हाले सरकारी चिकित्सा: रिफर लिखा और अस्पताल के बाहर मरने को छोड़ दिया

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फर्रुखाबाद: इतिहास गवाह है कि कभी इस जिले में एक डीएम के कुत्ते के खांसी जुकाम के लिए स्वास्थ्य महकमे के आला अधिकारी से लेकर डॉक्टर तक एक पैर पर खड़े होकर डीएम बंगले पर हाजिरी बजाते थे| एक बार कुत्ते के रूटीन चेकअप में देर क्या हुई थी डीएम ने अपने कुत्ते से ही डॉक्टर को कटवाया था| मगर एक गरीब इंसान के लिए निष्ठुर हो चुके सरकारी चिकित्सको और स्वस्थ्य महकमे में इलाज के लिए न वक़्त है और न दिल| खाली हाथ दूसरी दुनिया में जाने की सच्चाई जानने के बाबजूद आदमी की जिन्दगी बचाने का वेतन पाने वाले डाक्टरों को जब तक उपरी कमाई के चंद टुकड़े नहीं मिल जाते, हिलना तक नहीं चाहते| लोहिया अस्पताल के गेट पर तड़प रहा मसरूर अखिलेश सरकार से जबाब चाहता है? क्यों करोड़ों रुपये की लागत से बने इस औषधालय में मरीज बगैर इलाज व पैसे के तड़पते रहते हैं। एक तरफ सूबे के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव यूपी में एम्स लाने की तैयारी कर रहे हैं| मगर उनके पिता के सपने का अस्पताल राममनोहर लोहिया चिकित्सालय सुविधाओं को लेकर विकलांग क्यों है? इलाज के अभाव में बीमार से मुक्ति पाने को लोहिया अस्पताल के शुभचिंतको ने मसरूर को कानपुर के लिए रिफर तो कर दिया है मगर जिसकी जेब में फूटी कौड़ी तक न हो वो कानपुर तक पहुचेगा इस बात का जबाब है किसी के पास नहीं|

मशरूर को बीते 17 मई की रात उसके ही पड़ोसी ने घर में घुसकर गोली मार दी थी। जिसके बाद परिजनों ने मशरूर को साहबगंज चौराहे स्थित एक प्राइवेट नर्सिंगहोम में इलाज कराया। हालत बिगड़ी तो लोहिया अस्पताल लेकर आ गये। जहां डाक्टरों ने उसे देखा तो मगर चिकित्सीय सुविधाओं का अभाव दिखाकर उसे कानपुर हैलट के लिए रिफर कर दिया गया।

डाक्टर के लिए मरीज रिफर करना एक आम बात होगी मगर मशरूर के परिवार के सामने मानो बहुत बड़ा संकट आ पड़ा। पैसे के अभाव में मशरूर का भाई दिलशाद उदास चेहरा लिये इधर उधर मिन्नतें करता फिर रहा था। मानो मशरूर और दिलशाद एक जिस्म दो जान हों। कई एम्बुलेंसों के मालिकों से हाथ जोड़े कि मेरे भाई को कानपुर पहुंचा दो तो शायद उसकी जान बच जाये। लेकिन किसी के बाप का क्या जाता? बगैर पैसे के कौन मशरूर को कानपुर ले जाये।

अनपढ़ मशरूर के भाई दिलशाद को यह भी नहीं पता कि लोहिया अस्पताल में मरीज को कानपुर ले जाने के लिए एक सरकारी एम्बुलेंस भी है। जिसका डीजल डाक्टरों के घरों की रोशनी दे रहा है। लेकिन किसी के घर की रोशनी खतरे में है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। घंटों से तड़प रहे मशरूर अब अल्लाह से मौत की दरकार कर रहा था। उसने परिवार से कह दिया कि अब हमें घर ही चलना है। कई बार तो उसे अपने हाथों में लगी बिग्गो तक नोच डाली। क्योंकि शायद वह समझ चुका था कि अब बगैर पैसे के कुछ भी नहीं हो सकता।

हो तो सब सकता है महीने में चार बार एडी साहब का हजारों रुपये सरकारी खर्च कर लोहिया अस्पताल का दौरा, जनरेटर बंद होने के बाद पैसे का भुगतान, खाना न बनने के बाद भी रजिस्टर पूरी तरह से दुरुस्त, नर्सों द्वारा मरीजों से अवैध वसूली, डाक्टरों द्वारा बाहरी मेडिकल स्टोरों से दवाई लिख हजारों का कमीशन, लोहिया से मरीज रिफर कर प्राइवेट हास्पिटल में भर्ती कराकर मोटा कमीशन, फिर आखिर मशरूर को कानपुर अस्पताल पहुंचाने की व्यवस्था क्यों नहीं।

आये दिन ऐसे ही न जाने कितने मशरूर स्वास्थ्य विभाग की अनदेखी के चलते अपने परिवार को तड़पता छोड़कर ऊपर वाले की गोद में चले जाते हैं और वही चिकित्सक पोस्टमार्टम कर उनके शवों को मुस्कराकर सील कर देते हैं। परिजन आंखों में टपकते आंसुओं के साथ चले जाते हैं। आखिर कब तक यह सिलसिला जारी रहेगा……..