फर्रुखाबाद: जाके पीर फटे न बिबाई सो का जाने पीर पराई| कबीरदास ने कुछ सोच कर ही लिखा होगा| मरीज जब ठीक हो जाता है तो लाख दुआएं देता है और जब उसके दर्ज में इजाफा होता है तो उसी मुख से दुनिया के सबसे कठोर श्राप भी निकलते है| बीते चार दिन लोहिया अस्पताल में हुई हड़ताल के कारण जिन मरीजो को इलाज नहीं मिल पाया उनके मुख से निकली हाय किसे लगेगी ये बड़ा चिंतनीय और विचारणीय प्रश्न है? 42 से 48 डिग्री की भीषण गर्मी में इलाज के लिए गाँव से पंहुचा मरीज क्या शिक्षको की वजह से परेशान हुआ या फिर डॉक्टर्स की वजह से इसका जबाब कहाँ मिलेगा? कौन देगा इसका जबाब कि इलाज के अभाव में एक फौजी की पत्नी का पहला गर्भ महिला वार्ड में भरती के दौरान जन्म लेने से पहले ही मृत हो गया और वो लोहिया अस्पताल में दर्द दर्द चिल्लाती रही? ऐसी कई छोटी बड़ी घटनाये इस दौरान हो गयी होंगी जो नजरअंदाज हो गयी| एक स्त्री जब पहली बार माँ बनती है तो कितने सपने पालती है इसे हर वो माँ जानती है जिसने आपको जन्म दिया और जब वो सपना टूट जाता है तो उसका दर्द ….बयां नहीं कर सकते| इस हड़ताल से ऐसे भी परिणाम निकले|
निष्ठुर वो जिद्दी शिक्षक थे या फिर अगंभीर डॉक्टर? ये बड़ा मंथन का सवाल है|दोनों ही अपने अपने पेशे में कामयाबी के कोई झंडे नहीं गाड़ पाए है| माना कि डॉक्टर अभी नौजवान है, मगर प्रधानाचार्य तो तजुर्बेकार थे| एक शिक्षक इस प्रकार के आन्दोलन से क्या सन्देश अपने छात्रो को देना चाहता था? और उनका संगठन किस प्रकार की लडाई लड़ रहा था| क्या ये शिक्षक के अधिकारों के लिए आन्दोलन था, वेतन बढ़ाने का आन्दोलन था या फिर किसी प्रकार के उत्पीडन का? शायद उनके पेशे से इस आन्दोलन का कोई मतलब नहीं था| ये तो निजी व्यवहार था जिसके कारण कोई विवाद खड़ा हुआ था? क्या सरकारी विभागों में चलने वाले कर्मचारी संगठन निजी जिन्दगी की लड़ाई के लिए बने है? डॉक्टर के पीछे स्वास्थ्य विभाग के कई संगठन थे तो समझ में आता है कि ड्यूटी करते समय उनके साथ विवाद हुआ जिसे पहले अभद्रता कहा गया अब ग़लतफ़हमी लिखा जायेगा इसलिए संगठन पीछे खड़े हो गए| मगर याद रखना अगर बात जात पात के अहम् की थी तो जो बच्चा इस दुनिया में जन्म नहीं ले पाया वो भी एक छत्रिय वंश में पैदा होने जा रहा था| क्या माफ़ कर पाओगे आपने आपको?
शिक्षक समाज का आइना होते है| सौम्य, क्षमाशील और कुछ सिखाने के लिए कड़क| ऐसा कृत्य करना जिससे समाज में समरसता बढ़े, ऐसी छवि नहीं दिखी| जहाँ तक जानकारी है कि मुकदमा तो पहले शिक्षको ने लिखाया था| डॉक्टर ने पहले पुलिस को मात्र सूचना दी थी| उनकी तहरीर तो तब पुलिस के पास पहुची जब उनके खिलाफ मुकदमा लिख गया| शिक्षको के मूल काम की तो छुट्टियाँ चल रही है उनके बच्चो का तो शिक्षण प्रभावित नहीं होना था, स्कूल बंद चल रहे है| हाँ उनकी हेठी से हड़ताल 4 दिन खिच गई और हजारो मरीजो को बिना इलाज लिए वापस अस्पताल से लौटना पड़ा| और रही बात डॉक्टर्स की तो वे भी काली पट्टी बाँध विरोध दर्ज कराते हुए इलाज कर सकते थे| प्रतिदिन सांकेतिक हड़ताल के लिए आधा एक घंटा काम रोकते और मीटिंग करते हुए विरोध जताकर भी इलाज कर सकते थे| मगर दोनों पक्षों को मीडिया में इतनी बड़ी कवरेज कैसे मिलती| देशी घी कि जगह स्प्रिट से लकडियो में आग लगाकर हवन में आहुति देते हुए कैसे विडियो बन पाते| और फिर अंत में बेनतीजा हड़ताल समाप्त| कायदे से इस मामले में हड़ताल/आन्दोलन होना ही नहीं चाहिए था| पुलिस को समय दिया जाना चाहिए था| दोनों ओर से मुकदमे लिख गए थे पुलिस निष्पक्ष विवेचना करती और समझौता या कार्यवाही जो उचित होता करा देती| अब मुकदमे वापस होंगे या ख़त्म होंगे और आन्तरिक विभागीय जाँच होगी| मामला शांत होना ही जनहित में ठीक है मगर मंथन दोनों पक्षों को करना पड़ेगा कि मरीजो की हाय किसे लगेगी……..