चीन की सुपरपावर बनने की तैयारियां हर स्तर पर चल रही हैं। एक ओर जहां वह खुद को अत्याधुनिक सैनिक साजोसामान से लैस कर रहा है वहीं, अपनी आबादी में ज्यादा से ज्यादा इंटेलिजेंट लोगों को शामिल करने की कोशिश कर रहा है। पर यहां कोशिश दूसरे देशों से लोगों को अपने यहां माइग्रेट करवाने पर नहीं बल्कि जनेटिक इंजिनियरिंग के जरिए सबसे समझदार भ्रूण बनाने पर है। इस दिशा में काम छोटे-मोटे स्तर पर नहीं बल्कि राज्य स्तर पर हो रहा है।
पेइचिंग जिनोमिक्स इंस्टिट्यूट (बीजीआई) दुनिया का नामी जीनोम सीक्वेंसिंग सेंटर है। खबर है कि इसके वैज्ञानिक दुनिया के सबसे स्मार्ट माने जाने वाले 2000 लोगों के डीएनए सैंपल लेकर उनके जीनोम की सीक्वेंसिंग कर रहे हैं। मकसद है एलीलीज की पहचान करना जिनसे ह्यूमन इंटेलिजेंस का पता लगता है। वे इस मकसद से ज्यादा दूर भी नहीं हैं। जब वे इसे पा लेंगे तो, पैरंट्स को यह ऑप्शन दे सकेंगे कि वे अपने अविकसित भ्रूण में से उस भ्रूण का चुनाव कर सकें जो सबसे ज्यादा बुद्धिमान लगता हो। इस कोशिश से चीन की हर पीढ़ी की इंटेलिजेंस 5 से 15 आईक्यू पॉइंट्स तक बढ़ जाएगी। इससे कुछ ही पीढ़ियों बाद चीन की आबादी बहुत इंटेलिजेंट हो चुकी होगी।
बीजीआई के लिए डीएनए सैंपल देने वालों में न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी के ईवॉल्यूशनरी सायकॉलजिस्ट और प्रफेसर जियॉफ्री मिलर भी हैं। उनके मुताबिक, चीन में जब 70 के दशक में देंग जियोपिंग ने सत्ता संभाली तो तभी से चीनी सरकार का पूरा फोकस इकॉनमी को संभालने, लोगों की क्वॉलिटी और संख्या को मैनेज करने पर जम गया। 90 के दशक में ही वे बड़े पैमाने पर जन्म से पहले ही भ्रूण का टेस्ट करने लगे थे ताकि जान सकें कि कहीं उसमें कुछ डिफेक्ट तो नहीं है। हाल ही में उन्होंने ह्यूमन जनेटिक्स पर खूब पैसा लगाया है ताकि उन जींस का पता लग सके जो इंसान को स्मार्ट बनाते हैं।
प्रफेसर मिलर के मुताबिक, अगर जींस की पहचान कर ली जाती है तो कोई भी कपल लैब में कई एग फर्टिलाइज कर सकेगा। इसमें पिता के स्पर्म और मां के एग शामिल होंगे। इसके बाद कई भूण बनेंगे जिनकी टेस्टिंग के बाद पता लग जाएगा कि कौन सा सबसे स्मार्ट रहेगा। इस तरह चुना गया भ्रूण उसी तरह कपल का बच्चा बनेगा जिस तरह कि कुदरती बनता। असल में यह जनेटिक इंजिनियरिंग नहीं है, ना ही इसमें नए जींस जोड़े जा रहे हैं, ये तो वे जींस हैं जो कपल्स में पहले से मौजूद हैं। हालांकि इस तरह टेक्नॉलजी के इस्तेमाल से भ्रूण की स्क्रीनिंग में पांच से दस साल लग जाएंगे। इसी तकनीक से भ्रूण के शारीरिक बनावट को भी चुना जा सकेगा। फिर चाहे बालों या आंखों का रंग ही क्यों न हो।
इस तरह तकनीक का इस्तेमाल पश्चिमी देश भी जानते हैं तो उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया, इस सवाल पर प्रफेसर मिलर का कहना था कि पश्चिम में ऐसा नैतिक सोच के कारण नहीं किया जा सका है। वहां भ्रूण की इस तरह स्क्रीनिंग को ईश्वर के काम और कुदरत के साथ छेड़छाड़ माना जाता है। पर चीन में जनता से यही सवाल पूछा जाएगा तो 95 पर्सेंट ‘हां’ में जवाब देंगे। वे जनेटिक रूप से स्वस्थ्य, खुशहाल और तेज बच्चा चाहते हैं। यहीं पर सांस्कृतिक अंतर दिखाई देता है।