फर्रुखाबाद: हम यह नहीं कहते कि सलमान खुर्शीद हमारी चूक से सांसद बन गये थे। उस वक्त हमारे सामने दूसरी प्राथमिकता मुंह बाये खड़ी थी। हां, हम को इस बात का मलाल जरूर है कि उन्होंने वह नहीं किया जो, हम चाहते थे। उनको वोट देने की हमारी मजबूरी का मतलब यह तो नहीं हुआ कि उनको वह नहीं करना चाहिये था, जो हम चाहते थे। चलिये हमारी चाहत बड़ी थी, तो कम से कम वह, वह तो कर ही सकते थे, जो वह कर सकते थे। मगर वह अब हमसे पूछते हैं कि ‘हम क्या करे’।
अगर आपको याद हो तो सलमान खुर्शीद को वोट देते समय जाति और धर्म से ऊपर उठकर वोट देने वाले सामान्य आदमी (आम आदमी इस लिये नहीं कह रहा हूं, क्योंकि उस पर अब केजरीवाल की दावेदारी हो गयी है।) के सामने विकल्प काफी सीमित थे। हमारे सामने कई हानिकारक विकल्पों में से किसी एक कम हानिकारक को चुनना था। यदि अनुपयोगिता को हानि न मानें तो सलमान खुर्शीद एक हानिरहित विकल्प थे। हमने कसमसाते हुए उनको संसद तक पहुंचा दिया। परंतु हमारी इस विकल्पहीनता की मजबूरी का मतलब वह तो नहीं था, जो उन्होंन विगत तीन साल से अधिक में हमारे साथ किया।
आप कहते हैं कि हम देश के मंत्री हैं। उनसे अब देश की बात कीजिये। लेकिन मान्यवर मंत्री तो आप तब हैं जब आप सांसद हैं, और सांसद आप तब हुए जब हमने आपकों वोट दिया। यह माना कि आप सांसद न रहने पर भी जोड़ तोड़ से अपना काम चलाते रहेंगे। लेकिन इस तर्क से आपकी अपने संसदीय क्षेत्र के लोगों के प्रति जिम्मेदारी कम नहीं हो सकती। कहीं ऐसा तो नहीं कि आप हमारी विकल्पहीनता का मजाक उडा रहे हैं। यदि ऐसा है तो आप गलत कर रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलट के देखिये, अविभाजित फर्रुखाबाद का हिस्सा रहा छिबरामऊ ज्यादा दूर भी नहीं है। अब अगर आप हमसे पूछेंगे कि हम क्या करें, तो यह बात हजम नहीं होगी, हाजमोला से भी नहीं, आप तो कुनीन से निगलवा रहे हैं। अगर फर्रुखाबाद अमेठी या सुल्तानपुर नहीं हो सकता तो कम से कम शाहजहांपुर या हरदोई तो हो ही सकता है। कुछ न होता, कम से कम फर्रुखाबाद को यह तो लगता कि फलां केंद्रीय मंत्री हमारा सासंद है। अगर आप दूसरे जनोपयोगी मंत्रालयों से फर्रुखाबाद के लिये कुछ नहीं करवा सकते थे, तो कम से कम अपने मंत्रालय से तो फर्रुखाबाद के लिये कुछ अलग कर सकते थे। अब आप हमें शुचिता का पाठ न पढ़ाइयेगा। सोनिया, राहुल, जायसवाल से आज तक किसी ने शुचिता का सवाल नहीं उठाया।
वर्ष 2009 में चुनाव जीतने के बाद आपको जब कार्पोरेट अफेयर और अल्पसंख्यक मामलों का स्वतंत्र राज्यमंत्री बनाया गया, तो दो साल कब बीत गये हमें पता ही नही चला। माना कि यहां के लोगों के लिये कार्पोरेट मामले के मंत्रालय से कुछ कर पाने के लिये था ही नहीं। परंतु इस दौरान अल्पसंख्यक मामलों में भी कुछ नहीं हो सका। हद तो यह है कि इस दौरान केंद्रीय अल्पसंख्यक छात्रवृत्ति तक सभी आवेदकों नहीं मिली। आप तो सेंट्रल वक्फ काउंसिल के सदस्य हैं, इसके बावजूद किसी भी वक्फ को किसी भी केंद्रीय वक्फ काउंसिल की योजना का लाभ नहीं मिला। जबकि लाइब्रेरी से लेकर मार्केटिंग काम्पलेक्स निर्माण तक की अनेकों योजनायें हैं। अब यह बताने की जरूरत नहीं है कि इसमें राज्य सरकार रोड़ा या कडी होती है।
छोड़िये, माना कि, चौदह साल बाद आप सांसद और मंत्री बने थे। आपकी अपनी प्राथमिकतायें थीं। आपको दूसरा मंत्रालय जल संसाधन का मिला। आपने अपने चमचों की एक लंबी चौड़ी सूची पर एक कवरिंग लेटर लगा कर डीएम को भेज दिया। उसको स्थानीय अधिकारियों ने कूड़े के ढेर में डाल दिया, या थोड़े बहुत हेडपम्प लगा भी दिये हों तो कोई बड़ी बात नहीं। परंतु वास्तव में यह केंद्रीय मंत्री के स्तर का कोई काम नहीं था। अगर था तो, नगर पालिका का चेयरमैन कौन है, इस बात की चिंता किये बिना ही, जनपद के नगर निकायों और बड़ी ग्राम पंचायतों को पेयजल सुदृढ़ीकरण के लिये इतनी योजनायें मिल जाती कि आगामी 20 वर्षों तक के लिये पर्याप्त होतीं। हो सकता है कि इनकी ठेकेदारी आपके चमचों को न मिल पाती परंतु इस धन के उपयोग की मानीटरिंग आपका सम्मान जरूर बढ़ा जाती। कानून मंत्रालय या विदेश मंत्रालय के माध्यम से भले ही कोई सीधा जनोपयोगी प्रयोजन संभव न हो परंतु यह आपके केंद्रीय मंत्रालय में बढ़ते कद के सापेक्ष आपकी कोशिशों के आड़े नहीं आ सकता।
चूंकि आप अक्सर बाई-एयर या बाई रोड ही सफर करते हैं, इस लिये फर्रुखाबाद के तथाकथित आदर्श रेलवेस्टेशन की जो दुर्शदशा है, उसे देखने का आपको कभी मौका नहीं मिला। न पीने को पानी, न शौचालय न विश्रामालय, न पार्किंग की व्यवस्था। देश के पांचवे सर्वाधिक महत्वपूर्ण केंद्रीय मंत्री के संसदीय क्षेत्र के रेलवे स्टेशन की यह दुर्दशा शायद आपकी भी शान के अनुरूप नहीं होगी। परंतु बात एहसास की है। ….महसूस करोगे तो कसक बढ़ेगी’।
यह तो मात्र एक बानगी है। यह उदाहरण इस लिये दिया क्योंकि रेल सीधे केंद्र से संचालित विभाग है। परंतु जिस प्रकार केवल आपकी पत्नी की एक चिटठी पर रातों रात मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जाकिर हुसैन ट्रस्ट के विरुद्ध मामले में पुन: जांच के न केवल आदेश कर दिये, बल्कि इसकी सूचना भी फैक्स द्वारा कानून मंत्रालय के फैक्स पर भेज दी, उससे स्पष्ट है कि प्रदेश सरकार के आधीन मंत्रालय भी यदि केवल आपकी मंशा देख लेते तो शायद फर्रुखाबाद का कल्याण हो जाता। परंतु इसके लिये आपको अपनी मंशा दिखानी तो पड़ेगी ही।
आपकी बेगम जो हेंडपंप और वाटर प्यूरीफायर पितौरा के कोल्डस्टोरेज में बंद बता रहीं हैं, जिनको जाकिर हुसैन ट्रस्ट के माध्यम से लगाये जाने की बात कही जा रही है, उस खैरात का शायद फर्रुखाबाद हकदार नहीं है। उसका अधिकार तो अपने सांसद पर है, उसे अपने अधिकार चाहिये, खैरात नहीं। अगर यह धर्मार्थ है तो खैरात का ढिंडोरा नहीं पीटा जाता, जनाब। वैसे भी, जब तक जाकिर हुसैन ट्रस्ट विकलांगो का हक मारने के इल्जामों से बरी न हो जाये तब तक तो उसके नाम से कोई काम कराया जाना वैसे भी औचित्यपूर्ण नहीं है। जाने अनजाने जो कालिख आपके मुंह पर लगी या अरविंद केजरीवाल ने लगायी। उसके काफी समय बाद एक बार फिर आप घर लौटेंगे। जख्म भर जायेंगे। मगर जमीनी हकीकतें तब भी मुंह बाये खड़ी थीं, आज भी खड़ी हैं।