सपा कल मनायेगी लोहिया की 103वीं जयंती

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FARRUKHABAD : 23 मार्च शनिवार को होने वाली समाजवादी पार्टी के प्रेरणा श्रोत डा0 राममनोहर लोहिया की  103वीं जयंती को धूम धाम से मनाने के dr. lohiyaलिए सपाई तैयारियों में जुट गये हैं। जिसके लिए जनपद स्तर पर गोष्ठी के अलावा लोहिया अस्पताल में मरीजों को फल वितरित करने का भी कार्यक्रम रखा गया है।

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समाजवादी पार्टी के जिला महासचिव समीर यादव ने बताया कि 23 मार्च को डा0 राममनोहर लोहिया की जयंती पर 10 बजे आवास विकास स्थित लोहिया प्रतिमा पर माल्यार्पण व पुष्प् अर्पण के बाद लोहिया अस्पताल में मरीजों को फल वितरित किये जायेंगे। जिसके पश्चात आवास विकास स्थित समाजवादी पार्टी के कार्यालय पर विचार गोष्ठी का आयोजन किया जायेगा। उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं को समय पर कार्यक्रम में पहुंचने की भी अपील की है।

स्वाधीनता आंदोलन के अग्रणी नेताओं में से एक राममनोहर लोहिया अपने समय से भी आगे सोचने वाले एक प्रखर चिंतक थे।कश्मीर समस्या हो, गरीबी, असमानता अथवा आर्थिक मंदी, इन तमाम मुद्दों पर लोहिया का चिंतन और सोच स्पष्ट थी।

यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि आज जिन समस्याओं से आमजन को दो चार होना पड़ रहा है, लोहिया उनमें से अधिकांश पर अपना दृष्टिकोण पहले ही रख चुके हैं। विश्व आज भी गरीबी, असमानता, आर्थिक मंदी समेत अनेक समस्याओं से जूझ रहा है। इसके लिए जो समाधान आज बुद्धिजीवियों द्वारा सुझाए जा रहे हैं वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से लोहिया के चिंतन से जुड़े हैं। लोहिया पर कई पुस्तकें लिख चुके मस्तराम कपूर इस स्थिति को ‘लोहिया को याद करते अलोहियावादी” के तौर पर देखते हैं।

लोहिया द्वारा उठाए गए सवाल आज हर राजनीतिक पार्टी के घोषणापत्र का हिस्सा होते हैं। लोहिया को देख-सुन चुके कपूर कहते हैं कि लोहिया ने ’27 करोड़ और तीन आने’ की बहस से जिस आर्थिक असमानता की तरफ ध्यान खींचा था, वह आज भी है। अर्जुनसेन गुप्ता समिति ने असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा रिपोर्ट में बताया है कि 83. 6 करोड़ भारतीय रोजाना 20 रुपए से भी कम पर अपना जीवन बसर करते हैं, जो कि 1963 के तीन आने से भी कम है।

लोहिया ने ‘इकनॅामिक्स आफ्टर मार्क्स में पूंजीवाद के इन संकटों का जो विश्लेषण किया था, वह आज भी प्रासंगिक है। हालांकि लोहिया जाति व्यवस्था के खिलाफ रहे और जहां तक जाति आधारित जनगणना का सवाल है, तो लोहिया भी इसका समर्थन करते क्योंकि इससे न केवल भारत की 6,000 जातियां मात्र चार समूहों में आ जाएंगी, बल्कि धीरे-धीरे लोग अपनी जाति को भूलना शुरू कर देंगे।