कानपुर: बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में विजयदशमी पर रावण का पुतला दहन की परंपरा करीब करीब पूरे भारत वर्ष में निभाई जाती है लेकिन कानपुर और आसपास के कुछ क्षेत्रों में दशहरा पर रावण नहीं जलाया जाता है। इन जगहों पर दशहरे के दिन रावण का पुतला दहन न करने की परंपरा है। इसके पीछे भी वहां के लोगों का अपना तर्क है, जो कि पुराणों के अनुसार संगत भी है। आइए इस रिपोर्ट से जानते हैं किन स्थानों पर दशहरे पर रावण दहन क्यों नहीं होता है…।
रावण के पुतले पर लंका टीले पर फेंकने की थी परंपरा
कानपुर देहात में डेरापुर की रामलीला और जगहों से कुछ हटकर है। यहां दशहरा पर रावण का पुतला दहन होता है और प्राचीन रामलीला में रावण के पुतले को खींच कर लंका टीला पर फेंकने की प्रथा थी। हालांकि पुतला फेंकने की प्रथा अब नहीं रही है। रामलीला कमेटी के पूर्व अध्यक्ष वयोवृद्ध दयाशंकर शुक्ल ने बताया कि काफी समय पहले रावण वध लीला के बाद पुतले को गाड़ा (लकड़ी के छोटे चार पहियों की गाड़ी) पर रखकर खींचते हुए ले जाने के बाद लंका टीला पर फेंका जाता था|
इसके बाद यह प्रथा समाप्त हो गई। अब दशहरा के दिन रावण का पुतला नहीं जलाया जाता है बल्कि एकादशी के दिन पुतला दहन होता है। शास्त्रों के अनुसार श्रीराम ने मित्र विभीषण के बताने पर आततायी रावण के नाभि में दशमी को तीर मारा था लेकिन रावण ने एकादशी के दिन प्राण त्यागे थे। इसलिए एकादशी के दिन पुतला दहन होता है।
कहिंजरी में भी नहीं जलता रावण
कानपुर देहात के कहिंजरी में भी रामलीला का अपना अलग मिजाज है। यहां रावण वध लीला का मंचन तो होता है लेकिन पुतला दहन नहीं किया जाता। यहां दशहरा के दिन राम व रावण की रथ यात्री निकलती है और राम-रावण सेना का युद्ध भी होता है लेकिन रावण मरण की लीला का मंचन त्रयोदशी तिथि को होता है। 80 वर्षीय रामकुमार दीक्षित कहते हैं, यहां कभी भी रावण के पुतले का दहन नहीं किया गया।
बुजुर्ग बताते थे कि यहां की लीला तीन सौ साल पुरानी है। वयोवृद्ध रावण का अभिनय करने वाले रामकृष्ण तिवारी कहते हैं, चित्रकूट से आए कुछ विद्वानों के कहने पर रावण मरण की लीला त्रयोदशी के दिन हो रही। बुजुर्ग भगवती मिश्रा कहते हैं कि रावण की विद्वता के कारण उसके पुतले का दहन नहीं किया जाता है। पूर्णमासी तिथि को राम के राज्याभिषेक का मंचन किया जाता है।
कन्नौज में पूर्णिमा पर होता रावण दहन
इत्र की नगरी कन्नौज में भी अनूठी धार्मिक परंपरा है। दशहरा वाले दिन रावण दहन नहीं होता है। ग्वाल मैदान पर रामलीला की शुरुआत 1880 में हुई थी। इसमें विशंभर तिवारी रावण का पाठ करते थे। बुजुर्ग बताते हैं कि उनकी आवाज और ठहाके इतने तेज होते थे कि बिना माइक के काफी दूर तक सुनाई देते थे। यहां पर दशहरे के लिए पुतला दहन न होकर शरद पूर्णिमा पर रावण का पुतला जलाया जाता है। व्यवस्थापक शिवकिशोर मिश्रा बताते हैं कि रावण ने शरद पूर्णिमा के दिन ही प्राण त्यागे थे, इस बीच उन्होंने लक्ष्मणजी को ज्ञान दिया था। इसी वजह से पूर्णिमा पर रावण का पुतला जलाया जाता है।
उन्नाव में भी है अनूठी परंपरा
उन्नाव में विजयदशमी पर रावण पुतला दहन नहीं होता है। यहां दशहरा मेला की बुनियाद श्रीरामलीला कमेटी ने 146 वर्ष पहले डाली थी तब से अनवरत यह परंपरा कायम है। यहां पर दशहरा के बजाय चार दिन बाद पूर्णमासी के दिन रावण पुतला दहन और मेला का आयोजन होता है। यह परंपरा क्यों और कैसे पड़ी इसका कोई प्रमाण तो नहीं है लेकिन जनश्रुतियों के अनुसार कानपुर में मेला पूरा होने के चार दिन बाद पूर्णमासी के दिन रावण पुतला दहन करने की परंपरा पड़ गई।