नई दिल्ली:‘जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां’ जिंदगी के मायने बड़े ही सुरीले अंदाज में मुकेश ने अपनों गानों के जरिए पेश किए। पहले ‘शो मैन’ राजकपूर की आवाज बन शोहरत की ऊंचाईयां छूईं और वक्त के साथ अपनी गायकी में नए प्रयोग और बदलाव लाते रहे मुकेश। आज मुकेश का जन्मदिन है।
बेशक वक्त के गर्दिश में यादों के सितारे डूब जाते हैं। लेकिन यादें खत्म नहीं होती हैं। दिल के किसी कोने में चुपचाप बैठी रहती हैं। और जब करवट लेती हैं तो पूरा वजूद हिल जाता है। तब अहसास होता है कि कितना आसां है कहना भूल जाओ, कितना मुश्किल है पर भूल जाना। ‘जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां’ जिंदगी के मायने बड़े ही सुरीले अंदाज में मुकेश ने अपनों गानों के जरिए पेश किए।
साल 1959 में ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘अनाड़ी’ ने राजकपूर को पहला फिल्मफेयर अवॉर्ड दिया। लेकिन कम ही लोगों को पता है कि राज कपूर के जिगरी यार मुकेश को भी अनाड़ी फिल्म के ‘सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी’ गाने के लिए बेस्ट प्लेबैक सिंगर का फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला था। शुरुआत में राजकपूर की आवाज बने मुकेश, लेकिन आहिस्ते-आहिस्ते इस छवि से बाहर निकल मुकेश ने प्लेबैक सिंगिग का एक नया इतिहास लिखा। 40 साल लंबे करियर में अपने दौर के हर सुपरस्टार के लिए मुकेश ने गाना गाया।
22 जुलाई 1923 को लुधियाना के जोरावर चंद माथुर और चांद रानी के घर जन्म हुआ मुकेश चंद माथुर का। बड़ी बहन संगीत की शिक्षा ले रही थीं और मुकेश बड़े चाव से सुर के खेल में मग्न हो गए। मोतीलाल के घर मुकेश ने संगीत की पारंपरिक शिक्षा लेनी तो शुरू कर दी। लेकिन मुकेश की दिली ख्वाहिश थी कि वो हिंदी फिल्मों में बतौर अभिनेता एंट्री मारें। 2 साल बाद जब सपनों के शहर मुंबई का रुख किया तो उन्हें बतौर एक्टर सिंगर ब्रेक मिला 1941 में आई फिल्म निर्दोष में।
इंडस्ट्री में शुरुआती दौर मुश्किलों भरा था। लेकिन इस आवाज के जादूगर का जादू केएल सहगल साहब पर चल गया। मुकेश के गाने को सुन के एल सहगल भी दुविधा में पड़ गए थे। 40 के दशक में मुकेश का अपना प्लेबैक सिंगिग स्टाइल था। नौशाद के साथ उनकी जुगलबंदी एक के बाद एक सुपरहिट गाने दे रही थी और उस दौर में मुकेश की आवाज में सबसे ज्यादा गीत फिल्माए गए दिलीप कुमार पर। 50 का दशक मुकेश को एक नई पहचान दे गया। उन्हें शोमैन राजकपूर की आवाज कहा जाने लगा। कई इटंरव्यू में खुद राज कपूर ने अपने दोस्त मुकेश के बारे में कहा है कि मैं तो बस शरीर हूं मेरी आत्मा तो मुकेश है। राज कपूर और मुकेश की दोस्ती स्टूडियो तक ही नहीं थी। मुश्किल दौर में राजकपूर और मुकेश हमेशा एक दूसरे की मदद को तैयार रहते थे।
बतौर प्लेबैक सिंगर मुकेश इंडस्ट्री में अपना मकाम बना चुके थे। कुछ नया करने की चाह जगी तो प्रोड्यूसर बन गए और साल 1951 में फिल्म ‘मल्हार’ और 1956 में ‘अनुराग’ लेकर आए। एक्टिंग का शौक बचपन से था इसलिए ‘माशूका’ और ‘अनुराग’ में बतौर हीरो भी आए। लेकिन बॉक्स ऑफिस पर ये दोनों फिल्में फ्लॉप हो गईं। काफी पैसा डूब गया। कहते हैं कि इस दौर में मुकेश आर्थिक तंगी से जूझ रहे थे।
बतौर एक्टर प्रोड्यूसर मुकेश को सफलता नहीं मिली। गलतियों से सबक लेते हुए फिर से सुरों की महफिल में लौट आए। 50 के दशक के आखिरी सालों में मुकेश फिर प्लेबैक के शिखर पर पहुंच गए। ‘यहूदी’, ‘मधुमती’, ‘अनाड़ी’ जैसी फिल्मों ने उनकी गायकी को एक नई पहचान दी। और फिर ‘जिस देश में गंगा रहता है’ के गाने के लिए उन्हें फिल्मफेयर में नॉमिनेशन मिला।
60 के दशक की शुरुआत मुकेश ने कल्याण जी आनंद जी के डम-डम डीगा-डीगा, नौशाद का मेरा प्यार भी तू है, और एसडी बर्मन के इन नगमों से शुरू किया। और फिर राज कपूर की फिल्म ‘संगम’ में शंकर जयकिशन का कंपोज किया गाना उन्हें एक और फिल्मफेयर नॉमिनेशन दे गया।
60 के दशक में मुकेश का करियर अपने चरम पर था। और अब मुकेश ने अपनी गायकी में नए प्रयोग शुरू कर दिए थे। उस वक्त के अभिनेताओं के मुताबिक उनकी गायकी भी बदल रही थी। जैसे कि सुनील दत्त और मनोज कुमार के लिए गाए गीत।
70 के दशक का आगाज मुकेश ने ‘जीना यहां मरना यहां’ गाने से किया। उस वक्त के हर बड़े स्टार की आवाज बन गए थे मुकेश। साल 1970 में मुकेश को मनोज कुमार की फिल्म ‘पहचान’ के गीत के लिए दूसरा फिल्मफेयर मिला। और फिर 1972 में मनोज कुमार की ही फिल्म के गाने के लिए उन्हें तीसरी बार फिल्मफेयर अवॉर्ड दिया गया।
अब मुकेश ज्यादातर कल्याण जी आंनद जी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल और आरडी बर्मन जैसे दिग्गज संगीतकारों के साथ काम कर रहे थे। साल 1974 में फिल्म ‘रजनीगंधा’ के गाने के लिए मुकेश को नेशनल फिल्म अवॉर्ड दिया गया। लेकिन नेशनल अवॉर्ड का मतलब 51 बरस के हो चुके मुकेश के लिए रिटायरमेंट तो कतई नहीं था। मुकेश विनोद मेहरा और फिराज खान जैसे नए अभिनेताओं के लिए भी गा रहे थे।
70 का दशक भी मुकेश की गायकी का कायल रहा। कैसे भुलाए जा सकते हैं ‘धरम करम’ का ‘एक दिन बिक जाएगा..’ गीत। फिल्म ‘आनंद’ और ‘अमर अकबर एंथनी’ की वो बेहतरीन नगमें। साल 1976 में यश चोपड़ा की फिल्म ‘कभी कभी’ के इस टाइटल सॉन्ग के लिए मुकेश को अपने करियर का चौथा फिल्मफेयर मिला। और इस गाने ने उनके करियर में फिर से एक नई जान फूंक दी।
मुकेश ने अपने करियर का आखिरी गाना अपने दोस्त राज कपूर की फिल्म के लिए ही गाया था। लेकिन 1978 में इस फिल्म के रिलीज से दो साल पहले ही 27 अगस्त को मुकेश का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया।
हीरो बनने का सपना अधूरा रह गया। लेकिन अब पोते में एक जुनून है। अपने दादा के सपनों को साकार कर दिखाने का। 40 साल के लंबे करियर में हर दौर के स्टार की आवाज बने मुकेश। 70-80 के दशक में जब किशोर कुमार फिल्म इंडस्ट्री में हावी हो रहे थे तो भी मुकेश की चमक कम नहीं हुई थी।