झूठ बोलने वालों की तादाद जिस तेजी से बढ़ रही है, उसी अनुपात में कौओं की आबादी घट रही है। लिहाजा झूठ और कौओं के बीच असंतुलन पैदा हो गया है।आने वाले समय में झूठ बोलने पर काटने के लिए काले कौए शायद बचे ही नहीं। घर की मुंडेर पर बैठा काला कौआ अब दिखाई नहीं देता है। बिगड़ रहे पर्यावरण की मार अतिथि के आने का संदेश देने वाले कौओं पर भी पड़ी है। हालत यह है कि श्राद्ध में अनुष्ठान पूरा करने के लिए कौए तलाशने से भी नहीं मिल रहे हैं। कौए के विकल्प के रूप में लोग बंदर, गाय और अन्य पक्षियों को भोजन का अंश देकर अनुष्ठान पूरा कर रहे हैं। प्रदूषण के कारण मिट रही बायोडायवर्सिटी के कारण कौओं की संख्या तेजी से घटी है। वातावरण असंतुलन के कारण ही गौरैया और बया की तरह कौए भी लुप्त होने की कगार पर आ गए हैं।
मान्यता है कि कौओं को खाना खिलाने से वह भोजन सीधे पितरों तक पहुंचता है। अब कौओं के न होने पर बंदर या अन्य पक्षी खाना खा रहे हैं। लोग पूछते हैं कि कौए नहीं मिल रहे हैं तो क्या कर सकते हैं?
हमारी खान-पान की आदतें बदली हैं। कौए गंदगी खाते हैं। कूड़ा अब पालीथिन में फेंका जाता है। मरे हुए जानवरों की हड्डियों तक में केमिकल होते हैं। खेतों में कीटनाशकों के रूप में जहर फैला हुआ है। अध्ययन से पता चला है कि ऑक्सीटोसिन के इंजेक्शन जिन पशुओं में लगाए गए, उनकी मौत के बाद मांस खाकर पक्षियों की किडनी बर्बाद हो गई। वह पक्षी विलुप्ति की कगार पर आ गए। यही कौओं के साथ भी हुआ है।