10 रुपये दिहाड़ी पर झुलस रहा मासूमों का बचपन

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फर्रुखाबादः केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार सब बच्चों को लेकर बड़ी-बड़ी डींगें मारते हैं व उनके हितों के लिए तमाम योजनायें चलायी जाती हैं। लेकिन इसके बावजूद भी जगह-जगह मासूम बच्चों को बाल श्रम बोर्ड व शिक्षा का अधिकार अधिनियम की धज्जियां उड़ाते देखे जा सकते हैं। यह कोई नई बात नहीं कि प्रशासन द्वारा कई बार बच्चों को होटलों व कारखानों में काम करते पकड़ा गया। लेकिन बाद में सब लीपापोती हो जाती है और बच्चे फिर उसी जूठन को धोने को मजबूर हो जाते हैं। जिसमें कानून के रखवाले खाकर चले गये। अधिकारी व बाल श्रम बोर्ड को इस बात की भनक तक नहीं लगती। कैसा मजाक इन मासूम बच्चों के साथ हो रहा है यह आपको चित्रों में देखकर समझ में आ जायेगा।

1 अप्रैल को सर्व शिक्षा के अन्तर्गत बनाये गये शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2010 के पूरे 2 साल हो चुके हैं लेकिन सफलता कहां तक मिली यह तो कागज ही बताते हैं। हकीकत तो कुछ और ही है। अगर आप सुबह टहलने के लिए निकलें तो बच्चों के शिक्षा के लिए बनाये गये कानून की धज्जियां उड़ते होटलों और चाय की दुकानों पर बखूबी देख सकते हैं। इन बच्चों को यह तक नहीं पता कि स्कूल किस चिड़िया का नाम है। यह तो बस प्लेटें, कप और गिलास ही जानते हैं। यहां तक कि आपको सैकड़ों मासूम कूड़ा करकट में कबाड़ा बीनते मिल जायेंगे।

बच्चों से बात करने में मेरे ही क्या हर उस सख्स की आंखें नम हो जायेंगीं जो उनके अंदर छिपे दर्द को महसूस करने की कोशिश करेगा। गंगादरबाजा निवासी आजाद पुत्र सरताज अहमद उम्र महज 10 वर्ष काम लकड़ी का रंधा चलाना। आजाद ने बताया कि वह कुछ दिनों से लिंजीगंज के पास एक दुकान पर लकड़ी का काम करता है। मालिक जो कह देते हैं बस मैं उसी को रंधे से साफ करता रहता हंू। स्कूल कभी गया ही नहीं। काम क्यों करते हो यह बताते-बताते आजाद की आंखों में आंसू आ गये। बोला मेरे बाप कई वर्षों पहले मुझे छोड़कर दिल्ली चले गये। घर में मां और बहन है। बहन जल गयी। जिसके इलाज के लिए मैं पैसे कमाने के लिए आया हूं। हौसला देखिये मात्र 10 रुपये प्रति दिन मिलते हैं जिसमें शायद दो समय की चाय भी नहीं मिलेगी।

वहीं कबाड़ा बीन रहे मासूम विशाल बाल्मीकि निवासी मोहल्ला भाऊटोला जिसका पूरा दिन कूड़े कचरे के ढेर में सड़ी गली प्लास्टिक बीनने में ही गुजर जाता है। पिता ने आर्थिक तंगी की बजह से फांसी लगा ली। कबाड़ा वाला शाम तक बीस रुपये दे देता है।

सबसे दर्दनाक कहानी तो होटल के एक कोने में चुपचाप उदास बैठे 10 वर्षीय आकाश की है। जो लक्ष्मी टाकीज के पीछे रहता है। पिता को गुजरे हुए तीन सालें हो गयीं तो उसके चाचा जोकि रेलवे स्टेशन पर होटल चलाते हैं को एक मजदूर मिल गया। प्रति दिन होटल पर बर्तन साफ करना उसके जीवन का हिस्सा बन गया है। आकाश ने बताया कि उसे यहां पैसे नहीं मिलते वल्कि थोड़ा बहुत खाने को मिल जाता है। आकाश ने कहा कि वह कभी स्कूल पढ़ने नहीं गया। जबसे पिता की मृत्यु हुई है तब से हम होटल पर ही काम करते हैं और चाचा पैसा तक नहीं देते।

ऐसे न जाने शहर में कितने आकाश, आजाद, रोहित व विशाल हैं जो मजबूरी के चलते किसी दुकान पर या तो बर्तन धोते या मालिक की मार खाते देखा जा सकता है। शिक्षा के अधिकार अधिनियम को ताक पर रखकर अधिकारियों का ध्यान इन मासूमों पर नहीं जाता जो किसी रेस्टोरेंट में उन्हीं से साहब चाय कहते हैं। श्रम विभाग के पास इनके विकास को लेकर शायद कोई अनूठी योजना नहीं है। तभी तो कई बार मजदूरी छुड़ाने के बावजूद इन मजदूरों को दर-दर भटकने के लिए छोड़ दिया जाता है।