बाल दिवस विशेष: गुम होता बचपन, जिम्मेदार कौन?

FARRUKHABAD NEWS FEATURED

boyफर्रुखाबाद:(दीपक-शुक्ला) बचपन, एक ऐसा मधुर शब्द जिसे सुनते ही लगता है मानो शहद की मीठी बूंद जुबान पर रख ली हो। जिसकी कोमल कच्ची यादें जब दिल में उमड़ती है तो मुस्कान का लाल छींटा होंठों पर सज उठता है। बचपन वही तो होता है जो कंचे और अंटियों को जेबों में भरकर सो जाए, बचपन यानी जो पतंगों को बस्ते में छुपाकर लाए, बचपन मतलब जो मिट‍्टी को सानकर लड्डू बनाए, बचपन बोले तो वो जो बड़ों की हर चीज को छुपकर आजमाएं। बचपन आज भी भोला और भावुक ही होता है लेकिन हम उन पर ऐसे-ऐसे तनाव और दबाव का बोझ डाल रहे हैं कि वे कुम्हला रहे हैं। उनकी खनकती-खिलखिलाती किलकारियां बरकरार रहें इसके ईमानदार प्रयास हमें ही तो करने हैं। लेकिन यह सब पढने और देखने में सभी को अच्छा लगता है| लेकिन हमारे जनपद की जमीनी हकीकत मासूमो को लेकर कुछ और ही है|
boy-12यह तो सभी जानते हैं कि कथनी और करनी में एक बड़ा अंतर होता है और वास्तविकता इनसे कोसों दूर रहती है। ये विचार मेरे मन में उस समय आया जब एक बारात के साथ ही साथ एक गंदा सा बोरा लिये एक मासूम बच्ची को भी जाते देखा| 10 साल की बच्ची की बारात में हो रहे डांस का लुप्त लेने का प्रयास कर रही थी वह रात के अँधेरे में कूड़ा कबाड़ बटोरने निकली थी| लेकिन बारात में बच्चो को डांस करते देख वह अपनी कबाड़ की बोरी छोड़ बारात मेंडांस करने पंहुच गयी| लेकिन उसके गंदे कपड़े को देख इत्र लगाये लोगो ने उसे डपट कर भगा दिया| मासूम के आँखों में आंसू थेजो चीख_चीख कर कह रहे थे क्या हमे जिन्दगी जीने का कोई अधिकार नही? जनपद में ना जाने कितने बच्चे बाल मजदूरी का शिकार हो रहे है| आखिरकार वो कौन सी परिस्थितियां और समस्याएं हैं जिनकी वजह से उस बच्चे से पढ़ने-लिखने और खेलने-कूदने का अधिकार छीनकर उसे काम करने की विषम परिस्थितियों में ढकेल दिया गया।girlहाल ही मे हमनें देश की आज़ादी की 70वीं सालगिरह मनायी। इन 70 सालों में अब तक हमारे देश में अनेकों सरकारें आयी और सैंकड़ों खोखले दावों और वादों के साथ कितने ही राजनीतिक दल अस्तित्व में आये। यह एक जटिल वास्तविकता है, कि अलग-अलग सरकारें और राजनीतिक दल अपनी स्वार्थसिद्धी में मग्न रहते हैं और उनकी इस मग्नता का हर्जाना उन लाखों-करोड़ों बच्चों को भुगतना पड़ता है, जिन्हें देश का भविष्य माना जाता है। होटल में काम करते हुए उस बच्चे की मासूमियत ने मेरे मन में यह सवाल उठाया, कि वर्तमान सत्ताधारी सरकार की नीतियों में ऐसी कौन सी खामियां हैं जो गरीब बच्चों को उन सभी आधारभूत सुविधाओं से वंचित कर उन्हे अंधकार के गर्त में ढकेल रही हैं।

bal-sramवर्तमान सरकार की कई नीतियों से हम वाकिफ हैं जिनके तहत यह दावा किया जाता है कि गरीब परिवार के बच्चों को मुफ्त शिक्षा, शिक्षण सामग्री और छात्रवृत्ति जैसी अनेक सुविधाएं दी जाएंगी। इसी प्रकार के वादे और नीतियों का निर्माण पिछली सरकारों में भी किया गया था। इनके तहत 2009 के शिक्षा के अधिकार अधिनियम को देखा जा सकता है जिसके अंतर्गत 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए मुफ्त एवं जरुरी शिक्षा संबंधी अनेक प्रावधानों का उल्लेख मिलता है। लेकिन यहां ये सवाल मज़बूती से सामने आता है, कि अगर सरकार यह दावा करती है कि ये सब सुविधा प्रदान करने वाली योजनाओं को उनके द्वारा सफलता से संचालित किया जा रहा है। और इससे जिले के सैकड़ो बच्चों को फायदा हो रहा है तो ऐसा कौन सा ग्रहण उन मासूमों के जीवन से जुड़ा है, जो उन्हें सरकार द्वारा दी जा रही ‘सर्वोत्तम’ सुविधाओं से वंचित कर सड़कों, दुकानों, कल-कारखानों और रेड़ी-पटरियों पर काम करने के लिए मजबूर कर रहा है। भट्टो पर काम करने वाले मजदूरों के बच्चो के लिये बेसिक शिक्षा विभाग क्या कर रहा है| क्या इन्हे पढने का अधिकार नही| क्या होटलों पर जूठन धोने वालोबच्चो को पढने का अधिकार नही| श्रम विभाग के आंकड़ो के अनुसार कोई बाल मजदूर जिले में नही है| लेकिन तस्वीरें झूठ नही बोलती|

अंत में यही विचार बार-बार मन में आता है, कि अगर इसी तरह से नीतियों के क्रियान्वयन के अभाव में गरीब मासूमों के अच्छे जीवन प्राप्त करने के अधिकार को छीना जाएगा तो निश्चित ही हमारे देश में एक अलग ही तरह की दास परंपरा का उदय होगा। गरीब बच्चों के नन्हें हाथ होटलों, दुकानों और धनवान घरों के बर्तन मांजते हुए और झाड़ू-पोछा करते हुए एक दिन अपने जीवन और सुनहरे भविष्य को पीछे छोड़ उन जटिलताओं और मुश्किल परिस्थितियों में उलझ जाएंगे जिनसे बाहर निकलना उनके लिए बहुत मुश्किल होगा। अगर सरकार को देश में इस तरह की जटिलताओं को बढ़ने से रोकना है, तो योजनाओं के क्रियान्वयन में तेज़ी लाने के साथ-साथ उन सामाजिक वास्तविकताओं को भी समझना होगा जो समाज में असमानताओं को पैदा करती है। सरकार को ऐसी नीतियां बनानी होंगी, जो देश में मौजूद असमानताओं पर आधारित भेदभाव और ऊंच-नीच को खत्म करने के साथ, समाज के गरीब तबकों को उनका जीवन स्तर उठाने का अवसर दे सकें।