(दीपक शुक्ला) FARRUKHABAD : देश विकसित हो रहा है, आदमी चांद पर पहुंच रहा है, हर हाथ में इंटरनेट और मोबाइल आ चुका है। लोगों के खान पान में भी तेजी से बदलाव हुआ। पैसा अभी कमाया लेकिन खाने के लिए शुद्ध भोजन नसीब हो पाना बहुत मुश्किल हो गया है। हर चीज में मिलावट, फिर चाहे वह आटा हो, तेल हो या दूध। बाजार में विक्री तो सभी की है लेकिन उसमें क्वालिटी क्या है यह तो आप भी जानते हैं। दूध की बात याद करते ही ग्रामीण क्षेत्रों में कंडे की आग पर दुधाड़ी में खौलता लाल दूध याद आ जाता है।
एक समय था जब 60 फीसदी घरों में लोग शुद्ध दुधाड़ी का दूध लोग पीते थे। महज दुधाड़ी खरीदने के लिए दूर दूर से लोग एक चिन्हिंत स्थान पर लगने वाले मेले में आया करते थे। दुधाड़ी से कहीं ज्यादा कीमत उस दुधाड़ी खरीदने आने में लग जाया करते थे। इसके बावजूद भी लोग आते थे। कारीगरों के भी वारे न्यारे थे। जमकर विक्री कर पूरे साल की कमाई कुछ महीनों में ही कर लिया करते थे। परिवार अच्छे से चल जाया करते थे। लेकिन आधुनिकता के इस दौर में इस व्यवसाय से जुड़े कारीगरों को पंगु सा बना दिया है।
पहले तो कारीगर कम ही रह गये हैं। बजह खरीददारों की कमी। दूध से अधिक लोग शीतल पेय पीने में रुचि ले रहे हैं। जिसका खासा असर कारीगरों के व्यवसाय पर पड़ा है। उम्र दराज दुधाड़ी बनाने वाले कारीगर रामजीत निवासी दाउदपुर मोहम्मदाबाद एक लम्बे अरसे से दुधाड़ी बनाने का काम कर रहा है।
बचपन से लेकर बुढ़ापे तक पूरा जीवन सिर्फ दुधाड़ियां और उनके ऊपर के ढक्कन गढ़ने में ही बीत गया। राम जीत बताते हैं कि पुराने समय में व्यवसाय इतनी आमदनी दे देता था कि परिवार का खर्च चल जाये। लेकिन वर्तमान में न अब दूध के शौकीन लोग रह गये और न दुधाड़ी के खरीददार। रामजीत अपने बच्चों को इस हुनर से दूर ही रखना चाहता है। उसके पांच पुत्र हैं। कुलदीप, ओमकार, देवेन्द्र, अरुण और अनुज जिन्हें वह जीतोड़ मेहनत करके पढ़ाने का प्रयास करता है। लेकिन महंगाई की मार उसकी कमर तोड़ रही है।
वहीं दूसरा कारीगर बिल्लू अपनी पत्नी सीमा के साथ पूरा दिन सिर्फ इसी व्यवसाय में लगाये हुए है। सरकार ने कोई भी योजना इस समुदाय के लोगों के लिए नहीं चलायी, यह कहना है बिल्लू का। एक हजार रुपये बीघा की जमीन की मिट्टी खरीद कर उसमें तीन हजार दुधाड़ियां तैयार करता है बिल्लू। 13 साल इस व्यवसाय को करते हुए हो गये। पत्नी सीमा व्यवसाय को पसंद नहीं करती। कारण आमदनी न के बराबर, मेहनत जीतोड़। 6 दिन एक दुधाड़ी को पकाने में लग जाते हैं और इतनी मेहनत के बाद एक दुधाड़ी महज 35 से 40 रुपये में ही बिकती है।
बिल्लू का कहना है कि दुधाड़ियां, ज्योंता, खिमशेपुर, पूर्णिमा, रामनगरिया, संकिसा, भोगांव की रामलीला, नौखण्डा के मेले में विक्री हो जाती है। समुदाय सरकार की उपेक्षा का शिकार है। बच्चों को अच्छी शिक्षा इस समुदाय के लोग नहीं दिला पा रहे हैं। सरकारी योजनायें इस समुदाय के लिए बौनी साबित हो रहीं हैं। बिल्लू और रामजीत से बात की गयी तो उन्होंने बताया कि सरकार अगर उनके इस व्यवसाय के लिए कुछ योजनायें चला दे तो उनका यह व्यवसाय आगे कई वर्षों तक जीवित बना रहेगा।
महिलायें नहीं चलाती हैं चाक
इस समुदाय में अक्सर परिवार मिट्टी के वर्तन बनाने का काम करते हैं। इसके बावजूद भी महिलाओं को चाक चलाने की इजाजत नहीं है। पुराने समय से ही महिलाओं को ऐसा करने की मनाही की गयी है।