अहमदाबाद:जाति आधारित भारत की राजनीति में हर रोज बदलते समीकरणों के बीच किसी भी जाति के लिए एक पार्टी से समर्थन वापस लेना आसान नहीं लेकिन गुजरात के पटेल समुदाय ने भारतीय जनता पार्टी को इसी तरह का अल्टीमेटम भेजा है। बीजेपी के साथ मजबूती और वफादारी के साथ जुड़े रहने वाले पटेल समुदाय के इस कदम ने निश्चित ही पार्टी के अंदर सबसे सुरक्षित माने जाने वाले राज्य की जमीन खिसकने का डर पैदा कर दिया होगा।जाति आधारित भारत की राजनीति में बदलते समीकरणों के बीच किसी भी जाति के लिए एक पार्टी से समर्थन वापस लेना आसान नहीं लेकिन गुजरात के पटेल समुदाय ने भारतीय जनता पार्टी को इसी तरह का अल्टीमेटम भेजा है।
पटेलों के प्रभुत्व वाले उत्तर गुजरात और सौराष्ट्र में युवाओं के समूह ने बीजेपी के गढ़ में एक महीने के अंदर अपने आंदोलन से राज्य की राजनीति को हिलाकर रख दिया है। इस आंदोलन के राज्य के बाहर फैलने का भी अंदेशा बढ़ गया है।
पटेल, जिनमें से अधिकतर दक्षिण गुजरात के सूरत में हीरे और टेक्सटाइल के कारोबारी हैं, वो अपनी जाति के लिए 27 फीसदी कोटे में से आरक्षण चाहते हैं। वहीं, आरक्षण का फायदा ले रही बाकी ओबीसी जातियों ने भी एक साफ संदेश दे दिया है। इस आंदोलन की शुरुआत उत्तर गुजरात के मेहसाणा से हुए, जो मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल, बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गृहक्षेत्र भी है।
इस आंदोलन की अगुवाई कर रहे 22 साल के कॉमर्स ग्रेजुएट हार्दिक पटेल, अहमदाबाद की विरामगम तहसील के बिजनसमैन के बेटे हैं। कुछ शिक्षित नौजवानों के समूह से शुरू हुई आरक्षण की मांग जल्द ही सौराष्ट्र और केंद्र गुजरात के वडोदरा में शहरी क्षेत्रों और राजधानी गांधीनगर तक फैल गई। राज्यव्यापी आंदोलन का चेहरा ले चुकी इस मांग ने राज्य सरकार को मजबूर कर दिया कि वह आंदोलनकारियों पर ध्यान दे। सूरत में इस मांग को लेकर हुई बाइक रैली में ही अकेले 5 लाख लोग शामिल हुए।
पटेलों के इस आंदोलन को राजस्थान के गुर्जर नेताओं का भी समर्थन मिला है, जो कुद समुदाय के लिए साल 2009 से आरक्षण की मांग कर रहे हैं। गुर्जर आरक्षण मांग की अगुवाई करने वाले नेता किरोड़ी सिंह बैंसला मंगलवार को पटेल समुदाय की रैली में शामिल हो सकते हैं।
वह पटेल ही हैं, जिनकी राज्य में आबादी 27 फीसदी है और यहां की राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में उनकी भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है। इसी समुदाय के मुताबिक ही व्यापक तौर पर बीते तीन दशकों से गुजरात की राजनीति घूमती भी रही है। इसे लेकर मोदी भी अपवाद नहीं हैं, जिन्होंने केशुभाई पटेल के बाद सत्ता संभाली और फिर आनंदीबेन पटेल को अपना उत्तराधिकारी चुना। केशुभाई पटेल से पहले, गुजरात में जनता दल (गुजरात) के नेता दिवंगत चिमनभाई पटेल (मुख्यमंत्री) का शासन था, जो बीजेपी के उप मुख्यमंत्री भी रहें।
राज्य की राजनीति में बड़ा प्रभुत्व रखने वाले पटेलों के महत्व को मोदी भी भरपूर समझते हैं। जिन्होंने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में वरिष्ठ ब्राह्मण नेताओं और मंत्रियों को धीरे-धीरे किनारे लगाकर पटेल नेताओं को आगे बढ़ाया। राज्य की वर्तमान बीजेपी सरकार में भी आधा दर्जन मंत्री पटेल समुदाय से ही हैं और उसके दो अहम मंत्री नितिन और सौरभ भी इसी समुदाय से हैं।
वो पटेल ही हैं जो राज्य में हीरे की इंडस्ट्री चलाते हैं। हीरे की कटाई और पॉलिशिंग का काम यही करते हैं, जिसमें से 80 फीसदी का निर्यात देश के बाहर ही होता है। वह रियल एस्टेट सेक्टर के भी सर्वेसर्वा हैं। शिक्षा ट्रस्ट, ग्राउंडनट ऑयल लॉबी में पटेलों का ही वर्चस्व है और राज्य के भूस्वामी और अमीर किसान भी पटेल समुदाय से ही आते हैं।
इस स्थिति में पटेलों का यह आंदोलन बीजेपी के लिए आने वाले भविष्य में बड़ा खतरा बन सकता है। एक्सपर्ट्स का मानना है कि बहुत संभव है, हार्दिक का अगला कदम राजनीति की तरफ ही हो। ऐसे में बीजेपी कहां तक उनका मुकाबला कर पाएगी? वहीं, अगर अन्य जातियां (जैसे गुर्जर) भी इस आंदोलन के साथ जुड़ती है तो अन्य राज्यों तक भी उसकी आंच जरूर पहुंचेगी। पीएम मोदी और बीजेपी इस खतरे से कैसे निपटते हैं, यह देखना अहम होगा।