फर्रुखाबाद: एक जमाना था जब बसंत पंचमी के त्यौहार से काफी समय पहले पड़ने वाले मकरसंक्रांति के त्यौहार पर फर्रुखाबादी पतंगबाजों का नाम अपने आप जुबां पर आ जाता था। आसमान के नीलेपन को देखना मुश्किल हो जाता था क्योंकि प्रत्येक घर से पतंग आसमान में बढ़ाई जाती थी और बच्चों से लेकर बड़ों तक सभी पतंगबाजी का शौक अपने जेहन में पाले हुए थे। लेकिन आधुनिकता के दौर और समय के अभाव के चलते फर्रुखाबाद में पतंगबाजी का शौक धीरे धीरे कम हो गया। यह कहना है अपना पूरा जीवन पतंगसाज के काम में लगाने वाले रामकिशोर का। रामकिशोर अब बुजुर्ग हो गये हैं लेकिन जेहन में पुरानी पतंगबाजी की यादें आज भी मकरसंक्रांति और बसंतपंचमी पर ताजा हो जाते हैं।
वृद्व हो गये रामकिशोर सक्सेना ने 1956 में पक्के पुल पर अपना कारोबार शुरू किया। उस दौरान पतंगबाजी का अनूठा शौक लोगों में था। रामकिशोर का मानना है कि इंटरनेट व मोबाइलों के आने से लोगों में पतंगबाजी का शौक कम हो गया है। महंगाई में भी जमीन और आसमान का अंतर आया है। पतंग के कागज की अगर बात करें तो 1960 के दशक में एक आना में आने वाला पतंग का कागज आज के दौर में दो रुपये का हो गया है। वहीं 12-14 रुपये में आने वाले जर्मनी कागज के दस्ते अब 800 रुपये के हो गये हैं। अपना पूरा जीवन पतंगबाजी में लगाने वाले रामकिशोर ने फर्रुखाबाद में पतंगबाजी के शौक को दम तोड़ते हुए देख रहे हैं।
इस बार मकरसंक्रांति व बसंतपंचमी पर महंगाई की मार पूरी तरह हावी है। जिसका असर आम जनता के अलावा पतंगसाजों पर भी पड़ा है। जहां पतंग के सामिग्री आसमान छू रही है तो वहीं जनता को महंगे दामों में पतंग मुहैया हो रही है।
बाजार में गिलहरी, पटियाला, भउअनतारा आदि पतंगें खास पसंद की जा रहीं हैं। वहीं विशेष रूप से पतंग तैयार करने में उपयोग होने वाली कमानों में भी विशेष किस्म के बांस का उपयोग होता है। जिसे असम का बांस बोलते हैं। जो 25 रुपये में एक बांस उपलब्ध होता है। उस बांस को तैयार करने का कारखाना शहर क्षेत्र के टाउनहाल पर ही है। इसके अलावा आस पास के अन्य जनपदों में ही इसके कारखाने हैं। फर्रुखाबाद में गिने चुने ही पतंगसाज रह गये हैं। जो महंगाई की मार झेलकर भुखमरी के कगार पर पहुंच रहे हैं। रामकिशोर जनपद में पतंगसाजों की कमी की मुख्य बजह कारचोब को भी मानते हैं उनका कहना है कि पतंग में धागा चिपकाने वाली महिलायें व अन्य लोग कारचोब के काम में चले गये जिससे पतंगसाज का काम प्रभावित हुआ है।
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की संख्ती के बाद भी पतंगों में प्लास्टिक हावी
पतंगसाज की दुकानों पर पतंग से सम्बंधित लगभग सारे जरूरी सामान प्लास्टिक के आ गये हैं। प्लास्टिक की पतंग, प्लास्टिक की डोरी, प्लास्टिक की चरखी, कागज धीरे धीरे पतंगबाजी से कम हो रहा है। बरेली से आने वाली प्लास्टिक की चरखी व डोरी विशेष तौर पर बाजारों में उपलब्ध है। युवाओं की पसंद प्लास्टिक वाली डोरी है जो जल्दी नहीं टूटती।
टीमें बनाकर होती थी फर्रुखाबादी पतंगबाजी
कुछ वर्ष पूर्व ही शहर में पतंगबाजी का अपना एक अनूठा ही नजारा था। नामी गिरामी लोग पतंगबाजी का शौक रखते थे। जिसके लिए कई टीमें भी गठित की गयीं थीं। जिसमें बजरंग काइट क्लब को दाऊदयाल चलाते थे। इसके अलावा इण्डिया काइट क्लब ए को महबूब व बी को रामकिशोर निवासी पक्कापुल चलाते थे व पतंगबाजों में नुनहाई निवासी दाऊदयाल, कुचिया निवासी राजाबाबू सर्राफ, तलैया मोहल्ला निवासी लालाराम घी वाले आदि के नाम प्रसिद्ध थे लेकिन ज्यादातर पुराने लोगों का स्वर्गवास हो गया है। वहीं घुमना के जलील व साहबगंज क्षेत्र के हाजी अहमद का नाम शहर के जाने पहचाने पतंगबाजों में लिया जाता है।
पुराने पतंगबाज सूर्यकांत गुप्ता इन दिनों चौक पर टाइम सेंटर चला रहे हैं। पतंगबाजी की बात सामने आने पर उनका पुराना शौक जाग गया और वह पतंगबाजी की बात कहे बिना नहीं रह सके। उन्होंने बताया कि पुराने पतंगबाजी में हम लोगों द्वारा हजारों रुपये की पतंगें उड़ायीं जातीं थीं। पचासों हजार रुपये की आतिशबाजी छुड़ाकर हम लोग पतंगबाजी करते थे। लेकिन अब वह बात नहीं रह गयी। महंगाई ने आम आदमी की कमर तोड़कर रख दी है। जिससे आदमी अब चाहकर भी शौक को पूरा नहीं कर पा रहा है।
पतंगबाज भरत कुमार ने बताया कि बसंतपंचमी व मकरसंक्रांति के आते ही जेहन में पुराने दिन याद आ जाते हैं। लेकिन शहर में दिनों दिन लोगों के अंदर से पतंगबाजी का शौक कम होता चला जा रहा है। उन्होंने भी इसकी मुख्य बजह पतंगबाजी के सामान पर महंगाई को ही माना है।