सट्टे के खेल की अनोखी डिक्‍शनरी: छिपकली के 6 और चबूतरे के 4

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satta satta mafiyaFARRUKHABAD : आजादी के  के बाद 60 सालो में देश और दुनिया में काफी परिवर्तन आये। मगर सट्टे के कारोबार में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया। न जाने कितने ही परिवार आर्थिक तंगी के शिकार हो गये, न जाने कितनों ने आत्महत्यायें कीं और न जाने कितने ही लोग आज भी शार्टकट के चक्कर में पड़े हैं। आज भी सट्टा पुलिस की यकजाई का महत्‍वपूर्ण भाग है। सटोरियों के बीच के कोडवर्ड और इशारे भी वही पुराने चले आ रहे हैं। आज भी छिपकली के छह और चबूतरे के चालीस ही गिने जाते हैं।

मतलब जनपद में चल रहे सट्टे के कारोबार से है|  सटोरियों की दिमागी कसरत पर अगर नजर डालें तो सट्टे का नम्बर फसाने के लिए जो दिमागी जाल सटोरियों द्वारा बुना जाता है वह देश के वित्तमंत्री के दिमाग को भी मात देने में काफी है। वित्तमंत्री तो बजट बनाने के लिए अपने अधीनस्थ सैकड़ों व हजारों कारिंदों की मदद लेते हैं और तब पास होता है देश की सवा सौ करोड़ आबादी का बजट। लेकिन सटोरिया जितना दिमाग लगाकर सट्टे का नम्बर फांसने का प्रयास करता है वह काबिले तारीफ है। जनपद में पनप रहे वर्षों पुराने सट्टे के कारोबार में न जाने कितने घरों के चूल्हे की आग ठंडी हो गयी लेकिन धन्धा अभी भी जारी है। पुलिस के संरक्षण का आरोप तो आम बात है कभी कभी इलाकाई नेता और पत्रकारों पर भी हाथ सने होने का आरोप लगता है|
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वैसे तो सट्टा आजादी से पहले से देश में चल रहा है। पहले मटका का नम्बर मुम्बई से निकलता था। लेकिन पुराने समय में संचार व्यवस्था न होने की बजह से सट्टे की खाईबाड़ी की जिम्मेदारी रखने वाले लोगों के लिए काफी सर दर्द था। जो व्यक्ति सट्टे का नम्बर लगा देता था उस नम्बर को सट्टा माफिया अपने सीनियर खाईबाड़ को स्थानांतरित करता था और कहीं अगर बम्बई तक उस नम्बर की सूचना नहीं पहुंच पायी तो और नम्बर फंस गया तो उस रकम को सट्टे की खाईबाड़ी करने वाले के द्वारा ही देय होती थी। ऐसे न जाने कितने मामलों में सट्टे की खाईबाड़ी करने वाले दिवालिया तक हो गये।

चौराहों पर, चाय की दुकान पर, पार्कों में, बस स्टेशन पर, अक्सर सट्टा के लिए नम्बर लगाने की जुगत करने वालों की कमी नहीं है। किस किस तरह से सट्टे का नम्बर फांसने में लोग अपना दिमाग लगाते हैं। जैसे सड़क पर अगर कोई मुर्दा जा रहा है तो उस दिन के ठीक चार दिन पहले आने वाले नम्बर को मुर्दा मान लिया जाता है। उसी के आने की संभावना बढ़ा दी जाती है तो वहीं आदमी पर अगर छिपकली गिर जाये तो आदमी को आठ और छिपकली को 6 मान लिया जाता है इस तरह से बनता है 46 और 68 नम्बर। सड़क पर अगर सांप निकल रहा है तो सड़क से सात और सांप से सात ऐसे में तैयार होता है सटोरियों का 77 नम्बर। नेवला अगर सड़क पर निकल गया तो सड़क के सात और नेवले के नौ नम्बर ऐसे बनता है 97 और 79 नम्बर। दो छिपकलियां एक साथ दिख जाये तो सटोरियों का बनता है 66 नम्बर, ऐसे ही न जाने किन किन तरीकों से सटोरिये अपना दिमाग छकाकर अपने मूल्यवान समय को सट्टा लगाने में निकाल देते हैं।

बाबा भी अजमाते हैं चेलों के साथ दावपेच
बाबाओं की भी सटोरियों द्वारा खूब आवभगत की जाती है। एक घटना के मुताबिक एक बाबा ने सटोरियों के कहने पर एक नम्बर बता दिया। सटोरी ने बाबा की बात पर भरोसा करके उस नम्बर को लगाया। कुदरत का करिश्मा कहें या हिन्दी भाषा में तुक्का, अचानक वह नम्बर फस गया। फिर क्या था, सटोरियों ने अगले दिन फिर बाबा को खोजना शुरू किया। अच्छे खासे रुपये भी बाबा को दक्षिणा में दिये गये। दूर दूर से सटोरिये उनके पास पहुंचने लगे, लेकिन बाबा को खूब पता था कि नम्बर उसके कहने पर नहीं उसके तुक्के से आया है। लेकिन सटोरियों ने उसका पीछा नहीं छोड़ा तो कई दिनों बाद बाबा ने पुनः एक चेले पर मेहरवानी की। चेले ने तकरीबन 40 हजार का नम्बर इस बावत लगा दिया कि स्वामी जी की बात कभी मिथ्या नहीं होती। लेकिन हर बार बिल्ली के भाग्य से दूध नहीं फैलता। दूसरे दिन वह नम्बर नहीं आया तो सटोरी चेलों ने बाबा की जमकर पिटायी भी कर दी। बमुस्किल मामला रफा दफा हो सका।

सन 1964-65 में आयी राजकपूर की मिल्म श्री 420 में भी सट्टे को प्रमुखता से दर्शाया गया था। जिसमें देखते ही देखते अभिनेता जीरो से हीरो बन जाता है। लेकिन असल जिंदगी में ऐसा नहीं है।

शहर में स्टेट बैंक के निकट सटोरियों का अखबार बिकता है, जिसमें सट्टे के एक सप्ताह तक पुराने नम्बरों का लेखा जोखा दिया होता है। जिसके आधार पर सटोरिये अपना गणित लगाते हैं। पुराने सटोरियों के पास तो वर्षों पुराना लेखा जोखा होता है। जिसके माध्यम से वर्ष, दिन, तारीख और समय सब कुछ लिखकर रखा जाता है। पिछले वर्ष में इस दिन और इस तरीख को कौन सा नम्बर आया था, उस पर मनन मंथन चलता है। पुराने सटोरियों के पास लोकल के सट्टा खाईबाड़ी करने वालों के साथ-साथ दिल्ली तक के कारोबारियों के नम्बर होते हैं। जिससे सट्टे की खाईबाड़ी करने वाला नम्बर आने के बाद बेईमानी नहीं कर सकता।

कहां से आते हैं सट्टे के नम्बर
दिल्ली में तीन जगह से सट्टे का कारोबार संचालित किया जाता है। जिसमें एक तो दिल्ली के नाम से, दूसरा सरदार गली के नाम से और तीसरा सिर्फ गली के नाम से निकलता है। दिल्ली का नम्बर शाम को लगने के बाद प्रातः 6 बजे खोला जाता है तो वहीं सरदार गली शाम साढ़े आठ बजे और गली शाम तकरीबन साढ़े 9 बजे नम्बर खोलती है। सटोरियों के इन अलग अलग जगहों के सट्टे लगाने के लिए भी निशान होते हैं। क्योंकि अक्सर सटोरिये भी पढ़े लिखे नहीं होते। लेकिन इसके बावजूद भी उनका गणितीय ज्ञान चाणक्य को भी फेल कर देता है।

लाल रंग की पर्ची गली के नम्बर को दर्शाती है। सफेद रंग की पर्ची दिल्ली के नम्बर को और पीली पर्ची सरदार गली के नम्बर की पुष्टि करती है। पैसे की बात करें तो एक रुपये का नम्बर आने पर सट्टा लगाने वाले को 80 रुपये मिलते हैं। इस हिसाब से 10 रुपये का सट्टा लगाने पर 800 रुपये मिल जाते हैं। 10 हजार पर आठ लाख रुपये मिलते हैं। सूत्रों के मुताबिक जनपद में एक लाख तक की सट्टे के नम्बर फसने के बाद भुगतान करने की व्यवस्था बतायी गयी है। इससे अधिक का नम्बर फसने पर चार दिन तक का समय भुगतान लेने में लग जाता है।

पुराने सट्टा लगाने वाले व्यक्तियों से बात की गयी तो उन्होंने इस धन्धे की हकीकत वयां करते हुए कहा कि अगर इस धंधे की तह में जायें तो शायद ही कोई इस काम में पैसे वाला बना हो। पैसे वाला बनता है तो सिर्फ खाईबाड़ी करने वाला। उस व्यक्ति ने कई उदाहरण ऐसे दिये जिसमें लोगों ने लाखों की संख्या में रुपेये सट्टा कारोबार में लगा दिये और आज भुखमरी के कगार पर आ गये हैं। सामाजिक या वरिष्ठ लोगों की मानें तो अगर यही व्यक्ति अपना यह दिमाग किसी धन्धे और सामाजिक कार्य में लगा दे ंतो न जाने कितने नौजवान आज कामयाबी की बुलंदी पर पहुंचें। लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। इस दलदल भरे कारोबार में कूदने के बाद आदमी के अंदर पैदा होता है लालच और लालच के साथ ही शुरू हो जाता है उस व्यक्ति के दलदल में धंसने का सिलसिला और जब तक होश आता है तब तक गर्दन तक आदमी डूब चुका होता है। हाथ में लगती है तो सिर्फ लाचारी और बेबसी। आर्थिक तंगी में या तो आदमी खुदकशी करता है और या परिवार का साथ छोड़कर ही चला जाता है। फिलहाल जनपद में सट्टे का कारोबार वर्षों से जमा है। काफी प्रयास के बाद भी इस कारोबार पर शिकंजा कसने में खाकी नाकाम साबित हो रही है।