फर्रुखाबाद: कभी शिक्षा को पावन सेवा समझकर त्यागी-ज्ञानी महापुरुष गुरुकुल खोला करते थे। तब उनका उद्देश्य नयी पीढ़ी को शिक्षा और ज्ञान प्रदान करना होता था। परंतु समाज की दशा और दिशा ऐसी बदली कि शिक्षा पहले कारोबार बनी और अब तो काला कारोबार बन गयी है। लोग काली कमाई को एक बेहतर और अच्छे मुनाफे में बदलने और काले कारोबार से दामन पर लगे दाग तुरत फुरत में धोकर प्रतिष्ठित होने के लिये इस क्षेत्र में कूद पड़े।
जाहिर है कि केवल व्यापार बदलने से व्यापारी की प्रवृत्ति तो बदलनी नहीं थी। सो वही हुआ जो नजर आ रहा है। घूंस, बेइमानी, दलाली, राजनीति और यहां तक कि भ्रूण परीक्षण तक की काली कमाई से वारे न्यारे करने को गली मोहल्लों से लेकर नगर क्षेत्र की सीमा से सटे भूखंडों पर आलीशान विद्यालय रातोंरात उग आये। उफ… शिक्षा के कालेकारोबार में यह कैसे कैसे सफेदपोश। एक स्थानीय शायर सर्वतउल्लाह शिफाई का शेर याद आता है-
“महल खूबसूरत है यह तामीर-नौ का,
मगर संगे बुनियाद टेढ़ा लगे है”।
बात यह भी है कि इन आलीशान इमारतों के पीछे बैठे धूर्त कारोबारी किस प्रकार आम आदमी की गाढ़ी कमाई के बदले फर्जी डिग्रियां नौनिहालों को थमा रहे हैं। जेब में दम है तो आप अपने पुराने “जेल प्रवास” के समय की भी डिग्री ले सकते हैं। सवाल यह है कि इन डिग्रियों से सरकारी क्षेत्र में कोई सेवा का अवसर है नहीं, और प्राइवेट सेक्टर में कोई बिना योग्यता के नौकरी देगा नहीं। तो आखिर इन डिग्री धारकों का भविष्य क्या है। अब एमबीए, एमसीए की डिग्री लेने के बाद यह परचून दुकान तो करने से रहे। क्या हम “हाई प्रोफाइल अपराधियों” की एक पूरी फौज नहीं तैयार करने जा रहे हैं। मजे की बात है कि इनसे यह कोई नहीं पूछता कि आपके यहां कितने और कौन कौन से शिक्षक हैं, जो इन भारी भरकम कोर्सों को पढ़ाने की अर्हता रखते हैं। वह हैं कहां?? यकीन नहीं आता तो पूछ कर देख लीजिये। यदि किसी का नाम बताया भी तो वह किसी अन्य या इन जैसे कई अन्य विद्यालयों में पढ़ाता मिलेगा। हो सकता है उसकी डिग्री भी इन जैसे ही किसी संस्थान का तमगा हो।
मात्र दो दशक पहले जनपद के ग्रामीण क्षेत्र से आये एक महानुभाव ने थोड़े ही समय में बड़ी ईमानदारी से की गयी बेईमानी के सूत्र पर चलकर अपने आप को शिक्षा माफिया के तौर पर प्रतिष्ठित कर लिया। उनकी अगली पीढ़ी ने इसे कार्पोरेट व्यापार की तरह बढ़ाया और इसमें चार चांद जड़ दिये। इस परिवार के करीबी सूत्र बताते हैं कि कई स्कूल और महाविद्यालय तो अभी “एड” पर आने के इंतिजार में अल्मारियों में बंद हैं। एक घूसखोर प्रशासनिक अधिकारी ने भी रिश्वत की अपनी काली कमाई को ठिकाने लगाने के लिये जिलाधिकारी की ठीक नाक के नीचे ऐसा ही एक संस्थान खोल डाला। ऐसे ही एक अन्य महानुभाव ने तो अपना नाम अमर कर जाने की महती इच्छा के चलते अपने नाम से संस्था खोल डाली पर ऊपर से आपत्ति लगने पर उसमें मामूली सा फेरबदल कर फाइल का पेट भर दिया। राजनीति में काफी दिनों तक कई दलों में चप्पलें चटकाने के बाद छुटभैये नेता ने भी कन्नौज में पहले प्रयोग किया और फिर जनपद में इसे बड़े स्वरूप में क्रियान्वित कर दिया। और तो और भ्रूण परीक्षण के लिये बदनाम रहे एक परिवार को भी इस क्षेत्र में कूदने का शौक चर्राया तो उन्होंने भी अरमान पूरे कर डाले। इनका किस्सा सबसे रोचक है, जो एक महिला पत्रकार ने बताया है। हम यह किस्सा उसी की जबानी आपको बताते हैं। हो सकता आप भी कभी इस किस्से का हिस्सा रहे हों।-
कुछ वर्षो पहले शहर में एक अल्ट्रा साउंड मशीन लगी| बड़ी, बेहतर, मार्डन, रंगीन और न जाने क्या क्या अतिश्योक्ति लगाकर उसका प्रचार हुआ| अस्पताल में जिस जगह मशीन लगी वहां तक पहुचने के रास्तो में कई एंगल से क्लोज सिर्किट कैमरे लगाये गए| ताकि कोई टी वी वाला कहीं किसी गडबडझाले की फिल्म न बना ले| फिर भी एक महिला टीवी पत्रकार ने उसके अस्पताल में सामान्य मरीज बन कर दो बार भ्रूण जाकर परीक्षण करा लिया| उसके गर्भ ने दोनों बार बेटिया थी| दोनों बेटियो को उस महिला पत्रकार ने जन्म दिया| मकसद भ्रूण परीक्षण कर उसकी हत्या करना नहीं था| मकसद तो असलियत का पता लगाना था| सबूत भी इक्कट्ठे किये गए मगर खुलासा नहीं किया। क्योंकि खुलासे से ये कारनामा रुकने वाला नहीं था| मालूम था जिला स्तर के चिकित्साधिकारी बंधा बंधाया महीना लेते थे|
अल्ट्रासाउंड की सामान्य फीस तो 300-400 होती थी मगर भ्रूण दिखाने के 1100/- लगते थे| महिला के साथ केवल दूसरी महिला ही अन्दर जा सकती थी। आस पास के जनपदों की गर्भवती महिलाए मैनपुरी, हरदोई, एटा, बदायूं , शाहजहांपुर और कन्नौज तक से आती थी| अक्सर प्रतिदिन 70 से 100 तक परीक्षण हो ही जाते थे| ऐसे में कोई बगैर नंबर के जल्दी ये काम करना चाहता तो 200 रुपये और मिलाकर 1300/- रुपये चुकाने पड़ते| काउंटर पर एक विशेष किस्म की पर्ची मिलती जो डॉक्टर के पास जाकर जमा हो जाती| बाकी मरीज को देखने के अलावा कोई लिखापढ़ी की रिपोर्ट या कागज नहीं मिलता| भ्रूण परीक्षण के लिए बिस्तर पर लेटी महिला को मोनीटर पर पेट के अन्दर का भ्रूण दिखा दिया जाता| पूरे शहर में अल्ट्रासाउंड का एक भी विशेषज्ञ नहीं और गली गली अल्ट्रासाउंड करा लो| ख़ास बैंक सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार इसी प्रकार की कमाई से जमा हुई नगदी से फर्रुखाबाद की बैंको के लाकर ठूस ठूंस कर (हजार-हजार के नोरो से) भरे हैं| ख़ास राज की बात ये भी निकली कि उस मशीन में कुछ भी ख़ास नहीं था केवल मार्डन बता-बता कर और छपा-छपा कर ग्राहकों को आकर्षित किया गया|
दिन …….तारीख….. मई 2009 का दो साल पुराना ये प्रकरण आज भी ताजा सा लगता है| कितनी ही गाँव देहात से गर्भवती माँ आती थी उनके साथ उनकी सास होती थी| जिनका पारा गर्भ में बेटी होने का पता चलते ही चढ़ जाता था| उसके बाद किसी महिला चिकित्सक द्वारा या खुद गाँव में जाकर देशी दवाई कर उस बेटी का जन्म से पहले ही क़त्ल हो जाता था| यह कारोबार शहर के बीचो बीच वर्षो चला और खुल कर चला| सरकार के दो बोर्ड भी अस्पताल में लगे थे जिन्हें सुबह से शाम तक खुद के लगे होने पर शर्म आती होगी| एक पर लिखा था – यहाँ भ्रूण परीक्षण नहीं होता है| दूसरा बेटी के जन्म को बढ़ावा देने का (ठीक से वो बोर्ड कैमरे में कैद नहीं हो पाया था ऊँचे पर जो लगा था) जो याद है लिखा जा रहा है|
अब उस डॉक्टर की अगली पीड़ी बड़ी हो गयी है| भ्रूण हत्या जैसे अपराध में बढ़ावा देकर इक्कठी की गयी धनराशी को ठिकाने लगाने के लिए अब उस पैसे का इस्तेमाल उच्च व्यवसायिक शिक्षा का केंद्र खोलने के लिए किया जा रहा है, और डॉक्टर अब समाजसेवी का चोला ओढ़ चुका है।