पर्दा- बेपर्दा: चुनाव में मीटिंग माफियाओं का खेल और बस्ते का पोस्टमार्टम

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फर्रुखाबाद: चुनाव में एक नारा जोरदारी से लगता है- जात पे न पात पे, बटन दबेगी…. यह नारा इस चुनाव में भी लगा। लेकिन कांग्रेस की ही बात करें तो एक मिसाल सामने आती है कि खटकपुरा में 100 मीटर के दायरे में कांग्रेस की चार-चार सभाएं हुईं। इनके आयोजक लगभग एक ही थे। बात यह उठती है कि कुछ खास इलाकों के लोग कांग्रेस की चुनावी सभाएं करने को क्यों उताबले रहते थे। इसके खास कारण थे। और जहाँ तक जात पे न पात पे … का सवाल है इस चुनाव में खतराना, नितगंजा, मदरवारी, तलैया, भाऊटोला, सेनापति, बजारिया में एक भी जन सभा नहीं हुई। भाजपा के बारे में एक प्रमुख एक्सपोर्टर महेमूद हसन की टिपण्णी रेखांकित कर सकते हैं वो कहते हैं कि ब्रह्मदत्त तो ईद पर सिंवायियाँ खाने तक आते थे पर मेजर साहब को तो यह भी नहीं मालूम कि मनिहारी है किधर।

नेता को माला भी खुद की खरीदी हुई पहननी पड़ती है-

तो यह है इस गंगा जमुनी तहजीव वाले नगर का कलियुगी चेहरा। चुनाव में कांग्रेस और बसपा की चुनावी सभाएं खास साज- सज्जा के साथ होती रहीं। इनमे न तो वोल्टेज की कमी से टिमटिमाता बल्व दिखा और न चबूतरे के सहारे खड़े लोग। सभी सभाओं में जनरेटर लगता था। खूब रौशनी देने वाले लैम्प और शामियाना भंडार की लाल- लाल चमकदार कुर्सियां। यहाँ तक कि किसी मोहल्ले का कोई बाशिंदा बच्चों की कसम खाकर यह नहीं कह सकता कि वह कोतवाली के पीछे या चौक से नेता जी को पहनाने के लिए माला खरीदकर लाया। जिन मालाओं को पहनकर नेता जी कैमरे के सामने आते रहे वे भी तो उनके ही पैसे से खरीदकर लायी जाती थीं। एक दिन एक सभा में जिला कांग्रेस के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने सभाओं का बजट 10 हजार  तक बताया। इसी कारण कुछ नेता तो मीटिंग माफिया बन गए थे। उन्हें तो सभाओं में खासी रकम जेब में आती दिख रही थी। खटकपुरा की मीटिंग में कानून मंत्री साहब के जिस भाषण की गूँज राष्ट्रपति भवन तक पहुंची उस 100 मीटर के इलाके में मीटिंग माफियाओं ने चार सभाएं करा दीं। वही नेता और वही सुनने वाले और वही नारे लगाने वाले। चुनाव आयोग के अधिकारी कहाँ से पकड़ पाते इन सभाओं पर हो रहा खर्चा और कैसे रख पाते हिसाब कि 10 नारों को लगवाने का मेहनताना कितना हुआ। आखिर आयोग ने नारे लगवाने के मार्केट रेट तो लिए नहीं थे। मीटिंग माफियाओं ने आयोग की इसी कमजोरी का दिल खोल कर मजा लिया। कांग्रेस की तरह बसपा ने भी सभाओं के नाम पर मीटिंग माफियाओं की हर बात सुनी। बिना जनरेटर के तो कोई मीटिंग हुई ही नहीं। मीटिंग माफिया ग्रुप में कई लोग होने पर उन्हें माल बनता भी जाता था। गंगा- जमुनी शहर के नाम पर बट्टा लगाने वाले नहीं माने।

खतराना, नितगंजा, मदरवारी, तलैया, भाऊटोला, सेनापति, बजारिया आदि मोहल्लों में मीटिंग माफिया नहीं पनप पाए। भाजपा ने मुस्लिम मोहल्लों की ओर मुह नहीं किया। भाजपा की रणनीति मुस्लिम मतदाताओं को हटा कर बनी। जब कई उम्मीदवार मुस्लिम कार्ड खेल रहे थे तब भाजपा को इसकी प्रतिक्रिया भुनाने में ही लाभ दिखा। खैर इस चुनाव में मीटिंग माफियाओं की उड़ कर लगी।उनकी इस चाल से नेता भी खुश रहे और इन धंधेबाजों की जेब भी भरती रही।

बस्ते का पोस्टमार्टम-

  बस्ते का पोस्टमार्टम करें तो उसमे होती है वोटर लिस्ट, दो- चार पेन, कुछ कागज़ और बैलट पेपर के नमूने। पर्चियों और झंडे- बैनर का तो अब खेल ही ख़त्म हो गया है, जिनसे कभी झोले बन जाते थे। फिर बस्तों के पीछे क्यों सिर फुटौव्वल होती है। किसी इलाके में बस्ता किसी दूसरे के पास पहुँच गया तो नेता जी नाराज होकर कहते हैं अब उन्ही से डलवा लो वोट। चुनाव आयोग तो कहता है कि बस्ते न लगाओ। पुलिस डंडे भी चलती है। कभी बस्तों की भीड़ से चुनावी हवा नापी जाती थी अब तो वह भी नहीं। फिर क्यों चुनाव मैनेजर चाहते हैं कि हर इलाके में बस्ता जरूर पहुँच जाए। और लोग बस्ता लेने को लालायित क्यों रहते हैं। दर असल बस्ते में रखी गयी रकम बस्तों की लालच बढ़ा देती है। बस्ता माफिया खाना, पानी और चाय-नाश्ता के नाम पर ऊपर से रुपये ऐंठ देते हैं। चुनाव आयोग के पास इसके भी मार्केट रेट नहीं हैं कि हर बस्ते में कितने गाँधी जी वाले कागज रखे जायेंगे। इस बार चुनाव महंगा था इसलिए बस्ते के रेट भी बड़े थे। चालाक लोग बताते हैं कि इस बार बस्ता फीस तीन हजार से पांच सौ रुपये तक थी। कई ऐसे भी इलाके हैं जहाँ एक ही परिवार के लोग राजनीती में सक्रीय रहते हैं। सो एक भाई एक दल का जिम्मेदार बन जाता है और दूसरा दूसरे दल का। चुनाव मैनेजरों के सामने सभी बूथों पर बस्ते पहुँचाने की चुनौती होती है सो वे भी शत- प्रतिशत बस्ते बांटकर उम्मीदवार की नज़र में महान बन जाते हैं। इस बार तो बस्ता माफियाओं ने बस्ता फीस के नाम पर खूब मजे उडाये। सदर सीट पर तो 7 सक्रिय उम्मीदवार थे। इसलिए इन माफियाओं की तो उड़ कर आई। सपा के एक पदाधिकारी से बात हुई तो उन्होंने तो यही कहा कि वे पूरी ताकत लगाने के बात वार्ड कमेटियां नहीं बना पाए। फिर हर बूथ पर 7 उम्मीदवारों के बस्ते कौन भूत ले गए। जब लाल और हरे नोट सामने हों तो हर कोई बन जाता है जिम्मेदार।