देश में ठग और मूर्ख बढ़ रहे हैं!

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जबसे नेताओं में विश्वास घटा है, बाबाओं में बढ़ा है| वे सपने दिखाते हैं| फटाफट धनवान हुआ जाये, यह रोग फैल चुका है| इसमें वर्तमान का नहीं, तत्काल और क्षण का महत्व है|
एक समाज की पहचान इससे होती है कि वह मिथ, अंधविश्वास, रूढ़ियों-कर्मकांडों को महत्व देता है या तर्क, सोच-विचार और बुद्धि-विवेक को| वहां ज्ञान है या अज्ञान! वह अतीतजीवी है या भविष्योन्मुख! समाज में कई प्रकार की शक्तियां, विचारदृष्टियां एक साथ कार्य करती हैं|

इनमें टकराहटों और मुठभेड़ों का होना वाजिब है| ये शक्तियां प्रगतिशील और यथास्थितिवादी होती हैं| सामाजिक ढांचे को निर्मित करने, उसे बदलने में इन शक्तियों की बड़ी भूमिका होती है. जिस समाज में बुद्धिमान, तार्किक, कर्मठ, विचारवान, ज्ञानी व्यक्तियों का महत्व नहीं होता, वह समाज भीतर से खोखला होता चला जाता है, जिसे समय पर न पहचानने से संकट उत्पन्न होता है. और सामाजिक संकट के साथ अनेक संकट जुड़े होते हैं|

जस्टिस मरकडेय काटजू के इस कथन से किसी को भी असहमति-आपत्ति हो सकती है कि 90 प्रतिशत भारतीय मूर्ख हैं, पर यह समझना गलत होगा कि हमारे देश में मूर्खो की संख्या कम है| क्या यह सच नहीं है कि भारत में ठग और मूर्ख बढ़ रहे हैं और यह देश ठगों-मूर्खो का बन रहा है?

क्या हम सब अंधविश्वासी, संप्रदायवादी और जातिवादी नहीं हैं? काटजू ने मूर्खता को अंधविश्वास, संप्रदायवाद और जातिवाद से जोड़ा है| ठग और मूर्ख पहले भी थे| पर, बड़ी तेजी से इनकी संख्या विशेषत: पिछले दो दशकों (नयी आर्थिक नीति के बाद) में बढ़ी है| लोहा-चिमनी का धंधा करनेवाला निर्मलजीत सिंह नरूला जिस तरह निर्मल बाबा बन कर अरबों की संपत्ति का मालिक बनता है, वह गहरे समाजशास्त्रीय अध्ययन-चिंतन का विषय है|

आज साधुओं, महात्माओं के लिए धर्म और अध्यात्म एक धंधा है| राजनीति भी एक धंधा है| राजनीति के धंधा बनने के बाद ही धंधेबाजों का युग आया| राजनीति का स्वास्थ्य उसकी दृष्टि और क्रियाकलाप से जुड़ा है| गोदान में खन्ना ने राय साहब अमरपाल सिंह को व्यापार के संबंध में बताया था-बिजनेस|

इस बिजनेस को 1936 में ही प्रेमचंद ने अपने निबंध ‘महाजनी सभ्यता’ में अच्छे ढंग से स्पष्ट किया था| तब बैंक-पूंजी प्रमुख थी| आज वित्तीय पूंजी, जिसे आवारा पूंजी कहना चाहिए, का वर्चस्व है. आज समागम धनागम के लिए है|

ठग पहले भी थे| तब वे कम थे और आसानी से उनकी पहचान, बाद में सही, कर ली जाती थी| पर आज की तरह उनकी जमात नहीं थी| ठग-विद्या अब पहले की तरह नहीं है| उसका रूप-स्वरूप बदल चुका है| पहले ये इक्के-दुक्के थे| आज जिधर देखिए, ये रूप बदल कर मौजूद हैं| दूसरे को ठगने से ठग को आर्थिक फायदा पहुंचता है|

पहले समाज में अर्थ की अधिक प्रमुखता नहीं थी| पुरुषार्थ में पहला स्थान धर्म का था. राजनीति ने धर्म को विकृत किया, उसके चेहरे पर कालिख पोत दी, उसे राजनीतिक लाभ-सत्ता लाभ से जोड़ा, उसे हथियार बनाया, संप्रदायवाद को बढ़ावा दिया| यह सब तभी संभव है, जब हमें विचारशून्य और विवेकहीन किया जाये|

यह सब एक प्रक्रिया के तहत होता है, जिसमें शिक्षा, शिक्षण संस्थाओं की अधिक भूमिका होती है| शिक्षा का अंधविश्वास, संप्रदायवाद और जातिवाद से कितना संबंध है? आज शिक्षण संस्थाओं में इसे दूर करने के क्या सचमुच उपाय किये जा रहे हैं? ठग झूठ के साथ होता है| झूठ बोल कर ठगना ठगों का पेशा है|

भारतीय समाज में झूठ और सच में कौन प्रमुख है, यह कहने की आवश्यकता नहीं है| ठग के लिए दूसरा व्यक्ति महत्वपूर्ण है, पर मूर्ख के लिए दूसरा व्यक्ति गौण है| एक मूर्ख दूसरे को मूर्ख नहीं बना सकता, पर एक ठग दूसरे को ठग बना सकता है| ठगी से जहां फायदा है, वहीं मूर्खता से नुकसान|

ठग प्रत्येक समाज में है-विकसित और अविकसित, यूरोपीय और गैर यूरोपीय, उन्नत और पिछड़े समाज में. ठगों की कई कोटियां हैं| सामान्य तौर पर ठग या तो बड़े होते हैं या छोटे| सामान्य जीवन में हम सब छोटे ठगों का शिकार बनते हैं, जो गांव-कस्बों से लेकर छोटे शहरों में होते हैं. बड़े ठग राजधानी में निवास करते हैं|

आर्थिक विकास को एकमात्र विकास मानने वाले, सकल घरेलू उत्पाद को सबकुछ मानने वालों के यहां बौद्धिक-वैचारिक विकास का अर्थ नहीं है| जिस देश में अर्थशास्त्री सर्वप्रमुख हो, वह देश नीति-शास्त्र और आचार-शास्त्र में पीछे छूट जाता है|

ठगों और मूर्खो की संस्था में वृद्धि प्रमुखत: एक सामाजिक प्रश्न है| समाज को चालित-प्रभावित करनेवाली प्रमुख शक्ति राजनीति है और उसके पीछे अर्थनीति है| विचारणीय यह है कि एक विशेष अर्थनीति और राजनीति के दौर में ठग और मूर्ख बढ़े हैं या नहीं? संस्थाओं में मूर्ख कम, ठग अधिक हैं|

ये जन्मजात नहीं होते| एक विशेष समाजार्थिक संरचना में वे बनते-बढ़ते हैं| ठग बनते हैं और मूर्ख होते हैं और बनाये भी जाते हैं| हमें अंधविश्वासी, संप्रदायवादी और जातिवादी बनाये रखने से किसे लाभ पहुंचता है? इक्कीसवीं सदी के भारत का प्रमुख प्रश्न क्या इन तीनों की समाप्ति नहीं होना चाहिए? क्या यह एक दुखद और चिंताजनक स्थिति नहीं है? क्या आवारा पूंजी का अंधविश्वास संप्रदायवाद और जातिवाद से संबंध नहीं है?