जब जब देश में राजनीति और सत्ता के कदम डगमगाते है कविता उसका हाथ थाम लेती थी| ये कथन भले ही पुराना हो मगर सत्य को चरितार्थ आज भी कर रही है| कभी राजा महाराजा दरबार में कवियो को सुनते थे| कवि राजदरबार में उनकी रियाया के हालात का खाका कविता के माध्यम से खीचते थे| राजा को यतार्थ से रूबरू करना कवियों और गीतकारो का काम था|
जमाना बदला, चरित्र बदला मगर कवि नहीं बदला, हाँ श्रोता जरुर बदल गए| अब कवि राजा के दरबार में नहीं जनता के दरबार में गाते है| जिनका दर्द है उन्ही को सुनाते है| राजा को अब अपने ऊपर कटाक्ष बर्दास्त नहीं है| उसे कडुआ नीम (जो इलाज कर सकता है) पसंद नहीं है|
रामेन्द्र त्रिपाठी, छिबरामऊ कन्नौज उत्तर प्रदेश में जन्मे विगत चार दशकों से हिन्दी मंचों पर सम्प्रेशण की गुणवत्ता युक्त गीतकार के रुप में प्रतिष्ठित है। अत्यधिक लोकप्रिय कवि जिन्होंने कविता की हर विधा में श्रेष्ठ रचनायें कीं। गाँव, देश के हालात पर चिंतन करते हुए लिखे उनके गीत भूत, वर्तमान और भविष्य को खूब रेखांकित करते है| पेश है एक कवि देश के वर्तमान हालत पर दर्द-
जूते आ गए चाँदी के
आज़ादी के बाद चली जो क्या कहने उस आँधी के
जिनके नंगे पांव थे उन पर जूते आ गए चाँदी के !!
सौ मैं सत्तर को रोटी के लाले हैं,
वे कहते हैं हम ये देश सँभाले हैं !
अंधे धंधों के हज़ार घोटाले हैं ,
भारत माता के अंतर मैं छाले हैं !
शर्मसार हैं, तार तार हैं, सर्वोदय की जाति के ! !
आज़ादी के बाद चली जो क्या कहने उस आँधी के
जिनके नंगे पांव थे उन पर जूते आ गए चाँदी के !!
जात पात परिवारवाद का हम तूफ़ान चलते हैं,
जेब कतराने वाले दर्जी की दुकान चलते हैं !
दृष्टिहीनता के शिकार भी तीर कमान चलाते हैं,
घुटनों घुटनों चलने वाले हिस्दुस्थान चलाते हैं !
अब तक शर्म न आई कहते ये बेटे हैं गाँधी के !!
आज़ादी के बाद चली जो क्या कहने उस आँधी के
जिनके नंगे पांव थे उन पर जूते आ गए चाँदी के !!
रिग- रिग, रई रई, रम्पा- रम्पा गाता हुआ जवान मिला,
भेड़ की खाल में लिपटा हमको प्रगतिशील इंसान मिला !
आरक्षण की आग मिली और उलझा हुआ विधान मिला,
आज़ादी की आड़ में टुकडे- टुकडे हिन्दुस्थान मिला !
पाप में भागिदार मिले हैं अफसर आदि आदि के !!
आज़ादी के बाद चली जो क्या कहने उस आँधी के
जिनके नंगे पांव थे उन पर जूते आ गए चाँदी के !!
कांग्रेस, भाजपा, जनता दल, रामो – वामो सपा,
सबके सब हैं गुड- मुड, गुड- मुड छईम छाई छप्पा !
हर मुलजिम के घाट अलग हैं अलग अलग हैं ठप्पा !
जुटे जुआरी कर देने को पूरा देश हड़प्पा !
हर दो साल के बाद भेजते कार्ड ये अपनी शादी के||
आज़ादी के बाद चली जो क्या कहने उस आँधी के
जिनके नंगे पांव थे उन पर जूते आ गए चाँदी के !!
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