डेस्क: देश का सबसे बड़ा सियासी दंगल। जिले-जिले अखाड़े सजे थे और दांव- पेच भी पूरे शबाब पर रहे। देशभर में चली मोदी सुनामी ने बड़े-बड़े सियासी दुर्ग ढहा दिए। गांधी परिवार के वर्चस्व वाली अमेठी सीट तक नहीं बची, लेकिन ये मोदी सुनामी मैनपुरी में सपाई किले को नहीं हिला सकी। पूर्व में चुनावों में हर प्रतिद्वंद्वी को पछाडऩे वाले सियासी अखाड़े के सबसे बड़े पहलवान मुलायम सिंह ने इस बार भी भाजपा को पछाड़ दिया। वर्ष 2014 में भी मोदी लहर के दौरान भी मुलायम सिंह पराजित नहीं हुए थे। सियासत की कुश्ती में चार बार पहले जीत हासिल कर चुके मुलायम ने पांचवी बार भी जीत हासिल की। इसके साथ ही मैनपुरी में सपा की यह लगातार नौवीं लोकसभा जीत बन गई।
ईशन और काली नदी की मौजूदगी वाली मैनपुरी पौराणिक काल से अहम रही है। मयन और च्यवन जैसे ऋषियों की चरण रज यहीं विद्यमान है। इसे मयन ऋषि की तपोभूमि भी कहा जाता है। आजादी के बाद सियासत का सफर शुरू हुआ तो मतदाताओं का मिजाज सियादानों की वफादारी में तब्दील हो गया। नेताओं पर एक नहीं कई-कई बार मतदाता भरोसा जताते रहे। क्षेत्रीय दलों के उदय के बाद राजनीति जातीय समीकरणों में उलझी तो यह लोकसभा क्षेत्र सपा के सियासी किले के तौर पर मशहूर हो गया। इसकी अहम वजह रही यहां यादव मतदाताओं की बहुलता। जातीय समीकरणों के लिहाज से देखें तो अब तक यहां यादव वोटर अहम भूमिका निभाते रहे हैं। लोकसभा क्षेत्र में पिछड़ा वर्ग के मतदाता करीब 45 फीसद बताए जाते हैं, इनमें भी यादव मतदाताओं की हिस्सेदारी करीब 25 फीसद तक है। इनके बाद शाक्य मतदाताओं का नंबर आता है। सवर्णों की बात करें तो इनका कुल आंकड़ा 25 फीसद तक पहुंच पाता है, लगभग इतने ही दलित मतदाता हैं। अल्पसंख्यक मतदाताओं की संख्या सबसे कम करीब पांच फीसद है।
जातियों के इसी दांवपेच ने यहां सपा को मजबूत बनाया। सवर्णों का एक वर्ग भी पूर्व में सपा के साथ दिखता रहा है। हालांकि बीते कुछ चुनावों में तस्वीर थोड़ी बदली थी। भाजपा के राष्ट्रवाद, गरीबोन्मुखी योजनाओं का प्रचार आदि तरीकों से सपाई खेमा भी थोड़ा बेचैन जरूर था। हालांकि बसपा से गठबंधन उसकी हिम्मत बढ़ाए हुए था। भाजपा की बात करें तो उनके प्रत्याशी ने बहुत बढ़त बनाई। जीत का अंतर बीते चुनावों के मुकाबले काफी कम रहा, लेकिन भाजपा की ये बढ़त मुलायम को पीछे नहीं छोड़ पाई। यहां मतदाताओं में मुलायम ङ्क्षसह का आखिरी चुनाव होने के कारण भी एक अलग तरह का समर्थन नजर आया। देश में जब भाजपा को रिकार्ड जीत मिली, तब भी मुलायम सिंह मैनपुरी के सियासी अखाड़े के सबसे बड़े पहलवान साबित हुए।
मुलायम के नाम हुआ सबसे ज्यादा जीत का रिकार्ड
इस सीट पर जीत का रिकार्ड मुलायम सिंह यादव के ही नाम है। मुलायम सिंह यादव यहां चार बार सांसद बन चुके हैं। उनके बाद सबसे ज्यादा जीत बलराम सिंह यादव के नाम हैं। बलराम सिंह यादव एक बार कांग्रेस की टिकट पर और दो बार सपा की टिकट पर चुनाव जीते थे।
ऐसे बढ़ी सपा की ताकत
पहला चुनाव जीतने के बाद सपा ने यहां की जनता में अपने प्रति जबर्दस्त विश्वास जगाया। इसका अंदाजा चुनाव दर चुनाव सपा के मत प्रतिशत को लेकर लगाया जा सकता है। 1996 के चुनाव में सपा को 42.77 फीसद वोट मिले थे। इसके बाद के चुनाव में यह आंकड़ा 41.69 फीसद रह गया। इसके बाद 99 के चुनाव में 63.96 फीसद, 2004 के चुनाव में 62.64 फीसद, 2004 उपचुनाव में 56.44, 2014 के उप चुनाव में 59.63 फीसद वोट मिले। परंतु 2014 के उप चुनाव में फिर उछाल आया और सपा को 64.89 फीसद वोट हासिल हुए। इस बार वोट फीसद में बहुत ज्यादा उछाल नहीं माना जा रहा, लेकिन जीत मिलने को सपा की ताकत बरकरार रहने के रूप में देखा जा रहा है।
काम आया गठबंधन का गणित
वर्ष 1996 से वर्ष 2014 के लोकसभा उप चुनाव तक कोई दूसरा दल यहां सपा को चुनौती नहीं दे पाया। वर्ष 1996 के बाद जब-जब मुलायम या उनके परिवार का प्रत्याशी मैदान में उतरा, जीत का अंतर दो लाख से साढ़े तीन लाख वोटों तक का रहा। वहीं बसपा भी इस सीट पर सवा दो लाख तक वोट हासिल कर चुकी है। जब मोदी लहर थी, तब भी 2014 के चुनाव में मुलायम ङ्क्षसह 3.64 लाख वोट के बड़े अंतर से जीते थे। उस चुनाव में बसपा को भी 1.20 लाख वोट मिले थे। इसके बाद हुए उपचुनाव में सपा ने भाजपा को 3.21 लाख वोटों के अंतर से पराजित किया था। इस बार भाजपा ने पूरा दम दिखाया, माना जा रहा है कि सपा की जीत में थोड़ी ही सही, लेकिन बसपा के वोटरों ने भी भूमिका निभाई।
चुनौती से पार नहीं पा सकी भाजपा
भाजपा पहली बार वर्ष 1991 में मैदान में उतरी थी, तब सामने सपा नहीं थी। तब भाजपा प्रत्याशी दूसरे स्थान तक पहुंचा था। इसके बाद हुए आठ चुनावों में पार्टी पांच में दूसरे और तीसरे तीसरे स्थान पर ही रही। इन नौ चुनावों में पार्टी अधिकतम 40.06 फीसद वोट ही हासिल कर सकी है। वर्ष 1991 में भाजपा को 26.57 फीसद वोट मिले थे। इसके बाद वर्ष 1998 में 40.06 फीसद वोट मिले। वर्ष 2004 के उपचुनाव में पार्टी प्रत्याशी 2.6 फीसद वोटों तक ही सिमट गया था। बीते उपचुनाव की बात करें तो भाजपा प्रत्याशी को 33 फीसद वोट मिले थे। ऐसे में भाजपा के लिए इस भी बार चुनौती कड़ी मानी जा रही थी।