फर्रुखाबाद: चुनाव आयोग ने बूथों के बाहर लगने वाले बस्तों से पर्ची लेकर वोट डालने का चक्कर ही ख़त्म कर दिया। पर उम्मीदवारों को बूथ माफियाओं को समझने के लिए इस बार भी बसते बाँटने पड़े। दरअसल बस्तों के मतलब पर्ची- पर्चे तक न होकर नोटों की गड्डी से होता है। चुनाव के रणनीतिकार मानते हैं कि चुनाव खर्चे का 50 फीसदी खर्चा तो उस क़त्ल की रात होता है जिसकी सुबह वोट पड़ने वाले होते हैं। इस रात बस्तों के नाम पर रुपये तो बांटते ही हैं साथ में मूड बनाने के लिए शराब बाँटने का चलन होली की गुझिया और ईद की सिंवई की तरह हो गया है।
चुनाव आयोग ने बसते लगाने का सिस्टम पहले से ही ख़त्म कर रखा है, पर नोटों की गड्डी थामने वाले बूथ माफिया फिर भी बूथ से बहुत दूर ‘बिछौने की दरी’ बिछाकर उम्मीदवार को अपनी मौजूदगी की तस्दीक कराते हैं। जाहिर है की आयोग के नियम- कानून न मानना उसकी आचार संहिता तोड़ना है, और इस आचार संहिता तोड़ने में गाँधी- नेहरु को मानने वाले जितने दोषी हैं उतने ही दीन दयाल उपाध्याय, लोहिया और बाबा साहेब को मानने वाले भी।
बसपा की तर्ज़ पर इस बार चुनाव की तैयारियां सपा, भाजपा और कांग्रेस ने बहुत पहले शुरू कर दी थीं। सभी रणनीतिकारो को सनक थी बूथ मैनेजमेंट की। बूथ कमेटियों को लेकर सभी दलों के अजेंडे एक थे। बूथ कमेटियों को लेकर काफी रजिस्टर-फाईलें रंगी भी गयीं। लेकिन उनका हश्र क्या हुआ वह एक-दो उदाहरण से साफ़ हो जायेगा। बात यह है कि वार्ड और बूथ कमेटी का पदाधिकारी बनना बहुत निम्न कोटि का काम माना जाता है। बिलकुल नए चिंटू टाइप युवक को वार्ड अध्यक्ष बनने के लिए तैयार किया जाता है। वह ‘बच्चा’ भी वार्ड अध्यक्ष बनने की ख़ुशी में फूल कर कुप्पा हो जाता है। सपा में वार्ड अध्यक्ष बनाने का कर्मकांड विश्वास गुप्ता और चाँद खां ने दसियों साल से चला रखा है। पर वे खुद जानते हैं कि वार्ड अध्यक्ष बनने वाला अपने घर मीटिंग करने के बाद कभी किसी दूसरे प्रोग्राम में तशरीफ नहीं लाया। फिर भी चलता है।
वार्ड के बाद बूथ प्रभारी का नम्बर आता है। बूथ प्रभारी वार्ड अध्यक्ष से भी लचर होता है। मसलन नखास के बूथों पर जहाँ मुजफ्फर रहेमानी बूथों की सरपरस्ती में डटे हों वहां उनके कारखाने में नफरी पर काम करने वाला कारीगर क्या खाकर रहेमानी साहेब का मुकाबला करेगा।
उसपर वार्ड या बूथ प्रभारी का लेबिल भले ही रेडियम कलर से लिखा चमक रहा हो। खटकपुरा में जहाँ हाजी अहमद अंसारी बूथों के बाहर नजरें गडाये होते हैं वहां दूसरी पार्टी का परचून दुकानदार वार्ड प्रभारी होने के नाते अपना झंडा तो उठाएगा पर कितना ‘इफ- बट’ कर पता है, यह सभी जानते हैं। यह सब इस चुनाव में भी हुआ। मतलब साफ़ है, जिस तरह की वार्ड कमेटियां बनती हैं उनमे कोई गडकरी साहेब को धोखा देता है तो कोई सोनिया गाँधी या मुलायम सिंह और मायावती को। 19 फरवरी को तो कहीं बूथ कमेटियां नज़र नहीं आयीं। फिर जब मतदाता पर्ची बीएलओ बाँट रहे थे तब बूथ प्रभारी और बसते की अहेमियत ही क्या थी।
दरअसल बस्ते का खेल ही अलग है, बस्ता माफिया तो इसी दिन का इंतजार करते हैं। बस्ते में दक्षिणा न मिली तो मुह लटक जायेगा। भला उम्मीदवार महाभारत में उतरने से पहले अपने योद्धाओं का दिल क्यों दुखाये। चुनाव आयोग लाख मना करे पर बस्ते बाँटना तो उम्मीदवार की मजबूरी है। जानकर बताते हैं कि इस बार सबसे वज्नीला बस्ता कांग्रेस का था, और सबसे हल्का सपा का। बस्ते को सँभालने के लिए प्रति बस्ता तीन हजार से पांच सौ रुपये तक बांटे गए। साथ में दारू कि डिमांड भी उसी वक्त पूरी कर दी गयी। एक नेता जी चुनाव के दौरान ही हाथी से उतारकर राहुल गाँधी
जिन्दावाद करने के लिये आगे आये। उनके जिम्मे अंगूरी बाग़ एक स्कूल में बने बूथों का बस्ता लगाने का ठेका था। मतलब वह तीन- तीन हजार रुपये पिए हुए थे। उन साहेब ने एक साथ कई बस्तों का ठेका ले रखा था। चूँकि दूसरी पार्टी से आये थे इसलिए उनकी हर जायज- नाजायज बात मानी गयी थी। इसी पार्टी के दूसरे पुराने नेता जब 11 बजे यहाँ पहुंचे तो बस्ता नदारद था। नेता जी फोन कर मैडम के कान फूके।मैडम ने फोन लगा कर नेता जी से बूथ की लोकेशन पूछी तो नेता जी के पसीना छूटने लगा। बोले नहीं बस्ता लगा है। जब पोल खुल गयी तो नेता जी दौड़े- दौड़े अंगूरी बाग़ आये और साथ में एक अदद आदमी लाये जिसने झट फटता फैलाया और बस्ता लगाने का ड्रामा पूरा किया । यह उदाहरण तो एक बानगी है । हर पार्टी में ऐसे बस्ता माफिया हैं जो बस्ता न मिले तो रार फैला देते हैं।
अब मुस्लिम मोहल्लों के होटलों पर बैठकर येही चर्चाएँ हो रही हैं कि किसके बस्ते में कितना माल था और किसने मैडम या उमर साहेब को कितना चूना लगाया।