उत्‍तर प्रदेश में ब्राह्मण विरोधी राजनीति की एक धुरी के तौर पर स्‍थापित हो चुके हैं राजा भैया

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Lucknow: अपनी आपराधिक छवि की वजह से सरकारों के लिए अक्सर बोझ बन जाने वाले राजा भैया में कुछ तो ऐसा है जो पिछले दो दशक के दौरान उन्हें प्रदेश की राजनीति में अपरिहार्य बनाये हुए है। आज भी राजा भैया अखिलेश यादव और सपा की राजनीति की वह मजबूरी हैं जिसे ढोने के फायदे उनसे छुटकारा पाने के नुकसान से बहुत ज्यादा बड़े हैं। मजबूरी की यह दोस्ती इतना आगे बढ़ चुकी है कि सपा चाहकर भी राजा भैया से रिश्ता तोड़ नहीं सकती। वरना ऐसा नहीं है कि प्रतापगढ़ में यह कोई पहली घटना हुई है। कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी द्वारा इस घटना के बाद चार मार्च को विधानसभा में दिए गए बयान के मुताबिक पिछले एक साल में प्रतापगढ़ में नौ प्रधान, बीटीसी और दूसरे जनप्रतिनिधियों की हत्या हो चुकी है। इससे भी ज्यादा सन्न करने वाली सच्चाई यह है कि इनमें से सात यादव थे।

Raja Bhaiyaउत्तर प्रदेश में रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया के आगे[bannergarden id=”8″] कानून के लंबे हाथ हमेशा ही छोटे पड़ जाते हैं। इस छवि को गढ़ने में जातियों की बैसाखियों पर तन कर खड़ी राजनीति का भी योगदान है। इन्हीं जातिगत समीकरणों ने उन्‍हें लगातार प्रासंगिक बनाए रखा है। वे उत्तर प्रदेश में ठाकुरों की राजनीति और ब्राह्मण-विरोधी की एक धुरी बन चुके हैं। यह एक नमूना ही था कि सीओ हत्‍याकांड में आरोपित किये जाने के बाद बीती छह मार्च को लखनऊ में सूबे के 60 से ज्यादा ठाकुर विधायकों ने बैठक करके उन्हें अपने तन-मन-धन का समर्थन अर्पित किया। इसमें सपा, भाजपा और कांग्रेस के ठाकुर विधायक सम्मिलित थे। पिछली बसपा सरकार को छोड़ दें तो राजा भैया पिछले दो दशक के दौरान वे अलग-अलग विचारों और संस्कारों वाले कुल छह मुख्यमंत्रियों के साथ एक सी सहजता के साथ जुड़ते-उठते-बैठते रहे हैं। इनमें कल्याण सिंह, मायावती, रामबाबू गुप्ता, मुलायम सिंह यादव, राजनाथ सिंह और अब अखिलेश यादव के नाम हैं। लेकिन आज तक उन्होंने किसी पार्टी का दामन नहीं थामा है।

वैसे आज राजा भैया अखिलेश यादव और सपा की राजनीति की वह मजबूरी हैं जिसे ढोने के फायदे उनसे छुटकारा पाने के नुकसान से बहुत ज्यादा बड़े हैं। परंतु 1993 में मुलायम सिंह ने ही राजा भैया का जमकर विरोध किया था। उनका आरोप था कि 1991-92 में राजा भैया ने राम मंदिर आंदोलन के दौरान प्रतापगढ़ के मुस्लिम विरोधी दंगों में सक्रिय भूमिका निभाई थी। तब मुलायम सिंह ने राजा भैया पर कार्रवाई की मांग को लेकर हफ्ते भर तक प्रदेश विधानसभा की कार्यवाही बाधित की थी। राजा भैया ने यहीं से राजनीति में अपना पहला कदम रखा था। तब भाजपा ने उनका समर्थन करते हुए चुनावी मैदान में उनके खिलाफ अपना उम्मीदवार नहीं उतारा था। उनके पिता उदय प्रताप सिंह विश्व हिंदू परिषद के सक्रिय कार्यकर्ता रहे हैं। इलाके के मुट्ठी भर मुसलमानों की उन्हें कोई जरूरत नहीं पड़ती। एक बार फिर से चर्चा है कि भाजपा राजा भैया के खिलाफ कोई सीधा मोर्चा नहीं खोलेगी, सिर्फ प्रदेश की बदतर कानून-व्यवस्था पर विलाप करेगी।

1996 में कल्याण सिंह किसी बात पर राजा भैया से नाराज हो गए। उन्होंने ‘कुंडा के गुंडा’ के खिलाफ अभियान चलाया। मगर 1997 में इन्हीं कल्याण सिंह ने राजा भैया को अपने मंत्रिमंडल में बतौर काबीना मंत्री शामिल कर लिया। आगे चलकर राजनाथ सिंह ने भी उन्हें अपने मंत्रिमंडल में बनाए रखा। उस समय यह बात आम थी कि राजा भैया के जरिए राजनाथ सिंह जमकर ठाकुरवादी राजनीति को आगे बढ़ा रहे हैं। यह भाजपा की वह सरकार थी जो लोकतांत्रिक कांग्रेस और जनतांत्रिक बसपा नाम की दो दलबदलू पार्टियों की बैसाखियों पर टिकी थी। इनमें विधायक ठाकुरों की संख्या काफी थी जिन्हें कांग्रेस और बसपा से तोड़ने का कार्य राजा भैया ने ही पूरा किया था। राजा भैया के लिए तभी मायावती के मन में वह गांठ पड़ गई जिसे आने वाले समय में हर मौके पर वे खोलती रहीं।

मई, 2002 में भाजपा और बसपा की मिली-जुली सरकार बनी। यह छह-छह महीने का प्रयोग था जिसमें पहले मायावती मुख्यमंत्री बनी थीं। राजा भैया एक बार फिर से भाजपा के सहयोग से विधानसभा में थे। कल्याण सिंह तब तक पार्टी से अलग हो चुके थे और राजनाथ सिंह प्रदेश में पार्टी के सबसे बड़े नेता थे। लेकिन उनकी लालजी टंडन के साथ अदावत थी और मायावती टंडन को राखी बांधती थीं। उस वक्त राजनाथ सिंह तो राजा भैया को मायावती मंत्रिमंडल में शामिल करवाना चाहते थे लेकिन टंडन ने एक भी राजनाथ समर्थक को भाजपा के कोटे से सरकार में मंत्री नहीं बनने दिया। अक्टूबर, 2002 आते-आते राजा भैया का मायावती सरकार से मोहभंग होने लगा। उन्होंने सरकार विरोधी गतिविधियां शुरू कर दीं। पहली बार वे सपा के करीब जाते दिखने लगे। उस वक्त अमर सिंह ने राजा भैया के पक्ष में बयान दिया। राजा भैया अमर सिंह के साथ राजभवन गए और राज्यपाल को समर्थन वापसी की चिट्ठी थमा दी। सरकार लड़खड़ाने लगी। किसी तरह से कुछ विधायकों का जुगाड़ करके मायावती ने सरकार बचाई। अब मायावती अवसर की तलाश में थीं।

नवंबर, 2002 में राजा भैया ने ललितपुर के भाजपा विधायक पूरन सिंह बुंदेला को धमकी देकर सरकार से अलग होने के लिए कहा। बुंदेला ने इसकी शिकायत मायावती से की। मायावती ने बुंदेला को राजा भैया के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाने के लिए कहा। राजा भैया को गिरफ्तार कर लिया गया। कुंडा स्थित उनके पैतृक महल में जनवरी, 2003 में पुलिस ने छापा मारकर तमाम हथियारों के साथ दो एके-47 रायफलों की बरामदगी दिखाई। राजा भैया, उनके पिता उदय प्रताप सिंह और चचेरे भाई अक्षय प्रताप सिंह को पोटा के तहत गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया। राजकुमारी रत्ना सिंह के अनुसार राजा भैया के पिता उदय प्रताप सिंह पूरे देश में इकलौते शख्स हैं जिनके खिलाफ पोटा के अल्प जीवनकाल में चार्जशीट दाखिल हो चुकी थी। राजा भैया के खिलाफ चार्जशीट दाखिल होने से पहले ही मायावती सरकार गिर गई थी। इस घटना ने राजा भैया को ठाकुरों के बड़े नेता के तौर पर स्थापित कर दिया। इसी समय भाजपा का राजनीतिक आधार सिकुड़ने लगा था और सपा ने अमर सिंह के माध्यम से राजा भैया को अपने साथ जोड़ लिया। इस तरह से राजा भैया के प्रति ठाकुरों में पैदा हुई संवेदना सपा के साथ जुड़ गई। अगस्त, 2003 में मुलायम सिंह ने मुख्यमंत्री बनते ही राजा भैया को हिरासत से मुक्त करवा दिया।

मुलायम सिंह की इस सरकार में राजा भैया खाद्य और आपूर्ति विभाग के मंत्री बने। उन्होंने अपने मंत्रालय का जमकर दोहन किया।  राजा भैया ने खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री रहते हुए एक व्यवस्थित नेटवर्क के जरिए 100 करोड़ रुपये से ज्यादा का कथित गबन किया था। गरीबों के लिए आवंटित सरकारी अनाज की तस्करी करके उन्हें बांग्लादेश और दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में बेच दिया गया। उनके खिलाफ सीबीआई की जांच चल रही है। तस्करी के इस लेनदेन से संबंधित एक डायरी सीबीआई के पास मौजूद है। इसमें रुपये के लेन-देन का पूरा ब्योरा मौजूद है और हर लेन-देन के नीचे राजा भैया की पत्नी के हस्ताक्षर हैं। इस दौरान समाजवादी पार्टी और राजा भैया के जुड़ाव से ही ठेकों, पट्टों और शराब आदि पर ठाकुर नेटवर्क का कब्जा हो गया था। सीबीआई से राजा भैया का नाता तभी से जुड़ा हुआ है जो कुंडा के क्षेत्राधिकारी जिया-उल-हक की मौत से और भी पक्का हो गया है।

इस बीच मायावती ने राजा भैया के खिलाफ जो कड़ाई बरती थी उससे सिर्फ दलितों में ही सशक्तीकरण का संदेश नहीं गया बल्कि इससे दशकों से प्रदेश की राजनीति में खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे ब्राह्मण समुदाय में भी एक तरह की खुशी का भाव था। मायावती ने इस भावना को ताड़ लिया था। उन्होंने इसके जवाब में सतीश मिश्रा को खड़ा किया औऱ जून, 2004 में अपना सर्वजन फॉर्मूला पेश कर दिया। सतीश मिश्रा को चेहरा बना कर उन्होंने पूरे प्रदेश में दलित-ब्राह्मण सम्मेलनों की झड़ी लगा दी। 2007 में मायावती पूर्ण बहुमत से सत्ता में वापस आईं जिसमें ब्राह्मण वोटों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। सत्ता में आने के बाद उन्होंने सबसे पहला काम किया ठाकुर नेटवर्क को छिन्न-भिन्न करने का। ब्राह्मणों की पूछ प्रदेश और सरकार में एक बार फिर से बढ़ गई थी।

इन दोनों पार्टियों की लड़ाई में 10-15 साल के दौरान ठाकुर क्रमश: सपा की ओर झुकते गए और जवाब में ब्राह्मण बसपा की ओर चले गए। यह प्रदेश की राजनीति का वह पक्ष है जो सपा के साथ राजा भैया की दांत-काटी रोटी जैसी दोस्ती की वजह है। मजबूरी की यह दोस्ती इतना आगे बढ़ चुकी है कि सपा चाहकर भी राजा भैया से रिश्ता तोड़ नहीं सकती। वरना ऐसा नहीं है कि प्रतापगढ़ में यह कोई पहली घटना हुई है। कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी द्वारा इस घटना के बाद चार मार्च को विधानसभा में दिए गए बयान के मुताबिक पिछले एक साल में प्रतापगढ़ में नौ प्रधान, बीटीसी और दूसरे जनप्रतिनिधियों की हत्या हो चुकी है। इससे भी ज्यादा सन्न करने वाली सच्चाई यह है कि इनमें से सात यादव थे। मतलब साफ है कि राजा भैया अखिलेश यादव की राजनीति की वह मजबूरी हैं जिसे ढोने के फायदे उनसे छुटकारा पाने के नुकसान से बहुत ज्यादा बड़े हैं।