कर दिया गया जिसके नतीजे में 15 अगस्त 1947 को भारतीय संघ और पाकिस्तान अस्तित्व में आए। जाहिर है, गांधी जी के तमाम सपने टूट गए। उन्होंने घोषणा की कि मैं 15 अगस्त के समारोह में भाग नहीं ले सकता। मैंने इस विश्वास में अपने को धोखा दिया कि जनता अहिंसा के साथ बंधी हुई है।
इस बीच सरहदी इलाकों में मारकाट शुरू हो गई। सैकड़ों साल से एक साथ रहते आए लोगों को राजनीति ने वहशी बना दिया था। हर तरफ हिंसा और लूटमार का आलम। सरहद के दोनों तरफ तबाही और बरबादी फैली हुई थी। बंटवारे पर राजी नेताओं ने नहीं सोचा था कि लोगों को अपना घर-बार छोड़ना पड़ेगा। दिल्ली और लाहौर के बीच लाशों से पटी रेल चलेगी। बहरहाल, सरकारें जश्न की तैयारी में जुटी थीं। लेकिन गांधी इस सबसे दूर थे। 9 अगस्त 1947 को वे कलकत्ता पहुंचे। जिन्ना की सीधी कार्रवाई के ऐलान की वजह से सांल भर तक जलते रहे कलकत्ता में हर तरफ घाव ही घाव थे। गांधी जी उन्माद में डूबी गलियों में घूमे तो जादू हो गया। 14 अगस्त 1947 के बाद कलकत्ते में कोई दंगा नहीं हुआ।
जाहिर है, बैरिस्टर जिन्ना ने पाकिस्तान का मुकदमा जीत लिया था। उन्होंने उस इस्लाम का नारा बुलंद करके ये जीत हासिल की थी जिसका उनकी निजी जिदगी में कोई लेना-देना नहीं था। सच तो ये है कि ये जीत उन्हें उदासी से भर गई थी। वे पाकिस्तान को आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष मुल्क बनाना चाहते थे, लेकिन उनके जोशीले समर्थकों के दिल में तो वो जिन्ना बसा था जो इसके खिलाफ हो गया था। उनका हृदय कराची के गर्वनर हाउस में नहीं बंबई के मालाबार हिल के अपने बंगले में रह गया था जहां वे फिर लौटना चाहते थे। कहा जाता है कि उन्होंने कराची में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की बैठक में कहा—कि मैं अभी भी स्वयं को एक भारतीय मानता हूं। मैंने क्षण भर के लिए पाकिस्तान की गवर्नर जनरली मंजूर कर ली है, लेकिन मैं उस समय की ओर देख रहा हूं जबकि मैं भारत लौट जाऊंगा और अपने देश के नागरिक के रूप में अपना स्थान ग्रहण करूंगा।
पंडित नेहरू को जिन्ना की बेचैनी की खबर थी। उनके हिसाब से जिन्ना उस बच्चे की तरह तड़प रहे थे जो अपने मां-बाप का कत्ल करने के बाद यतीम होने की दुहाई दे। बहरहाल, बुरी तरह बीमार जिन्ना की 11 सितंबर 1948 को मौत हो गई। लेकिन मरने से पहले उन्होंने अपने डॉक्टर कर्नल इलाही बख्श से गहरी उदासी के आलम में कहा था-डॉक्टर पाकिस्तान मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल है।
1971 में बांग्लादेश के निर्माण के साथ द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत की निर्णायक हार हो गई। पाकिस्तान में मौजूदा मार-काट बताती है कि मुसलमानों को एक राष्ट्र बताकर आधुनिक, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष पाकिस्तान बनाने का जिन्ना का सपना दम तोड़ चुका है। लेकिन एक सबक भारत के लिए भी है। राजनीति में धर्म को मिलाना खतरनाक हो सकता है। पूजा-पाठ-नमाज मन की दुनिया को शांत करने के लिए हैं। इनके सहारे निकलने वाले सत्ताकामी जुलूस दिलों को तो तोड़ते ही हैं, देश को भी कीमत चुकानी पड़ती है। मत भूलिए, जो इतिहास से सबक नहीं लेते वे इतिहास दोहराने को अभिशप्त होते हैं।
साभार-IBN