ओजस्वी विचारों के धनी थे स्वामी विवेकानंद

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फर्रुखाबाद : स्वामी विवेकानंद की 150वीं जयंती पर भारतीय डिग्री कालेज में छात्र छात्राओ ने एकत्रित होकर विवेकानंद की प्रतिमा पर फूल माला चढ़ाकर उन्हें याद किया। इस दौरान कालेज के पूर्व प्राचार्य मनमोहन गोस्वामी ने कहा कि स्वामी जी ओजस्वी विचारों के धनी थे। हमें उनके बताये रास्ते पर चलना चाहिए।

प्रात: कालेज परिसर में स्थित स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा पर एकत्रित हुए छात्र छात्राओ के द्वारा स्वामी जी की प्रतिमा पर फूल मालाएं चढ़ाने के बाद उनके जीवन पर प्रकाश डाला गया। इस दौरान कालेज के पूर्व प्राचार्य डा० मनमोहन गोस्वामी ने छात्रों से कहा कि स्वामी जी ने पूरा जीवन दूसरों के साथ परोपकार व लोगों को सच्ची राह दिखाने में निकाला। उनके विचार आज भी देश वासियों के लिए प्रेरणाश्रोत हैं।

प्राचार्य डा० विश्राम सिंह ने कहा कि अपनी तेज और ओजस्वी वाणी की बदौलत दुनियाभर में भारतीय आध्यात्म का डंका बजाने वाले प्रेरणादाता और मार्गदर्शक स्वामी विवेकानंद एक आदर्श व्यक्तित्व के धनी थे। युवाओं के लिए विवेकानंद साक्षात भगवान थे। उनकी शिक्षा पर जो कुछ कदम भी चलेगा उसे सफलता जरूर मिलेगी। अपनी वाणी और तेज से उन्होंने पूरी दुनिया को चकित किया था। आज ऐसे नेताओं की बहुत कमी है जिनकी वाणी में मिठास होने के बाद भी उनमें भीड़ इकठ्ठा करने की क्षमता हो।

इस दौरान अभिषेक त्रिवेदी, संजू शाक्य, राहुल, राजन, रूबी शाक्य, रुचि, महनाज खान, गौरी कुशवाह, विकास, कोमल आदि छात्र छात्राएं मौजूद रहे।

आइए ऐसे महान व्यक्ति के जीवन पर एक नजर डालें

‘उठो जागो और अपने लक्ष्य की प्राप्ति से पूर्व मत रुको’

इन विचारों के साथ युवाओं को प्रेरित करने वाले स्‍वामी विवेकानंद, का नाम आते ही मन में श्रद्धा और स्‍फूर्ति दोनों का संचार होता है। श्रद्धा इसलिये, क्‍योंकि उन्‍होंने भारत के नैतिक एवं जीवन मूल्‍यों को विश्‍व के कोने-कोने तक पहुंचाया और स्‍फूर्ति इसलिये क्‍योंकि इन मूल्‍यों से जीवन को एक नई दिशा मिलती है। 12 जनवरी को पूरे भारत में स्‍वामी विवेकानंद का जन्‍म दिवस मनाया जाता है।

ओजस्वी वाणी

स्वामी विवेकानंद आधुनिक भारत के एक क्रांतिकारी संत हुए हैं। 12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता में जन्मे इस युवा संन्यासी के बचपन का नाम नरेंद्र नाथ था। इन्होंने अपने बचपन में ही परमात्मा को जानने की तीव्र जिज्ञासावश तलाश आरंभ कर दी। इसी क्रम में उन्होंने सन् 1881में प्रथम बार रामकृष्ण परमहंस से भेंट की और उन्हें अपना गुरु स्वीकार कर लिया तथा अध्यात्म-यात्रा पर चल पड़े।

विश्व धर्म सम्मेलन, शिकागो

स्वामी विवेकानंद 11 सितंबर, 1883 को शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में उपस्थित होकर अपने संबोधन में सबको भाइयों और बहनों कह कर संबोधित किया। इस आत्मीय संबोधन पर मुग्ध होकर सब बडी देर तक तालियां बजाते रहे। वहीं उन्होंने शून्य को ब्रह्म सिद्ध किया और भारतीय धर्म दर्शन अद्वैत वेदांत की श्रेष्ठता का डंका बजाया। उनका कहना था कि आत्मा से पृथक करके जब हम किसी व्यक्ति या वस्तु से प्रेम करते हैं, तो उसका फल शोक या दु:ख होता है।

अत:हमें सभी वस्तुओं का उपयोग उन्हें आत्मा के अंतर्गत मान कर करना चाहिए या आत्म-स्वरूप मान कर करना चाहिए ताकि हमें कष्ट या दु:ख न हो। अमेरिका में चार वर्ष रहकर वह धर्म-प्रचार करते रहे तथा 1887 में भारत लौट आए। फिर बाद में 18 नवंबर,1896 को लंदन में अपने एक व्याख्यान में कहा था, मनुष्य जितना स्वार्थी होता है, उतना ही अनैतिक भी होता है।

उनका स्पष्ट संकेत अंग्रेजों के लिए था, किंतु आज यह कथन भारतीय समाज के लिए भी कितना अधिक सत्य सिद्ध हो रहा है? स्वामी विवेकानंद ने धर्म को मात्र कर्मकांड की निर्जीव क्रियाओं से निकाल कर सामाजिक परिवर्तन की दिशा में लगाने पर बल दिया। वह सच्चे मानवतावादी संत थे। अत:उन्होंने मनुष्य और उसके उत्थान व कल्याण को सर्वोपरि माना। उन्होंने इस धरातल पर सभी मानवों और उनके विश्वासों का महत्व देते हुए धार्मिक जड़ सिद्धांतों तथा सांप्रदायिक भेदभाव को मिटाने के आग्रह किए।

युवाओं के लिए स्वामीजी का संदेश

युवाओं के लिए उनका कहना था कि पहले अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाओ, मैदान में जाकर खेलो, कसरत करो ताकि स्वस्थ-पुष्ट शरीर से धर्म-अध्यात्म ग्रंथों में बताए आदर्शो में आचरण कर सको। आज जरूरत है ताकत और आत्म विश्वास की, आप में होनी चाहिए फौलादी शक्ति और अदम्य मनोबल।

शिक्षा ही आधार है

अपने जीवनकाल में स्वामी विवेकानंद ने न केवल पूरे भारतवर्ष का भ्रमण किया, बल्कि लाखों लोगों से मिले और उनका दुख-दर्द भी बांटा। इसी क्रम में हिमालय के अलावा, वे सुदूर दक्षिणवर्ती राज्यों में भी गए, जहां उनकी मुलाकात गरीब और अशिक्षित लोगों से भी हुई। साथ ही साथ धर्म संबंधित कई विद्रूपताएं भी उनके सामने आई। इसके आधार पर ही उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि जब तक देश की रीढ़ ‘युवा’ अशिक्षित रहेंगे, तब तक आजादी मिलना और गरीबी हटाना कठिन होगा। इसलिए उन्होंने अपनी ओजपूर्ण वाणी से सोए हुए युवकों को जगाने का काम शुरू कर दिया।

गजब की वाणी
स्वामी विवेकानंद ने अपनी ओजपूर्ण वाणी से हमेशा भारतीय युवाओं को उत्साहित किया। उनके उपदेश आज भी संपूर्ण मानव जाति में शक्ति का संचार करते है। उनके अनुसार, किसी भी इंसान को असफलताओं को धूल के समान झटक कर फेंक देना चाहिए, तभी सफलता उनके करीब आती है। स्वामी जी के शब्दों में ‘हमें किसी भी परिस्थिति में अपने लक्ष्य से भटकना नहीं चाहिए’।

1902 में मात्र 39 वर्ष की अवस्था में ही स्वामी विवेकानंद महासमाधि में लीन हो गए। हां यह सच है कि इतने वर्ष बीत जाने के बावजूद आज भी उनके कहे गए शब्द सम्पू‌र्ण विश्व के लिए प्रेरणादायी है। कुछ महापुरुषों ने उनके प्रति उद्गार प्रकट किया है कि जब-जब मानवता निराश एवं हताश होगी, तब-तब स्वामी विवेकानंद के उत्साही, ओजस्वी एवं अनंत ऊर्जा से भरपूर विचार जन-जन को प्रेरणा देते रहेगे और कहते रहेंगे-’उठो जागो और अपने लक्ष्य की प्राप्ति से पूर्व मत रुको।’

सफलता के लिए स्वामी विवेकानंद का मूल-मंत्र:-

1. उठो जागो, रुको नहीं

उठो, जागो और तब तक रुको नहीं जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाये।

2. तूफान मचा दो

तमाम संसार हिल उठता। क्या करूँ धीरे-धीरे अग्रसर होना पड़ रहा है। तूफ़ान मचा दो तूफ़ान!

3. अनुभव ही शिक्षक

जब तक जीना, तब तक सीखना — अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है।

4. पवित्रता और दृढ़ता

पवित्रता, दृढ़ता तथा उद्यम- ये तीनों गुण मैं एक साथ चाहता हूँ।

5. ज्ञान और अविष्‍कार

ज्ञान स्वयं में वर्तमान है, मनुष्य केवल उसका आविष्कार करता है।

6. मस्तिष्‍क पर अधिकार

जब कोई विचार अनन्य रूप से मस्तिष्क पर अधिकार कर लेता है तब वह वास्तविक भौतिक या मानसिक अवस्था में परिवर्तित हो जाता है।

7. आध्‍यात्मिक दृष्टि

आध्यात्मिक दृष्टि से विकसित हो चुकने पर धर्मसंघ में बना रहना अवांछनीय है। उससे बाहर निकलकर स्वाधीनता की मुक्त वायु में जीवन व्यतीत करो।

8. नैतिक प्रकृति

हमारी नैतिक प्रकृति जितनी उन्नत होती है, उतना ही उच्च हमारा प्रत्यक्ष अनुभव होता है, और उतनी ही हमारी इच्छा शक्ति अधिक बलवती होती है।

9. स्‍तुति करें या निंदा

लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, तुम्हारा देहान्त आज हो या एक युग मे, तुम न्यायपथ से कभी भ्रष्ट न हो।

10. किसी के सामने सिर मत झुकाना

तुम अपनी अंत:स्थ आत्मा को छोड़ किसी और के सामने सिर मत झुकाओ। जब तक तुम यह अनुभव नहीं करते कि तुम स्वयं देवों के देव हो, तब तक तुम मुक्त नहीं हो सकते।