फर्रुखाबाद: सलमान कहते है कि चुनाव संगठन से नहीं प्रत्याशी की ब्रांड इमेज और काम से जीते जाते है| बमुश्किल 14 लोगो की मदद से चुनावी माहौल गरमाने और पूरा प्रचार करके चुनावी नैया पार लगाने के गुण कांग्रेस के प्रत्याशी सलमान खुर्शीद से सीखा जा सकता है| जिला कांग्रेस कमेटी से लेकर नगर कमेटी को मालूम नहीं रहता कि सलमान खुर्शीद कहा है और उनके प्रोग्राम कहाँ कहाँ है और सलमान खुर्शीद चुनाव प्रचार कर रहे होते है| जेएनआई से बातचीत में कांग्रेस के जिला और नगर दोनों संगठनो के नेता आजकल कपडे फाड़ रहे है और नेताजी प्रचार में मग्न है| वैसे भूलना नहीं चाहिए कि ऐसी परिस्थितयो के बाबजूद सलमान खुर्शीद आज तक दो चुनाव जीते भी है|
[bannergarden id=”8″]
सलमान के उदय के साथ साथ ही फर्रुखाबाद में कांग्रेस का संगठन सीमित होने लगा था| कांग्रेसी सूत्रो के अनुसार लुइस खुर्शीद की सिफारिश पर पद बटने लगे और मनोनयन होने लगा| जिलाध्यक्ष की हैसियत सलमान और लुइस खुर्शीद के यस मैन से ज्यादा नहीं हो पाई| संगठन बढ़ा तो कुछ बुलबुले फूटे मगर समुद्र की लहरो में खो गए| सलमान खुर्शीद के जो फर्रुखाबाद में दोस्त है वही कांग्रेस का संगठन है| उजैर खान से कहानी शुरू होकर अनिल मिश्रा तक आते आते इतिश्री हो जाती है| जो पार्टियां और नेता ये मानते है कि चुनाव जीतने के लिए कैडर की जरुरत होती है उनके लिए सीखने की जरुरत है सलमान खुर्शीद से| नेता की इमेज और उसका व्यक्तित्व अगर ठीक ठाक हो तो न कैडर की जरुरत होती है और न ही संगठन की| जनता तक बात पहुची तो मतदान के लिए फैसला उसे करना है| यह भी कह सकते है कि संगठन और कैडर की जरुरत उस नेता को होती है जो अपनी छवि और कर्मो को लेकर खुद आश्वत न हो| कैडर और संगठन नेताजी की इमेज मेकिंग (मेकअप) के लिए काम करता है और मतदाताओ को बांधने का काम करता है|
[bannergarden id=”11″]
वर्त्तमान में लोकसभा चुनाव का दौर चल रहा है| संगठन के नाम पर सबसे बड़ा कैडर बसपा के पास है और दूसरे नंबर पर भाजपा है| इसके बाद सपा का संगठन है| संगठन के मामले में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी काफी पीछे है| मगर देश भर में आज गाव गाव हो रही चुनावी चर्चाओ में मोदी और केजरीवाल आमने सामने है| फर्रुखाबाद की ही बात करे तो अस्त होते संगठन के बाबजूद चुनावी चर्चाओ में भाजपा के बड़े संगठन के बाबजूद कांग्रेस किसी भी इलाके में कहीं कम चर्चा में नहीं है| अन्य प्रत्याशी अभी अपनी सफाई में ही लिप्त है| बसपा अभी तक खुद को “बाहरी नहीं होने का” तो सपा प्रत्याशी खुद को बेदाग़ और भला साबित करने में ही उलझे हुए है| आम आदमी पार्टी भी इसी दंश का शिकार है| मजबूत मुद्दे और देश में सर्वाधिक चर्चाओ के बाबजूद बाहरी प्रत्याशी होने के साथ साथ “आप” के कंडीडेट को कमजोर प्रत्याशी के रूप आँका जा रहा है| कुल मिलाकर तकनीक, अत्याधुनिक मीडिया और मोबाइल के दौर में संगठन होने या न होने से लोकसभा जैसे चुनाव की जंग में कोई फर्क नहीं पड़ता|
कभी भाजपा और उनके अनुषांगिक संगठन का काम अपवाहो को फैलाना या पार्टी/ संगठन की बात जनता तक घर घर पहुचाना होता था| वो काम आजकल ट्विटर और फेसबुक के साथ वेबमीडिया और मोबाइल कर रहा है| मतदान वाले दिन बस्ते लगाने और मतदाताओ को घर से निकालने का काम भी पार्टी संगठन और कार्यकर्ता किया करते थे| ये काम आजकल चुनाव आयोग कर देता है| हर मतदाता को वोट डालने के लिए पर्ची उसके घर घर भिजवाई जाती है| वोटरो को मतदान करने के लिए चुनाव आयोग स्वयं प्रेरित कर रहा है| फिर संगठन की जरुरत क्या सिर्फ शराब बाटने, गावो में जबर्दस्ती जनता को इक्ट्ठा करके सभाए करने या फिर प्रत्याशी के मेकअप के लिए रह गयी है| सबक ये कि चुनाव बिना संगठन के भी लड़ा और जीता जा सकता है बस अगर चरित्र में खामिया कम हो और मुद्दे जनहित के वास्तव में हो|