रुपये के चिह्न पर प्रश्नचिह्न

Uncategorized

rupee ‘भारतीय रुपये के प्रतीक चिह्न का निर्माता कौन है?’- सामान्य ज्ञान की किताबों से लेकर कई प्रतियोगिताओं और परीक्षाओं में आपका भी सामना शायद इस सवाल से हो चुका होगा. यदि आपने इस प्रश्न का जवाब ‘डी उदया कुमार’ दिया होगा तो आपको पूरे अंक भी मिले होंगे. लेकिन यदि आपको यह बताया जाए कि यह चिह्न तो उदया कुमार से बहुत पहले ही किसी दूसरे व्यक्ति ने बना लिया था तो क्या तब भी आप मानेंगे कि इस प्रश्न का सही जवाब उदया कुमार ही होना चाहिए?

वैसे इस तथ्य को महज एक संयोग समझकर आप मान भी सकते हैं कि सही जवाब तो डी उदया कुमार ही होना चाहिए. लेकिन जिस शख्स ने यह चिह्न उदया कुमार से बहुत पहले बनाया था उसने इसे अपने तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि भारतीय रिजर्व बैंक और प्रधानमंत्री कार्यालय को एक सुझाव पत्र के साथ भेजा भी था. इस सुझाव पत्र में इस शख्स ने कहा था कि अब भारतीय रुपये का भी कोई प्रतीक चिह्न होना चाहिए जिसके लिए उसके द्वारा बनाए गए चिह्न पर विचार किया जा सकता है. प्रधानमंत्री कार्यालय से यह सुझाव पत्र वित्त मंत्रालय भेजा गया और इस तरह से सरकारी महकमा इस चिह्न से कई साल पहले ही परिचित हो चुका था. फिर एक प्रतियोगिता आयोजित करवाई गई और डी उदया कुमार वही चिह्न प्रस्तुत करके विजेता बन गए. लेकिन इस प्रतियोगिता के लिए उदया कुमार एक अयोग्य प्रतिभागी थे. वे डीएमके के पूर्व विधायक श्री धर्मलिंगम के पुत्र हैं और जब यह प्रतियोगिता करवाई गई थी उस दौरान डीएमके भी केंद्र सरकार का एक हिस्सा थी. वैसे उनकी अयोग्यता का कारण यह नहीं कि वे एक पूर्व विधायक के पुत्र हैं बल्कि यह है कि उन्होंने प्रतियोगिता की शर्तों का उल्लंघन किया था जिस कारण वे प्रतियोगिता हेतु अयोग्य हो चुके थे. इन तथ्यों को जानने के बाद भी क्या आप मानेंगे कि इस ऐतिहासिक महत्व के प्रश्न का ‘सही जवाब’ डी उदया कुमार ही होना चाहिए?

प्रतीक, प्रतियोगिता और प्रश्न

प्रतियोगिता के नियम और शर्तें सिर्फ अंग्रेजी में जारी हुए जो राजभाषा अधिनियम का उल्लंघन है
चयन के लिए बनी जूरी के सभी सदस्य प्रतियोगिता के दौरान एक बार भी एक साथ नहीं बैठे
प्रतिभागियों द्वारा प्रतीक चिह्न के साथ जमा की गई स्क्रिप्ट जूरी के सामने पेश ही नहीं की गई
एक प्रतिभागी दो ही चिह्न जमा कर सकता था, पर विजेता डी उदयाकुमार ने एक बयान में कई चिह्न जमा करने की बात कही. कायदे से उन्हें अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए था
प्रतीक चिह्न राष्ट्रीय सम्मान से जुड़े तो होते ही हैं, वे अरबों रुपये के व्यापार को भी प्रभावित करते हैं. इसलिए कुछ व्यापारिक कंपनियों के भी इस गड़बड़झाले में शामिल होने के आरोप लग रहे हैं
ऐसी गड़बड़ियां दूसरे प्रतीक चिह्नों के चयन में भी हुई हैं

दरअसल रुपये का प्रतीक चिह्न चुनने के लिए भारत सरकार द्वारा 2009 में एक प्रतियोगिता आयोजित करवाई गई थी. इस प्रतियोगिता का परिणाम 15 जुलाई, 2010 को घोषित हुआ और रुपये को उसकी नई पहचान मिल गई. देश के करोड़ों लोगों ने इस बात पर गर्व किया कि अब रुपया भी दुनिया की सबसे मजबूत मुद्राओं यानी डॉलर, यूरो और येन की श्रेणी में आ खड़ा हुआ है. इसके साथ ही देश के इतिहास में इस चिह्न को बनाने वाले का नाम भी हमेशा के लिए अमर हो गया. लेकिन तहलका को मिले दस्तावेजों से यह स्पष्ट होता है कि राष्ट्रीय महत्व की यह प्रतियोगिता एक औपचारिकता मात्र थी जो सिर्फ लोगों को भ्रमित करने के लिए आयोजित की गई थी. जिस तरह से इस प्रतियोगिता की प्रक्रिया संपन्न हुई, उससे यह भी संकेत मिलता है कि सरकार पहले ही यह मन बना चुकी थी कि भारतीय रुपये का प्रतीक चिह्न क्या होगा.

रुपये के प्रतीक चिह्न के बारे में अधिकतर लोग बस यही जानते हैं कि इसके निर्धारण के लिए एक राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता आयोजित की गई और इस प्रतियोगिता में सबसे बेहतरीन चिह्न प्रस्तुत करने वाले को विजेता घोषित करते हुए उसके चिह्न को रुपये का प्रतीक बना लिया गया. लेकिन ऐसा नहीं है. इस पूरे मामले में हुई गड़बड़ियों को समझने के लिए इसे उसी क्रम में देखना अनिवार्य हो जाता है जिस क्रम में इन गड़बड़ियों का खुलासा होता चला गया. फरवरी, 2009 में भारत सरकार द्वारा रुपये का चिह्न चुनने के लिए एक प्रतियोगिता के आयोजन की घोषणा की गई. कई अखबारों और वेबसाइटों पर इस संबंध में विज्ञापन जारी किये गए. विज्ञापन भले ही अंग्रेजी और हिंदी दोनों ही भाषाओं में जारी किए गए थे लेकिन प्रतियोगिता की शर्तों को सिर्फ अंग्रेजी में जारी किया गया. ऐसा करना राजभाषा अधिनियम का सीधा उल्लंघन था. प्रतियोगिता के विज्ञापन में यह भी लिखा गया था कि यह चिह्न भारत की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत को परिलक्षित करता हो, लेकिन प्रतियोगिता के नियम व शर्तों को सिर्फ अंग्रेजी में जारी करके भारत की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत को समझने वाले उन तमान लोगों को इसमें हिस्सा लेने से वंचित कर दिया गया जो अंग्रेजी में निपुण नहीं थे. वित्त मंत्रालय द्वारा जारी किए गए इस विज्ञापन में आवेदन जमा करवाने की अंतिम तिथि 15 अप्रैल, 2009 निर्धारित की गई थी. प्रत्येक आवेदन के साथ 500 रुपये के आवेदन शुल्क की मांग भी की गई थी. देश भर के हजारों नागरिकों ने रुपये का प्रतीक दर्शाती अपनी-अपनी रचनाएं मंत्रालय में जमा करवाईं. प्रतियोगिता आयोजित करने वाले वित्त मंत्रालय के पास इस बारे में कोई जानकारी नहीं है कि कुल कितने आवेदन मंत्रालय को देश भर से प्राप्त हुए. कुछ राष्ट्रीय समाचार पत्रों की मानें तो यह संख्या 25,000 के करीब है. हालांकि सूचना के अधिकार में पूछे जाने पर अधिकारी बताते हैं कि कुल आवेदनों की संख्या का कोई भी ब्योरा मंत्रालय के पास नहीं है, लेकिन मौखिक रूप से गणना करने पर 3,331 आवेदन सही पाए गए थे जिन्हें जूरी के समक्ष प्रस्तुत किया गया.

प्रतियोगिता में भाग लेने वाले हजारों प्रतिभागी परिणाम घोषित होने की प्रतीक्षा में थे. इन्ही में से एक थे लखनऊ निवासी राकेश कुमार सिंह. सरकारी सेवा में तैनात राकेश बताते हैं, ‘परिणामों के प्रति हमारा उत्सुक होना स्वाभाविक था. आखिर यह एक ऐसी प्रतियोगिता थी जिससे एक ऐतिहासिक फैसला होने वाला था और जो भी इसमें विजेता घोषित होता उसका नाम हमेशा के लिए इस ऐतिहासिक फैसले के साथ ही अमर हो जाता.’ प्रतियोगिता के अंतिम चरण में पांच प्रतिभागियों का चयन होना था जिन्हें 25-25 हजार रुपये का पुरस्कार दिया जाना था और अंतिम विजेता को ढाई लाख का इनाम दिया जाना था. इसी क्रम में आठ दिसंबर, 2009 को अंतिम पांच प्रतिभागियों के नाम वित्त मंत्रालय की वेबसाइट पर घोषित कर दिए गए. इनमें से चार मुंबई से ही थे. विभाग की वेबसाइट पर इनके नाम तो घोषित कर दिए गए थे लेकिन इनके द्वारा प्रस्तुत किए गए चिह्नों को नहीं दर्शाया गया था. प्रतियोगिता में हिस्सा लेने वाले अन्य प्रतिभागियों को अपना नाम अंतिम पांच में न पाकर हताशा तो हुई लेकिन उससे ज्यादा उन चिह्नों को देखने की जिज्ञासा हुई जिन्हें अंतिम पांच में चुना गया था. इसी जिज्ञासा के चलते लखनऊ के राकेश कुमार ने सूचना के अधिकार के जरिए वित्त मंत्रालय से इन चिह्नों की प्रतिलिपि मांगी. साथ ही उन्होंने जूरी/चयन समिति के सदस्यों के नाम एवं कुछ अन्य जानकारियां भी मांगीं. देश के कोने-कोने से अन्य लोगों ने भी मंत्रालय से इस बारे में विभिन्न सूचनाएं मांगीं. आवेदनों के जवाब में जो जानकारियां मंत्रालय द्वारा प्रदान की गईं उनसे धीरे-धीरे इस प्रतियोगिता की खामियां सामने आने लगीं.

इस महत्वपूर्ण चिह्न को चुनने के लिए सात लोगों की एक जूरी बनाई गई थी. इस समिति में भारतीय रिजर्व बैंक से लेकर संस्कृति मंत्रालय तक के प्रतिनिधियों को सम्मिलित किया गया था. लेकिन यह जूरी इस राष्ट्रीय चिह्न के चयन को कितनी गंभीरता से ले रही थी इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पूरी चयन प्रक्रिया के दौरान एक बार भी जूरी के सभी सदस्य एक साथ नहीं बैठे. संस्कृति मंत्रालय के प्रतिनिधि तो इस पूरी चयन प्रक्रिया में एक दिन भी उपस्थित नहीं हुए. प्रतियोगिता में हुई गड़बड़ियों को उजागर करने वालों में शामिल रहे मुंबई निवासी अनिल खत्री कहते हैं, ‘संस्कृति मंत्रालय के एक प्रतिनिधि को जूरी में इसलिए शामिल किया गया था ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि रुपये का चिह्न भारतीय सांस्कृतिक धरोहर को भी परिलक्षित करता हो. लेकिन पूरी चयन प्रक्रिया में एक दिन भी संस्कृति मंत्रालय से कोई भी उपस्थित नहीं हुआ. तो फिर इस बात को किसने सुनिश्चित किया कि हजारों आवेदनों में से यही चिह्न भारतीय संस्कृति का सबसे बेहतर परिचायक है?’ चयन प्रक्रिया का पहला चरण 29 और 30 सितंबर को आयोजित किया गया. इस पहले और मुख्य दौर में जब कुल आवेदनों में से सबसे बेहतरीन चिह्नों को चुना जाना था तो जूरी के सात में से तीन सदस्य उपस्थित ही नहीं थे. इनमें जूरी की अध्यक्ष और रिजर्व बैंक की डिप्टी गवर्नर श्रीमती उषा थोराट भी शामिल थीं. जूरी के जो सदस्य उपस्थित थे उन्होंने भी यह चयन प्रक्रिया टालने वाले अंदाज में पूरी की. इन दो दिन में जूरी ने सुबह 10 बजे से शाम पांच बजे तक काम किया. इस दौरान जूरी द्वारा कुल 3,331 चिह्नों का अवलोकन किया गया. विज्ञापन के अनुसार प्रत्येक चिह्न को विभिन्न आकारों में जमा करवाना था जिनमें सबसे छोटा आकार ‘4 पॉइंट फॉन्ट’ में होना अनिवार्य था. इस तरह से प्रत्येक चिह्न का अवलोकन करने के लिए काफी ध्यान दिए जाने की जरूरत थी.

[bannergarden id=”8″]

लेकिन जूरी ने जितना समय इन आवेदनों के अवलोकन में बिताया उसका यदि औसत देखा जाए तो मात्र 16 सेकंड में जूरी द्वारा प्रत्येक चिह्न का अवलोकन कर लिया गया. राकेश कुमार कहते हैं, ‘दुनिया का विद्वान से विद्वान व्यक्ति भी 16 सेकंड में किसी चिह्न का अवलोकन करके उसे समझ नहीं सकता. यह चिह्न तो देश का भविष्य होने वाला था, राष्ट्रीय सम्मान का प्रतीक बनने वाला था. इतने महत्वपूर्ण चिह्न को जूरी द्वारा चुटकी बजाते ही चुन लिया गया. क्या दुनिया का कोई भी व्यक्ति कुछ सेकंड में ही किसी चिह्न को देखकर यह तय कर सकता है कि कैसे वह भारत की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर को परिलक्षित करता है?’

प्रत्येक आवेदन के साथ ही प्रतिभागियों को चिह्न से संबंधित स्क्रिप्ट भी लिखित रूप में जमा करवानी थी. इस स्क्रिप्ट में प्रत्येक प्रतिभागी को अपने चिह्न की व्याख्या करते हुए यह बताना था कि कैसे वह चिह्न भारत में रुपए का प्रतीक हो सकता है और कैसे वह भारत की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर को परिलक्षित करता है. लेकिन चौंकाने वाली बात यह है कि पूरी चयन प्रक्रिया के दौरान प्रतिभागियों की स्क्रिप्ट को जूरी के सामने प्रस्तुत ही नहीं किया गया. बिना स्क्रिप्ट देखे ही अंतिम पांच चिह्नों का निर्धारण कर लिया गया. किसी भी प्रतीक चिह्न को समझने के लिए उसकी स्क्रिप्ट को पढ़ा जाना जरूरी होता है. उदाहरण के लिए, जिस व्यक्ति को यह पता न हो कि भारत के राष्ट्रीय ध्वज में तीनों रंग किन-किन चीजों को परिलक्षित करते हैं या बीचोबीच मौजूद चक्र क्या दर्शाता है, वह व्यक्ति सिर्फ तिरंगे को देखने भर से उसकी अहमियत नहीं समझ सकता. चिह्नों का कोई निर्धारित अर्थ नहीं होता और प्रत्येक व्यक्ति अपने विवेकानुसार ही उनका अर्थ समझता है. एक गोल आकृति का अर्थ सूर्य से लेकर और शून्य तक कुछ भी हो सकता है. ऐसे में जूरी का स्क्रिप्ट देखे बिना ही इस राष्ट्रीय चिह्न का निर्धारण कर देना कई सवाल खड़े करता है.

ये सारी जानकारियां राकेश कुमार सूचना के अधिकार से हासिल कर ही रहे थे कि इस बीच उन्हें सबसे महत्वपूर्ण जानकारी हासिल हुई. 18 दिसंबर 2009 के एक राष्ट्रीय दैनिक समाचार पत्र में एक खबर छपी जिसके अनुसार नोंदिता कोरिया ने कुछ वर्ष पूर्व रिजर्व बैंक और प्रधानमंत्री कार्यालय को यह सुझाव दिया था कि भारत में रुपये का कोई प्रतीक चिह्न होना चाहिए. राकेश कुमार को आश्चर्य इस बात का हुआ कि नोंदिता कोरिया नाम की ही एक प्रतिभागी अंतिम पांच में भी चुनी गई थी. उन्होंने पहले यह सुनिश्चित किया कि क्या अंतिम पांच में चुनी गई नोंदिता कोरिया वही हैं जिन्होंने कुछ साल पहले सरकार को सुझाव भेजा था. इस तथ्य के सुनिश्चित होने से यह पूरी प्रक्रिया और भी ज्यादा संदेह के घेरे में आ गई. सरकारी स्तर पर कहीं भी इस बात का जिक्र नहीं हुआ था कि भारत सरकार को कभी कोई सुझाव इस संबंध में प्राप्त हुआ हो. फिर जिस व्यक्ति ने सुझाव भेजा था, प्रतियोगिता में भी उसी व्यक्ति का अंतिम पांच में चुना जाना संदेह के और भी कारण पैदा करता था. राकेश कुमार एवं अन्य प्रतिभागियों द्वारा इस संबंध में सूचनाएं मांगी गईं. नोंदिता कोरिया मशहूर वास्तुकार चार्ल्स कोरिया की बेटी हैं. चार्ल्स भारत में वास्तु के क्षेत्र के एक दिग्गज माने जाते हैं और पद्मश्री एवं पद्म विभूषण से सम्मानित हो चुके हैं. चार्ल्स कोरिया द्वारा अगस्त, 2005 में रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर को एक पत्र लिखा गया था. इस पत्र में उन्होंने अपनी बेटी नोंदिता कोरिया द्वारा बनाए गए रुपये के प्रतीक को भारतीय रुपये का प्रतीक बनाए जाने के संबंध में विचार करने को लिखा था. इसके साथ ही नोंदिता कोरिया का पत्र भी रिजर्व बैंक को भेजा गया था. फिर 2006 में प्रधानमंत्री कार्यालय को भी चार्ल्स द्वारा ऐसा ही एक पत्र भेजा गया जिसके साथ नोंदिता का पत्र एवं सुझाव भी मौजूद था. प्रधानमंत्री कार्यालय ने इस पत्र को वित्त मंत्रालय को भेजते हुए कहा कि रिजर्व बैंक की राय लेते हुए इस संबंध में उचित कदम उठाए जाएं. तत्कालीन वित्त मंत्री ने भी इस सुझाव पत्र एवं रुपये के प्रस्तावित चिह्न को देखा और फिर वित्त मंत्रालय ने विज्ञापन और दृश्य प्रचार निदेशालय को इस संबंध में एक विज्ञापन जारी करने को कहा. कई बार सूचना मांगने पर भी वित्त मंत्रालय ने नोंदिता कोरिया द्वारा दिए गए सुझाव से संबंधित सूचना राकेश कुमार को नहीं दी. सूचना आयोग के आदेश के बाद जब वित्त मंत्रालय ने मजबूरन सूचना प्रदान भी की तो उसमें नोंदिता कोरिया द्वारा भेजे गए सुझाव पत्र की प्रतिलिपि तो उपलब्ध करवा दी गई लेकिन जो चिह्न उन्होंने भेजा था उसे प्रतिलिपि में से हटा दिया गया. नोंदिता द्वारा भेजा गया प्रतीक प्रदान न किए जाने के पीछे सरकार का तर्क था कि यह चिह्न उनकी ‘बौद्धिक संपदा’ होने के चलते सार्वजानिक नहीं किया जा सकता.

नोंदिता कोरिया : “अगस्त, 2005 में एक दिन मैं अपने खातों से संबंधित कुछ काम कर रही थी. उनमें मेरे अकाउंटेंट ने रुपये को कहीं ‘Rs’ लिखा था तो कहीं ‘Rs.’. इस वजह से कई बार पूर्ण विराम और दशमलव में अंतर कर पाना बहुत ही मुश्किल हो रहा था. तभी मुझे यह खयाल आया कि भारतीय रुपये का भी कोई प्रतीक चिह्न होना चाहिए. आर्थिक उदारीकरण के साथ हमारे रुपये का वैश्विक बाजार में भी व्यापार बढ़ना तय था, इसलिए मुझे लगा कि हमारे पास रुपये का एक ऐसा प्रतीक होना चाहिए जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पहचाना जा सके. तो मैंने एक प्रतीक चिह्न बनाया और अगस्त, 2005 में ही रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर को यह सुझाव भेजा. कई महीनों तक जब रिजर्व बैंक से कोई भी प्रतिक्रिया नहीं मिली तो अप्रैल, 2006 में मैंने प्रधानमंत्री कार्यालय को इस संबंध में लिखते हुए अपना बनाया हुआ प्रतीक चिह्न भेजा. मुझे लगता था कि यह एक महत्वपूर्ण विषय है और सरकार को इस क्षेत्र में आवश्यक कदम उठाने चाहिए. अंततः मार्च, 2009 में मैंने इंटरनेट पर प्रतियोगिता के बारे में पढ़ा. प्रतियोगिता के विज्ञापन में रुपये के प्रतीक की बिल्कुल वही व्याख्या की गई थी जो मैंने प्रधानमंत्री कार्यालय और रिजर्व बैंक को भेजी अपनी स्क्रिप्ट में की थी. मैंने भी इसमें हिस्सा लिया और दिसंबर, 2009 में मुझे पता चला कि हजारों प्रतिभागियों में से चुने गए अंतिम पांच में मेरा भी नाम है. मैंने दिल्ली जाकर अपने प्रतीक को जूरी के सामने प्रस्तुत किया. यह तो सरकार का विवेकाधिकार है कि वह किसी भी चिह्न को चुने लेकिन उन्हें इतना तो स्वीकार करना चाहिए था कि इस प्रतीक और इस विचार को मूलतः मैंने जन्म दिया था और सरकार को यह सुझाया था. यह कल्पना मेरी बौद्धिक संपदा है. आप यदि चुने गए अंतिम पांच प्रतीकों को देखें तो पाएंगे कि वे सभी मेरे सुझाए उस प्रतीक के ही इर्द-गिर्द थे.”

[bannergarden id=”11″]

अभी तक यह तथ्य सबके लिए एक रहस्य ही बना हुआ था कि नोंदिता ने 2005 और 2006 में जो चिह्न प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजा था वह क्या था. राकेश कुमार और उनके साथी इस पूरी प्रतियोगिता में हुई गड़बड़ियों के विरुद्ध कदम उठाने की सोच ही रहे थे कि उन्हें एक और विवादास्पद तथ्य मालूम हुआ. प्रतियोगिता की शर्तों के अनुसार एक प्रतिभागी सिर्फ दो चिह्न जमा कर सकता था. लेकिन अंतिम पांच में चुने गए प्रतिभागियों में से डी उदया कुमार ने एक समाचार पत्र को दिए बयान में यह कह दिया कि उनके द्वारा कई चिह्न जमा करवाए गए थे. कायदे से तो ऐसा करने पर वे अयोग्य हो चुके थे और उनकी प्रतिभागिता रद्द हो जानी चाहिए थी लेकिन उन्हें न सिर्फ अंतिम पांच में जगह मिली बल्कि अंततः उन्हें ही विजेता भी घोषित किया गया. अनिल खत्री बताते हैं, ‘हमें सूचना के अधिकार में यह भी जानकारी मिली कि दो से ज्यादा चिह्न जमा करवाने वाले कुछ प्रतिभागियों को प्रतियोगिता से बाहर कर दिया गया था. फिर उदया कुमार को बाहर क्यों नहीं किया गया इसका सही कारण तो सरकार ही बता सकती है.’ राकेश कुमार ने इस संबंध में वित्त मंत्रालय से सूचना मांगी कि क्या चुने गए अंतिम पांच प्रतिभागियों में से किसी ने भी दो से ज्यादा चिह्न जमा करवाए थे. जवाब में सूचना अधिकारी ने यह तथ्य पूरी तरह छिपाना चाहा और झूठी सूचना प्रदान करते हुए कहा कि अंतिम पांच में से किसी भी प्रतिभागी ने दो से ज्यादा चिह्न जमा नहीं करवाए हैं. लेकिन डी उदया कुमार खुद ही अपने बयान में कह चुके थे कि उन्होंने कई चिह्न जमा करवाए थे तो सूचना अधिकारी को मजबूरन यह कबूलना पड़ा और उन्होंने फिर से सूचना प्रदान करते हुए यह मान लिया कि उदया कुमार द्वारा चार चिह्न जमा करवाए गए थे. इसके बाद वित्त मंत्रालय का कहना था कि उदया कुमार के पहले दो चिह्नों को ही जूरी के सामने भेजा गया था और सिर्फ उन्हें सही माना गया था जो कि मंत्रालय को पहले प्राप्त हुए थे. लेकिन स्वयं वित्त मंत्रालय ने यह स्वीकार किया है कि उनके पास इसका कोई भी रिकॉर्ड नहीं है कि उन्हें कौन-सा आवेदन किस तिथि को प्राप्त हुआ. सभी आवेदनों की जांच मंत्रालय द्वारा आवेदन प्राप्त करने की अंतिम तिथि के पांच दिन बाद शुरू की गई. ऐसे में डी उदया कुमार के कौन-से चिह्न पहले प्राप्त हुए थे यह मंत्रालय ने कैसे तय किया, इसका जवाब स्वयं मंत्रालय के पास भी नहीं है.

प्रतियोगिता में हुई इतनी गलतियों की पुख्ता जानकारी जब राकेश कुमार को हो गई तो उन्होंने वित्त मंत्री, प्रधानमंत्री एवं राष्ट्रपति को 138 पन्नों का एक ज्ञापन भेजकर इस पूरी प्रक्रिया में हो रही गड़बड़ियों से अवगत करवाया और इस संबंध में उच्च स्तरीय जांच की मांग की. लेकिन कई साक्ष्य उपलब्ध कराने के बाद भी उन पर जांच करने के बजाय 15 जुलाई, 2010 को उदया कुमार को विजेता घोषित कर दिया गया. इसके बाद राकेश कुमार ने उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की जिसमें उन्होंने सरकार के इस फैसले पर रोक लगाने एवं पूरी प्रक्रिया पुनः आयोजित करवाने की प्रार्थना की. इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने क्षेत्राधिकार के आधार पर यह याचिका खारिज कर दी. अदालत ने यह भी कहा कि चूंकि याचिकाकर्ता स्वयं प्रतियोगिता का एक प्रतिभागी था इसलिए उसके द्वारा जनहित याचिका नहीं की जा सकती.

राकेश कुमार की ही तरह कुछ अन्य लोग भी विभिन्न विभागों से इस प्रतियोगिता के संबंध में जानकारी मांग रहे थे. नोंदिता कोरिया का जो सुझाव पत्र वित्त मंत्रालय से कई बार आवेदन करने पर भी राकेश को पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं हुआ था वही पत्र मुंबई के एक प्रतिभागी अनिल खत्री को रिजर्व बैंक से सूचना मांगने पर हासिल हो गया. इस पत्र के प्राप्त होने पर सभी को हैरान करने वाली जानकारी मिली. नोंदिता कोरिया द्वारा रुपये का जो प्रतीक 2005 में रिजर्व बैंक को भेजा गया था वह चिह्न बिल्कुल वही था जिसे आज हम रुपये के प्रतीक के तौर पर पहचानते हैं. इस जानकारी ने सबको चौंकाया जरूर लेकिन इससे ही सरकार की मंशा भी समझने में मदद मिली. राकेश कुमार बताते हैं, ‘नोंदिता कोरिया के पत्र में सुझाए गए चिह्न को देखकर यह स्पष्ट हुआ कि सरकार पहले ही अपना मन बना चुकी थी कि रुपए का प्रतीक किसे चुनना है. यह पूरी प्रतियोगिता सिर्फ एक दिखावा और अपने कुछ नजदीकियों को पुरस्कृत करने का माध्यम ही थी.’ जूरी के सदस्य वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक से भी थे जिन्हें इस चिह्न की पहले से ही जानकारी थी. चुने गए अंतिम पांच चिह्न देखकर भी यह साफ होता है कि ये सभी एक ही तरह की सोच के हैं. शायद यही कारण था कि इतना कम समय लगाते हुए जूरी ने हजारों आवेदनों में से उन्हीं को चुना जिसका सुझाव सालों पहले ही प्राप्त हो चुका था. सरकार के इस पूर्वाग्रह के कारण शायद कई ऐसी रचनाओं को देखा भी नहीं गया होगा जो एक बेहतर विकल्प हो सकती थीं.

डी उदया कुमार के जिस चिह्न को आज हम रुपये के प्रतीक के रूप में पहचानते हैं उसके बारे में यह भी कहा जा रहा है कि वह प्रतियोगिता के मानकों पर भी खरा नहीं उतरता था. इस चिह्न को सबसे पहले बनाने वाली नोंदिता कोरिया बताती हैं, ‘मैंने प्रतियोगिता के दौरान इस चिह्न में संशोधन और सुधार करके एक नया चिह्न प्रस्तुत किया था. पुराने चिह्न को जब छोटा किया जाता था तो उसकी ऊपर की दोनों रेखाएं आपस में मिल जाती थीं इसलिए वह प्रतियोगिता के मानकों पर खरा नहीं उतरता था.’ खत्री बताते हैं, ‘विज्ञापन के अनुसार प्रतिभागियों से अपने चिह्न को विभिन्न आकारों में प्रस्तुत करने को कहा गया था. उदया कुमार का यह चिह्न उन मानकों पर खरा नहीं उतरता था. जूरी ने भी यह खामी देखी होगी लेकिन फिर भी वही चिह्न चुन लिया गया.’ इस प्रतियोगिता के लिए प्रत्येक प्रतिभागी को 500 रुपये आवेदन शुल्क के तौर पर जमा करने थे. हजारों प्रतिभागियों द्वारा जमा किए गए आवेदन शुल्क से तो सरकार की कमाई हुई ही लेकिन पैसों का यह खेल यहीं समाप्त नहीं होता. जानकार बताते हैं कि राष्ट्रीय स्तर के ये प्रतीक चिह्न राष्ट्रीय सम्मान से जुड़े तो होते ही हैं साथ ही वे अरबों रुपये के व्यापार को भी प्रभावित करते हैं. रुपये के इस चिह्न को भारतीय मुद्रा के साथ-साथ कंप्यूटर, लैपटॉप और मोबाइल फोन के कीपैड तक में उतारा जाता है. ऐसे में बड़ी कंपनियां सबसे पहले इस चिह्न को अपने उत्पादों में उतारने के लिए करोड़ों रुपए लगा सकती हैं और सबसे पहले इसे हासिल करके हर जगह छापना चाहती हैं. आरोप लग रहे हैं कि अगर सरकार ने पहले ही तय कर लिया था कि रुपये का चिह्न क्या होना है तो मुमकिन है कि कुछ बड़े व्यापारियों की भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका रही हो.

उधर, डी उदया कुमार कहते हैं, ‘मुझे इस संबंध में कोई भी जानकारी नहीं थी कि किसी ने रुपये के प्रतीक के संबंध में पहले कभी सरकार को सुझाव दिया है. प्रतियोगिता के बारे में मुझे आईआईटी बॉम्बे के मेरे एक मित्र ने बताया था. फिर दिल्ली में अंतिम प्रेजेंटेशन के दौरान मैंने सुना कि किसी प्रतिभागी ने इस संबंध में पहले कभी सरकार को सुझाव भेजा था.’ यह बात सिर्फ राष्ट्रीय स्तर तक सीमित नहीं है. रुपये का प्रतीक चिह्न अब अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी हमारी पहचान बन चुका है या बन रहा है. इतने महत्वपूर्ण और राष्ट्रीय सम्मान के चिह्न के चयन में हुई अनियमितताओं से आप लोग भी शर्मिंदा तो हो सकते हैं लेकिन भविष्य में जब भी आपका सामना इस प्रश्न से होगा कि भारतीय रुपये के प्रतीक का निर्माता कौन है तो पूरे अंक आपको डी उदया कुमार के रूप में दिया हुआ उत्तर ही दिला सकता है.

अन्य प्रतीक चिह्न

सिर्फ रुपए का प्रतीक चिह्न ही ऐसा नहीं है जिसमें नियमों की अनदेखी की गई हो. राष्ट्रीय महत्व के अन्य कई प्रतीक चिह्नों का चयन पिछले कुछ सालों में इसी तरह से किया गया है. ऐसे ही चिह्नों के निर्धारण में हुई गड़बड़ियों के बाद राकेश कुमार सिंह द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गई थी. इस याचिका में ऐसे कुल पांच चिह्नों का जिक्र किया गया था जिनमें सरकार मनमाने तरीकों से फैसले कर चुकी है. सूचना के अधिकार का प्रतीक/लोगो भी इनमें से एक है. सूचना का अधिकार एक ऐसा अधिकार है जो सीधे तौर से जनता के ही हाथों में है. इस अधिकार के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए कई संस्थाएं कार्य कर रही हैं. स्वयं सरकार भी इस अधिकार के प्रति लोगों को जागरूक करने की बात करती है. लेकिन इस अधिकार का जो ‘लोगो’ सरकार द्वारा तय किया गया है उससे अभी तक अधिकतर लोग परिचित नहीं हैं. राकेश कुमार की जनहित याचिका की पैरवी कर रहे अधिवक्ता कमल कुमार पांडे बताते हैं, ‘सूचना के अधिकार के ‘लोगो’ का निर्धारण यदि एक राष्ट्रीय स्तर पर प्रतियोगिता आयोजित करके होता और ज्यादा से ज्यादा लोग इसमें शामिल होते तो इसके दोहरे परिणाम होते. एक तरफ तो ज्यादा लोगों की भागीदारी से ज्यादा विचार और रचनाएं सरकार तक पहुंचतीं वहीं दूसरी तरफ ऐसी प्रतियोगिता लोगों को इस अधिकार के प्रति जागरूक भी करती.’

सूचना के अधिकार का ‘लोगो’ सरकार ने बिना कोई प्रतियोगिता करवाए ही किसी व्यक्ति से बनवा लिया था. लेकिन जिन प्रतीक चिह्नों अथवा ‘लोगो’ के निर्धारण के लिए सरकार द्वारा प्रतियोगिताएं आयोजित की भी गईं वहां भी ऐसा सिर्फ औपचारिकता पूरी करने को ही किया गया. सरकार की अति महत्वाकांक्षी योजना ‘आधार’ के लोगो का चयन भी कई खामियों से भरा है. ‘समाज के अंतिम व्यक्ति को उसकी पहचान का बोध कराने’ के उद्देश्य से चलाई जा रही इस योजना के लोगो के लिए एक प्रतियोगिता करवाई गई. प्रतियोगिता का विज्ञापन सिर्फ अंग्रेजी भाषा में जारी किया गया. इस योजना के बारे में लोगों को जानकारी देने और अधिक से अधिक लोगों को इससे जोड़ने के लिए भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण में अलग से एक समिति का भी गठन किया गया है जिसने कि इस प्रतियोगिता में जूरी का भी कार्य किया. लेकिन इस विशेष समिति द्वारा भी इस प्रतियोगिता में ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल करने के लिए कोई भी कदम नहीं उठाया गया. लोगो का चयन करने हेतु जिस जूरी को चुना गया था उसमें से कई लोग चयन के दिन उपस्थित भी नहीं थे और जो सदस्य उपस्थित थे उन्होंने मात्र तीन घंटे में 2,270 आवेदनों में से सबसे बेहतरीन लोगो को छांटने का करिश्मा कर दिखाया. विजेता को एक लाख रुपये का इनाम मिला और ‘आधार’ को उसका लोगो.

ये चिह्न या लोगो सिर्फ राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों, संस्थाओं या संस्थानों के प्रतीक नहीं होते बल्कि उनको एक ऐसी विशेष पहचान भी देते हैं जिसमें हमारे समाज और सांस्कृतिक धरोहर की भी झलक मिलती है. अनिल खत्री बताते हैं, ‘ऐसी प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने वाले प्रतिभागियों को किसी इनाम का लालच नहीं बल्कि देश के प्रति अपने योगदान की लालसा होती है. यह तथ्य ही प्रतिभागियों को उत्साहित कर देता है कि उनकी रचना देश के किसी महत्वपूर्ण मुद्दे या संस्थान का प्रतीक बनेगी. लेकिन जब इन प्रतियोगिताओं में ऐसी धोखाधड़ी सामने आती है तो लोग अपने ही देश से ठगा हुआ महसूस करते हैं.’

इंडियन डिजाइन काउंसिल ने भी एक ऐसी ही प्रतियोगिता आयोजित की थी. इस संस्था पर सारे देश के डिजाइनों की जिम्मेदारी है, लेकिन डिजाइन के निर्धारण में सबसे ज्यादा गड़बड़ियां यहीं हुई हैं. जापान के ‘जी मार्क’ और जर्मनी के ‘रेड डॉट’ की ही तरह भारत में ‘आई मार्क’ के चयन हेतु यह प्रतियोगिता आयोजित हुई थी. इस प्रतियोगिता का विज्ञापन सिर्फ एक इंटरनेट ग्रुप पर जारी किया गया. यह ग्रुप सुधीर शर्मा नाम के एक व्यक्ति द्वारा बनाया गया था जो स्वयं ही इस प्रतियोगिता की जूरी में भी शामिल थे. इस ग्रुप के सीमित सदस्य हैं और सिर्फ वे सदस्य ही इस ग्रुप की गतिविधियों को देख सकते हैं. प्रतियोगिता के लिए चुने गए पांच सबसे बेहतरीन लोगो में से चार सुधीर शर्मा के संस्थान से ही थे. चयन प्रक्रिया में भी सुधीर शर्मा की अहम भूमिका थी. आखिर में जो डिजाइन चुना गया वह सुधीर शर्मा के संस्थान वालों द्वारा ही बनाया गया था. इस तरह से एक राष्ट्रीय चिह्न चुनने पर काफी लोगों द्वारा आपत्ति जताई गई जिसके चलते इस प्रतियोगिता को रद्द करके एक नए सिरे से आयोजित किया गया.

ऐसी ही एक प्रतियोगिता रेल मंत्रालय ने भी आयोजित की थी. प्रतियोगिता के विज्ञापन में कहा गया कि भारतीय रेल के लोगो की पुनर्कल्पना हेतु प्रतियोगिता आयोजित की जा रही है. इस प्रतियोगिता में विजेता के लिए पांच लाख रुपये का इनाम रखा गया. पांच मई, 2010 को जारी हुए विज्ञापन में आवेदन जमा करने की अंतिम तिथि 12 मई, 2010 तय की गई. इस तरह से पूरी प्रतियोगिता के लिए सिर्फ एक सप्ताह का समय दिया गया. इस प्रतियोगिता में जिस ‘पैम एडवर्टाइजिंग ऐंड मार्केटिंग’ कंपनी को विजेता घोषित किया गया वह पहले से भी भारतीय रेल के लिए काम कर रही थी. कुछ समय बाद रेल मंत्रालय द्वारा यह कहा गया कि नया लोगो सिर्फ राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान इस्तेमाल किया जाएगा और भारतीय रेल का लोगो वही रहेगा जो कई सालों से है. इस प्रतियोगिता की चयन समिति में सभी लोग रेल मंत्रालय से ही थे और डिजाइन के क्षेत्र से किसी भी विशेषज्ञ को चयन समिति में नियुक्त नहीं किया गया. राष्ट्रमंडल खेलों में भारतीय रेल भी एक प्रमुख प्रायोजक था. जाहिर है इस नए लोगो को खेलों के टिकट से लेकर और कई जगह छापने का काम बड़ी-बड़ी कंपनियों को दिया गया होगा. याचिकाकर्ता के अधिवक्ता बताते हैं, ‘रेलवे द्वारा करवाई इस प्रतियोगिता से उन कंपनियों के अलावा किसी को फायदा नहीं हुआ जिनको इस नए लोगो को छापने के ठेके दिए गए होंगे और जिसने इसे बनाकर इनाम जीता. ऐसी अनावश्यक प्रतियोगिता आयोजित करना खुले आम जनता के पैसों को लूटने का एक तरीका ही है.’ रेलवे द्वारा लाखों रुपये खर्च करके और लाखों का ईनाम देकर बनवाए गए इस नए लोगो को आज कहीं भी इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है.

बहरहाल राकेश कुमार द्वारा इन सभी गड़बड़ियों को न्यायालय के सामने प्रस्तुत करने से आने वाले समय में ऐसी लूट होने की आशंका कुछ हद तक कम हो गई है. बीती 30 जनवरी को दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस जनहित याचिका में फैसला देते हुए केंद्र सरकार को निर्देश दिए हैं. इन निर्देशों में तीन महीने के भीतर सरकार को अपने सभी मंत्रालयों एवं विभागों में ऐसी प्रतियोगिताएं आयोजित करवाने हेतु नियमावली तैयार करने को कहा गया है. अधिवक्ता कमल कुमार पांडेय कहते हैं, ‘उच्च न्यायालय का यह फैसला हमारे लिए एक बड़ी उपलब्धि है. अभी तो सरकार ने इन चिह्नों के जरिए लूट का नया रास्ता ढूंढ़ा ही था. न्यायालय का अगर यह आदेश न आता तो आने वाले कुछ समय में न जाने कितने और ऐसे ही मनमाने फैसले सरकार द्वारा कर लिए गए होते. इस लिहाज से राकेश कुमार देश के लिए एक बहुत बड़ा काम इस मायने में तो कर ही चुके हैं कि भ्रष्टाचार की एक पूरी सड़क पर उन्होंने नाकाबंदी कर दी है.’

तहलका के लिए राहुल कोटियाल की रिपोर्ट