हिन्दू धर्म में कार्तिक माह की चतुर्थी के दिन विवाहित महिलाओं द्वारा करवा चौथ का व्रत किया जाता है। यह व्रत पति की दीर्घायु, उनकी मंगलकामना और अखंड सौभाग्य की कामना से करती हैं। इस दिन करवा यानि मिट्टी के जल-पात्र की पूजा कर चंद्रमा को अघ्र्य देने का महत्व है। इसीलिए यह व्रत करवा चौथ नाम से मशहूर है। किंतु इस व्रत से जुडें बीते समय के सामाजिक कारण यह बताते हैं कि समय और धार्मिक परंपराओं के चलते करवा चौथ व्रत का स्वरुप और उद्देश्य पति की लंबी आयु और मंगल कामना के लिए व्रत पालन हो गया।
असल में बीते समय में कम उम्र की कन्याओं का विवाह कर दिया जाता था। वह अपने पिता और परिवार से दूर ससुराल जाती थी। आज की भांति तेज वाहन और संवाद की सुविधा न होने से लंबे समय तक उसका मेलजोल परिवारवालों से नहीं होता था। इधर ससुराल में अदब, मर्यादाओं के कारण या परिवार के सदस्यों खासतौर पर पुरुष सदस्यों के साथ बोल, व्यवहार में वह असहज होती थी।
इसलिए करवा चौथ के दिन सामाजिक रस्म के तहत गांव की ऐसी हमउम्र विवाहित महिला को उस नवविवाहिता की धर्म बहन या कंगन सहेली बनाया जाता था, जिसका ससुराल से सगे रिश्ते नहीं होते थे। यह भावनात्मक रिश्ता दोनों ही विवाहिताओं के लिए ससुराल के जीवन को सहज और सुखद कर देता था। क्योंकि नवविवाहिता, धर्मबहन के माध्यम से अपनी हर बात और समस्या को पति या ससुरालवालों तक पहुंचा देती थी। दोनों एक-दूसरे से सगी बहन का रिश्ता निभाती थी। हर रस्म-रिवाज चाहे धार्मिक और व्यावहारिक वह साथ होती थी। धर्मबहन के साथ ससुराल और पीहर दोनों ही परिवार सगा रिश्ता ही मानते थे।
इस तरह वास्तव में करवा चौथ के मूल में दोस्ती के उत्सव का भाव है। बाद में धार्मिक मान्यताओं और प्रसंगवश पतिव्रत की परंपरा जुड़ गई। किंतु अगर देखा जाए तो दोनों ही स्थितियों में पति की भूमिका अहम है। क्योंकि पहली मान्यता में धर्मबहन या सहेली बनाने की प्रथा भी विवाहित होने पर ही निभाई जाती थी तो दूसरी परंपरा में भी विवाहित स्त्री ही पति की मौजूदगी में अखण्ड सौभाग्य के लिए व्रत पालन करती है।
संदेश यही है कि यह व्रत पति के प्रति सम्मान प्रगट करने का प्रतीक पर्व है। पति-पत्नी दोनों एक गाड़ी के दो पहियों की तरह होते हैं। दोनों एक समान, एक दिशा में चलते हैं तो जिस तरह गाड़ी आगे की ओर बढ़ती है, उसी तरह गृहस्थी की गाड़ी भी अपने सही लक्ष्य की ओर बढ़े। पत्नी अपने पति के प्रति प्रेम, समर्पण व विनम्र भाव से रहे। मर्यादा से रहे, गृहस्थी के अनुशासन से रहे। पति भी अपने कर्तव्य का पालन करे।
चूंकि गृहस्थी की जिम्मेदारियों को निभाते हुए गलतियां होना स्वाभाविक हैं। शास्त्रों में भी कहा गया है कि अपनी गलती, दोषों को सुधार लेना ही बडप्पन है। इसलिए इस व्रत पर अपनों और बड़ों के सम्मान करने और पति के प्रति समर्पण भाव का संकल्प लें। पति-पत्नी दोनों ही अपने दोषों को याद कर इसी भाव से उत्सव मनाएं कि गलतियां फिर न होंगी। स्त्री के लिए सास, ससुर और पति के चरणस्पर्श इसी भाव का प्रगटीकरण है।