घर में कब्र, बगल में बिस्तर

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इटावा। जिंदा रहे तो अभाव से आहत रही जिंदगी, मर कर भी न मिला सुकूं। तकिया नाम से आबाद मुस्लिम बस्ती में जब किसी शख्स की मौत होती है तो उसके शव को दफनाने का संकट खड़ा हो जाता है। गम में डूबी बस्ती के लिए सिपुर्द ए खाक की रस्म निभाना बड़ी चुनौती बन गई है। रस्म तो निभानी ही है। सो, घर के आंगन और कमरे में कब्रें बना दी गई। नौबत कब्र के बगल में जागने से लेकर सोने तक की है।

बस्ती में मुस्लिमों के करीब 150 परिवार निवास करते हैं। अमूमन हर घर में एक कब्र बनी है। 10 बाई 15 और 10 बाई 20 के आसपास जगह वाले घरों में दो से तीन परिवार रहते हैं। ऐसे में घर के आंगन, गुसलखाने या कमरे में कब्र हो तो गुजर-बसर और मुश्किल हो जाती है। कब्र कोई लांघे नहीं, इसलिए खास सतर्कता बरतनी पड़ती है। बच्चे के शव को दरवाजे के पास ही दफनाया जाता है क्योंकि उसकी कब्र कम जगह घेरती है।

कस्बा जब बसा तब नत्थू खां और दिल्ली खां नाम के दो भाइयों का परिवार यहां था। औलादें हुई और परिवारों की संख्या बढ़ने के साथ आबादी बढ़ी तो बस्ती इतनी घनी हो गई शव दफनाने को जगह कम पड़ने लगी। शुरुआत में तो बस्ती के आसपास कब्रें बनीं। बाद में घर में ही कब्र खोदी जाने लगी। जब घरों में जगह नहीं बची तो रास्तों में दफनाने लगे। झोपड़ी में बनी कब्रें बरसात में नई मुसीबतें बनतीं तो सर्दियों में घर के लोग कब्र के बगल में बिस्तर लगाते हैं।

दरअसल यह संकट इसलिए खड़ा हो गया है क्योंकि मुस्लिम बस्ती को कब्रिस्तान मुहैया नहीं हो सका है। सुशीला बेगम कहती हैं कि बसपा सरकार के बाद सपा सरकार भी कब्रिस्तानों की बाउंड्रीवाल आदि के लिए बजट दे रही है। किंतु यहां कब्रिस्तान के लिए कई नेताओं और अधिकारियों से फरियाद के बावजूद सुनवाई नहीं हुई।

अब कब्रिस्तान बस्ती के नाम से पहचान पाने वाले इस इलाके से सटे बीहड़ में सैकड़ों एकड़ जमीन खाली है। लेकिन यह जमीन सेंच्युरी व वन विभाग की है। इस पर शव नहीं दफनाने दिए जाते।

काजिम खां, सज्जाक अली, नत्थू अली, आलम खां, मुख्ति्यार अली, पप्पू अली कहते हैं कि कब्रिस्तान के लिए इतनी भी जगह मयस्सर नहीं हो पा रही कि मरने के बाद अपनों को दफनाने की रस्म भी निभा सकें। अब तो ऐसा लगता है कि निकट भविष्य में शव दफनाने को आपस ही मारा मारी के हालात न बन जाएं। कोई अपनी जगह में शव को दफन नहीं करने देता।