FARRUKHABAD : माहे रमजान में रोजे के दौरान इस्लाम में अपने गुनाह पर शर्मिंदगी, खुदा से मगफिरत (माफी), इबादत का शौक और रूह की पाकीजगी का जज्बा पैदा हो जाता है। इस माह में फरिश्ते जमीन पर आते हैं और रोजेदार के गुनाह को माफ कर देते हैं। रमजान शरीफ के पहले अशरा (दस दिन) रहमत, दूसरे मगफिरत (माफी) और तीसरे जहन्नुम से छुटकारे के हैं। अल्लाह की इस नेमत को हासिल करने के लिए सब्र का इम्तिहान देना पड़ता है। रमजान मुबारक के तीस दिन में समझाया जाता है कि इबादत, ईमानदारी और मोहब्बत के रास्ते पर चलकर ही जिंदगी को बेहतर बनाया जा सकता है। रमजान का मुकद्दस महीना मालदार और गरीब के बीच जेहन व दिल की दूरी खत्म करने का बुनियादी जरिया है।
अखिल भारतीय मुस्लिम महासंघ के नगर महामंत्री मोहम्मद यूसुफ अन्सारी के अनुसार ग्यारह महीनों में दौलत और गुरबत के बीच बनी खाई पर एक पुल का का करता है रमजान शरीफ। रोजेदार की भूख जब अपने पूरे शबाब पर होती है, उस वक्त उसे गुरबतजदा लोगों का दर्द समझने का शऊर पैदा होता है। रमजान के पाक महीने को बाकी 11 महीनों की बनिस्बत इस बजह से भी बेहतर माना जाता है, क्योंकि इस महीने में गरीब का दस्तखान की कुशादा (भरापूरा) हो जाता है जिससे इंसान में रहमदिली, भाईचारा और मोहब्बत बढ़ती है।
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हजरत मोहम्मद साहब फरमाते हैं कि जिस रोजेदार ने झूठ बोला या अपशब्द का इस्तेमाल किया तो अल्लाह को उसके भूखे-प्यासे रहने से कोई मतलब नहीं है। मोहब्बत और भाईचारा सबसे अफजल है, जबकि लड़ाई और दहशतगर्दी से दीन में खलल पड़ता है। इस्लाम ने दौलत पर मुसलमान के साथ हर इंसान का हक रखा है। हजरत मोहम्मद ने फरमाया है कि वो शख्स सच्चा मुसलमान नहीं हो सकता है जिसका पड़ोसी भूखा सो जाये। इस दौरान साबिर हुसैन नगर अध्यक्ष मुस्लिम महासंघ ने भी रोजे की खूबियां बतायी।