संसद में सोमवार को गोरखपुर से भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ ने कहा कि मुलायम सिंह यादव खुद सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, दो भाई पार्टी के महासचिव और बेटा प्रदेश अध्यक्ष है। यह समाजवाद है या परिवारवाद? योगी के इस सवाल ने भारतीय राजनीति में परिवारवाद के मुद्दे को एक बार फिर से गरम कर दिया है। भारत की राजनीति में परिवारवाद का बोलबाला अब काफी बढ़ गया है। शायद ही कोई पॉलिटिकल पार्टी ऐसी हो, जिसमें परिवारवाद और वंशवाद की बेल दिखाई नहीं पड़ती हो।
कांग्रेस से लेकर तमाम क्षेत्रीय दलों में परिवारवाद की जड़ें काफी मजबूत हो गई हैं। काडर आधारित दलों जैसे कम्युनिस्ट पार्टियों और भाजपा में परिवारवाद भले न दिखाई पड़े, पर दक्षिण की क्षेत्रीय पार्टियां हों या उत्तर भारत के अनेकानेक दल, सभी में परिवारवाद और वंशवाद मजबूत होता चला गया है।
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परिवारवाद को लोकतंत्र के लिए कभी अच्छा नहीं समझा गया, लेकिन तथ्य यह है कि कांग्रेस में ही इस प्रवृत्ति की शुरुआत हुई और धीरे-धीरे यह संक्रामक हो गई। कांग्रेस के अलावा यह प्रवृत्ति समाजवादी कहे जाने वाले नेताओं और पार्टियों में भी दिखलाई पड़ती है। लालू हों या मुलायम या रामविलास पासवान, कोई भी राजनीति में कोई भी परिवारवाद और वंशवाद को आगे बढ़ाने के मोह से बच नहीं पाए।
देश के सबसे बड़े राज्य और केंद्र में सरकार बनाने की चाबी अपने पास रखने का दावा करने वाले यूपी में सत्तानशीं समाजवादी पार्टी में परिवारवाद काफी मजबूत होकर उभरा है। आज यूपी की कमान सपा प्रमुख मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश के हाथों में है। सिर्फ अखिलेश ही नहीं, मुलायम के परिवार की तीसरी पीढ़ी का भी अब राजनीति में दखल हो चुका है। यही नहीं, मुलायम परिवार की महिलाएं भी राजनीति में आगे बढ़ रही हैं।
देश के इस सबसे बड़े राजनीतिक कुनबे से कुल 13 लोग क्रमश: मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, डिंपल यादव, शिवपाल यादव, राम गोपाल यादव, अंशुल यादव, प्रेमलता यादव, अरविंद यादव, तेज प्रताप सिंह यादव, सरला यादव, अंकुर यादव, धर्मेंद्र यादव और अक्षय यादव राजनीतिक धरातल पर जोर-आजमाइश कर रहे हैं।
मुलायम सिंह यादव
राजनीति में परिवारवाद को बढ़ावा देने की शुरुआत वैसे तो पं. जवाहरलाल नेहरू ने ही कर दी थी, पर लोहिया के चेले कहे जाने वाले मुलायम सिंह ने इसे खूब आगे बढ़ाया। पिछले कुछ वर्षों में जब भी देश में तीसरे मोर्चे की चर्चा होती है, मुलायम सिंह यादव का नाम सबसे पहले लिया जाता है। पेशे से शिक्षक रहे मुलायम सिंह यादव के लिए शिक्षा के क्षेत्र ने राजनीतिक द्वार भी खोले।
मुलायम सिंह यादव का जन्म उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के सैफई में 22 नवम्बर, 1939 को हुआ था। इनके पिता का नाम सुघर सिंह और माता का नाम मूर्ति देवी है। पांच भाइयों में तीसरे नंबर के मुलायम सिंह के दो विवाह हुए हैं। पहली शादी मालती देवी के साथ हुई। उनके निधन के पश्चात उन्होंने सुमन गुप्ता से विवाह किया। अखिलेश यादव मालती देवी के पुत्र हैं, जबकि मुलायम सिंह यादव के छोटे बेटे प्रतीक यादव को उनकी दूसरी पत्नी सुमन ने जन्म दिया है। वर्ष 1954 में पंद्रह साल की किशोरावस्था में ही मुलायम के राजनीतिक तेवर उस वक़्त देखने को मिले, जब उन्होंने डॉ. राम मनोहर लोहिया के आह्वान पर ‘नहर रेट आंदोलन’ में भाग लिया और पहली बार जेल गए।
डॉ. लोहिया ने फर्रुखाबाद में बढ़े हुए नहर रेट के विरुद्ध आंदोलन किया था और जनता से बढ़े हुए टैक्स न चुकाने की अपील की थी। इस आंदोलन में हजारों सत्याग्रही गिरफ्तार हुए। इनमें मुलायम सिंह यादव भी शामिल थे। इसके बाद वे 28 वर्ष की आयु में 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर पहली बार जसवंत नगर क्षेत्र से विधानसभा सदस्य चुने गये। इसके बाद तो वे 1974, 77, 1985, 89, 1991, 93, 96 और 2004 और 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा सदस्य चुने गए। इस बीच वे 1982 से 1985 तक उत्तर प्रदेश विधान परिषद् के सदस्य और नेता विरोधी दल रहे। पहली बार 1977-78 में राम नरेश यादव और बनारसी दास के मुख्यमंत्रित्व काल में सहकारिता एवं पशुपालन मंत्री बनाए गए। इसके बाद से ही वे करीबी लोगों के बीच मंत्री जी के नाम से जाने जाने लगे।
मुलायम सिंह यादव पहली बार 5 दिसंबर, 1989 को 53 वर्ष की उम्र में भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। लेकिन बीजेपी की रामजन्मभूमि यात्रा के दौरान उनके और भारतीय जनता पार्टी के संबंधों में दरार पैदा हो गई। इसका कारण था मुलायम सिंह यादव द्वारा आडवाणी की इस यात्रा को सांप्रदायिक करार दिया जाना और इसे अयोध्या नहीं पहुंचने देने की जिद पर अड़ जाना। 2 नवंबर, 1990 को अयोध्या में बेकाबू हो गए कारसेवकों पर यूपी पुलिस को गोली चलने का आदेश देकर मुलायम विवादों में आ गए। इस फायरिंग में कई कारसेवक मारे गए थे। हालांकि, अभी हाल में ही उन्होंने अपने इस फैसले पर अफ़सोस भी जताया है।
मुलायम सिंह यादव 1989 से 1991 तक, 1993 से 1995 तक और साल 2003 से 2007 तक तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे चुके हैं। वर्ष 2013 में एक बार फिर जब उनके मुख्यमंत्री बनने का मौका आया तो वे केंद्र सरकार में अपना महत्वपूर्ण रोल देख रहे थे और इसी वजह से उन्होंने अपने बेटे अखिलेश यादव के हाथों में उत्तर प्रदेश की कमान सौंप दी। वैसे, मुलायम 1996 से ही केंद्र की राजनीति में सक्रिय हो गए थे और उन्होंने अपनी महत्ता भी अन्य राजनैतिक पार्टियों को समझा दी थी। मुलायम सिंह यादव 1996, 1998, 1999, 2004 और 2009 में लोकसभा के सदस्य चुने गये।
मुलायम को 1977-78 में जब पहली बार मंत्री बनाया गया तो उन्होंने एक क्रन्तिकारी कदम उठाया था। इससे न केवल प्रदेश को फायदा हुआ, बल्कि समाजवादी पार्टी में परिवारवाद की नींव भी उसी समय पड़ी। बतौर उत्तर प्रदेश के सहकारिता एवं पशुपालन मंत्री मुलायम सिंह यादव ने पहले किसानों को एक लाख क्विंटल और उसके दूसरे साल 2।60 लाख क्विंटल बीज बंटवाए। उनके इसी कार्यकाल में उत्तर प्रदेश में डेयरी उत्पादन बढ़ा। मुलायम ने समाजवाद के साथ जो शुरुआत की, वह आगे चलकर परिवारवाद को बढ़ावा देने का कारण बना। मुलायम के इस सहकारिता आंदोलन के चलते उनके सबसे छोटे भाई शिवपाल को राजनीति में आने का रास्ता मिला।
सहकारी क्षेत्र में अपनी पैठ बनाते हुए 1988 में शिवपाल पहली बार इटावा के जिला सहकारी बैंक के अध्यक्ष चुने गए। 13 वर्षों तक सहकारी बैंक का अध्यक्ष रहने के बाद 1991 में दो वर्षों के लिए यह पद शिवपाल से दूर रहा और वह दोबारा 1993 में सहकारी बैंक के अध्यक्ष बने। शिवपाल पिछले 20 वर्षों से इस पद पर बने हुए हैं। शिवपाल की पत्नी सरला भी 2013 में जिला सहकारी बैंक की राज्य प्रतिनिधि के रूप में लगातार दूसरी बार चुनी गई हैं। यही नहीं शिवपाल के बेटे आदित्य यादव उर्फ अंकुर को भी उत्तर प्रदेश प्रादेशिक को-ऑपरेटिव फेडरेशन का निर्विरोध अध्यक्ष चुना गया है।
मुलायम के सिर पर वर्ष 1992 में एक और सेहरा बंधा जब 5 नवम्बर, 1992 को लखनऊ में समाजवादी पार्टी की स्थापना की गई। भारत के राजनैतिक इतिहास में यह एक महत्वपूर्ण अध्याय था, क्योंकि लगभग डेढ़-दो दशकों से हाशिये पर जा चुके समाजवादी आंदोलन को मुलायम ने पुनर्जीवित किया था। इसके अगले वर्ष ही 1993 में हुए विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी का गठबंधन बीएसपी से हुआ। हालांकि, इस गठजोड़ को पूर्ण बहुमत नहीं मिला, लेकिन जनता दल और कांग्रेस के समर्थन से उन्होंने दोबारा मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
इस बार उत्तराखंड के निर्माण को लेकर भी उन्हें कई विवादों का सामना करना पड़ा। अलग राज्य की मांग कर रहे आंदोलनकारी 1 अक्टूबर, 1994 को दिल्ली में धरना-प्रदर्शन के लिए जा रहे थे, उस दौरान यूपी पुलिस ने मुज़फ्फरनगर जिले के रामपुर तिराहे के पास आंदोलनकारियों पर गोली चला दी। इसमें आंदोलनकारियों की मौत हो गई। साथ ही, पुलिस पर कुछ महिलाओं के साथ छेड़खानी और बलात्कार के आरोप भी लगे। इससे पूर्व मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश लोकदल और उत्तर प्रदेश जनता दल के अध्यक्ष भी रहे। मुलायम सिंह यादव 1996 से 1998 तक एचडी देवेगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल की सरकारों में भारत के रक्षामंत्री के पद पर भी रहे।
कुछ अनछुए पहलू…
मशहूर पत्रकार स्वर्गीय अलोक तोमर ने अपने संस्मरण में लगभग 42 वर्ष पुरानी घटना का जिक्र करते हुए एक जगह लिखा है, “उन दिनों बलरई में सहकारी बैंक खुला। ये चालीस साल पुरानी बात है। मास्टर मुलायम सिंह चुनाव में खड़े हुए और इलाके के बहुत सारे अध्यापकों और छात्रों के माता-पिताओं को पांच-पांच रुपए में सदस्य बना कर चुनाव भी जीत गए। उनके साथ बैंक के निदेशक पद का चुनाव मेरे स्वर्गीय ताऊ जी ठाकुर ज्ञान सिंह भी जीते थे। चुनाव के बाद जो जलसा हो रहा था, उसमें गोली चल गई। मुलायम सिंह यादव और मेरे ताऊ जी बात कर रहे थे और छोटे कद के थे। गोली चलाई तो मुलायम सिंह पर गई थी, मगर पीछे खड़े एक लंबे आदमी को लगी जो वहीं ढेर हो गया।”
इसी तरह एक और दिलचस्प किस्सा मुलायम सिंह यादव के बारे में सुनने को मिलता है कि वर्ष 1960 में मैनपुरी के करहल स्थित जैन इंटर कॉलेज में एक कवि सम्मेलन चल रहा था। जैसे ही उस समय के विख्यात कवि दामोदर स्वरूप ‘विद्रोही’ ने अपनी चर्चित रचना ‘दिल्ली की गद्दी सावधान’ सुनानी शुरू की, एक पुलिस इंस्पेक्टर ने उनसे माइक छीन कर कहा कि सरकार के खिलाफ कविताएं पढना बंद करो। इसी बीच उसी समय एक लड़का बड़ी फुर्ती से मंच पर चढ़ा और उसने इंस्पेक्टर को मंच पर ही उठाकर पटक दिया। बाद में लोगों ने पूछा कि ये यह साहसी नौजवान कौन था तो पता चला कि वह मुलायम सिंह यादव हैं। बाद में जब मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री बने तो उन्होंने दामोदर स्वरूप ‘विद्रोही’ को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का साहित्य भूषण सम्मान से नवाजा।
मुलायम सिंह कब किससे नाराज हो जाएं और कब किसे समर्थन दे बैठें, शायद उन्हें भी इसका अंदाजा नहीं रहता। पिछले राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने यूपीए समर्थित उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को समर्थन देने का वादा किया, लेकिन वोटिंग के समय उन्होंने उनके विरोधी पीए संगमा के नाम के आगे निशान लगा दिया। इसके चलते उनका मत रद्द हो गया। राजनीतिक जानकार कहते हैं कि इससे मुलायम सिंह यादव ने दोनों पक्षों को साध लिया|
अखिलेश यादव
पिछले साल हुए उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में एक अंडरकरंट चल रही थी, जिसे बड़े-बड़े प्रकांड राजनीतिज्ञ भी नहीं समझ सके। जब चुनाव परिणाम घोषित हुए, तब कहीं जाकर लोगों को इस अंडरकरंट का अंदाजा लगा। उस वक़्त मीडिया ने भी कांग्रेस के युवराज की जनसभाओं में जुट रही भीड़ पर अपना ध्यान केंद्रित कर रखा था। लेकिन एक शख्स चुपचाप पूरे प्रदेश में साइकिल यात्रा और रथयात्रा के जरिये लोगों को अपने से जोड़ रहा था।
चुनाव परिणाम घोषित हुए और तेजी से बदलते घटनाक्रम में इस युवा को प्रदेश के मुख्यमंत्री के का ताज पहना दिया गया। अखिलेश यादव 15 मार्च, 2012 को उत्तर प्रदेश के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बने। उनके मुख्यमंत्री बनने के वक़्त एक उनके विरोधियों और छिपी चुनौतियों की एक अलग धारा बह रही थी, जिसे समझने में खुद अखिलेश नाकाम रहे। नतीजा आज प्रदेश में हो रही उथल-पुथल के रूप में सामने है।
समाजवादी पार्टी के जनक मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश यादव का जन्म 1 जुलाई, 1973 को इटावा जिले के सैफई में हुआ था। मां मालती देवी का बचपन में ही देहांत हो गया था। अखिलेश ने प्राथमिक शिक्षा इटावा के सेंट मेरी स्कूल में पूरी की। आगे की पढाई के लिए उन्हें राजस्थान में धौलपुर स्थित सैनिक स्कूल भेजा गया। वहां से 12वीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद अखिलेश ने मैसूर के एसजे कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग की डिग्री ली।
इसके बाद वे एनवायरनमेंटल इंजीनियरिंग में मास्टर्स करने ऑस्ट्रेलिया चले गए। सिडनी यूनिवर्सिटी से पढ़ाई खत्म करने के बाद अखिलेश वापस आकर अपने पिता मुलायम सिंह यादव के साथ राजनीति में जुड़ गये। अखिलेश की शादी डिंपल यादव से 24 नवम्बर, 1999 को हुई। आज उनके तीन बच्चे अदिति, अर्जुन और टीना हैं। इनमें अर्जुन और टीना जुड़वां भाई-बहन हैं।
लोकसभा की वेबसाइट के अनुसार, अखिलेश ने अपने आपको राजनीतिज्ञ के अलावा किसान, इंजीनियर और समाजसेवी बताया है। अखिलेश वर्ष 2000 में 27 वर्ष की आयु में पहली बार लोकसभा के सदस्य बने थे। उनके पिता मुलायम सिंह यादव ने उस समय कन्नौज और मैनपुरी दोनों जगहों से लोकसभा का चुनाव लड़ा था और दोनों ही जगहों से विजयी भी रहे थे। बाद में मुलायम सिंह ने कन्नौज की सीट खाली कर दी और उपचुनाव में वहां से अखिलेश को टिकट दिया गया।
अखिलेश कन्नौज से विजयी होकर लोकसभा पहुंचे। तब से अखिलेश 3 बार लोकसभा सदस्य रह चुके हैं। वर्ष 2009 में अखिलेश ने भी दो जगहों कन्नौज और फिरोजाबाद से लोकसभा चुनाव लड़ा। वे भी दोनों जगहों से विजयी रहे। फिरोजाबाद की सीट उन्होंने अपनी पत्नी डिंपल यादव के लिए खाली कर दी। लेकिन अफ़सोस कि इस बार यह रणनीति काम न आई और डिंपल फिल्म स्टार और कांग्रेस के उम्मीदवार राज बब्बर से चुनाव हार गईं।
वर्ष 2013 के विधानसभा चुनावों के लिए अखिलेश ने काफी पहले से तैयारी शुरू कर दी थी। इसके लिए उन्होंने 6 महीनों में 10 हजार किलोमीटर से ज्यादा की यात्रा की और 800 रैलियों को संबोधित किया। उनके प्रोफेशनल नजरिये के चलते सपा ने चुनावों में ज्यादातर प्रोफेशनली क्वालिफाइड लोगों को टिकट दिया ताकि, पार्टी की पहले वाली इमेज को बदला जा सके। इसी का नतीजा था कि सपा पूर्ण बहुमत के साथ प्रदेश में सत्ता में वापस आई। इस बदलाव को परखते हुए सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह ने भी मुख्यमंत्री के लिए अखिलेश का नाम प्रस्तावित किया, जो थोड़ी-बहुत अंदरूनी कशमकश के बाद सभी ने स्वीकार कर लिया। मंत्रिमंडल में भी अखिलेश ने नयी और पुरानी, दोनों पीढ़ियों का समावेश किया।
अखिलेश यादव हालांकि अपने पिता मुलायम सिंह की छत्र-छाया में ही शासन चला रहे हैं, लेकिन उनके कुछ फैसले उनके लिए मुसीबत का सबब भी बन गए और उनकी अपरिपक्वता को भी दर्शा गए। उन्होंने डीपी यादव जैसे दागी नेताओं को पार्टी से दूर रखने का फैसला लिया तो उनकी चारो ओर सराहना हुई, लेकिन जब मंत्रिमंडल का गठन हुआ तो कई दागी चेहरों के शामिल हो जाने चलते उन्हें आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा। हाल-फिलहाल में नोएडा के एसडीएम दुर्गा शक्ति के निलंबन का मामला भी सरकार और पार्टी, दोनों के लिए गले का फांस बन चुका है।
कुछ रोचक पहलू
1. अखिलेश के घर का नाम टीपू है। बचपन में जब वे सेंट मेरी स्कूल में दाखिले के लिए पहुंचे तो उनके साथ न तो पिता मुलायम थे और न ही चाचा शिवपाल। उनके साथ पारिवारिक मित्र अवधबिहारी बाजपेयी और वकील गए थे। जब वहां अखिलेश से नाम पूछा गया तो उन्होंने अपना नाम ‘टीपू’ बता दिया। जब स्कूल वालों ने कहा कि यह नाम स्कूल में नहीं लिखा जा सकता तो वहीं उनका नाम टीपू से अखिलेश हो गया।
2. एक सभा के दौरान उत्तर प्रदेश में खेलों के विकास के लिए राज्य मंत्री दर्जा प्राप्त रामवृक्ष यादव ने बताया कि अखिलेश यादव फ़ुटबाल बहुत अच्छा खेलते हैं। बचपन में फ़ुटबाल खेलते समय नाक पर फ़ुटबाल लग गया था। तभी से उनकी नाक टेढ़ी हो गई।
3. मुख्यमंत्री बनने के बाद अखिलेश के कैंप ऑफिस का स्टाफ उनके नाम आने वाले प्रेम पत्रों को लेकर काफी परेशान रहा। अधिकतर पत्रों में शादी का प्रस्ताव होता था और शादी न करने पर आत्महत्या की धमकी होती थी।
4. चुनाव प्रचार के दौरान अखिलेश की पजेरो गाडी में उनकी बीएमडब्ल्यू साइकिल रखी होती थी। इसका इस्तेमाल वो साइकिल रैली में करते थे।
5. पार्टी की छवि के उलट अखिलेश टेक्नोलॉजी को पसंद करते हैं। उनके पास चुनाव प्रचार के दौरान दो-दो ब्लैकबेरी फोन थे और वे आईपैड पर पार्टी के प्रचार अभियान का वीडियो देखते थे।
6. सरकार बनाने के बाद से उनके पिता और सपा सुप्रीमो उनकी कार्यशैली को लेकर कई बार नाराजगी जता चुके हैं।
7. अखिलेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद विदेशी मीडिया भी उनके व्यक्तित्व को लेकर काफी उत्साहित था। प्रदेश में निवेश के संभावनाओं को देखते हुए कई देशों का प्रतिनिधि मंडल उनसे लखनऊ और दिल्ली में मुलाक़ात कर चुका है।
8. अखिलेश यादव के 18 महीने के कार्यकाल में 2000 अधिकारियों का ट्रांसफर हो चुका है। गोरखपुर के एसएसपी रहे शलभ माथुर को तो 6 महीने के अंदर 4 बार ट्रांसफऱ ऑर्डर मिल चुके हैं।
डिंपल यादव
यूपी के सीएम अखिलेश यादव की पत्नी और कन्नौज से चुनी गईं देश की पहली निर्विरोध सांसद डिंपल यादव किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। 1978 में पुणे में आर्मी कर्नल एससी रावत के घर जन्मीं डिंपल की शुरुआती पढ़ाई और पालन-पोषण पुणे, भटिंडा और अंडमान निकोबार में हुआ। इंटरमीडिएट के बाद डिंपल यादव ने लखनऊ विश्वविद्यालय से ह्यूमेनिटीज़ में स्नातक किया। यहीं अखिलेश यादव से उनकी मित्रता हुई। दोनों की मित्रता कब प्यार में बदल गई, पता ही नहीं चला। अखिलेश मरीन इंजीनियरिंग पूरी करने के बाद ऑस्ट्रेलिया से लौटे तो दोनों ने शादी कर ली। विवाह के बाद डिंपल गृहिणी बन गईं और अखिलेश अपने पिता मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी में शामिल होकर राजनीति में सक्रिय हो गये।
डिंपल और अखिलेश के तीन बच्चे हैं – अदिति, अर्जुन और टीना। इनमें अर्जुन और टीना जुड़वां हैं। उनके पिता कर्नल रावत उत्तराखंड के उधमसिंह नगर के मूल निवासी हैं। वर्तमान में वहीं रह रहे हैं। डिंपल की दो बहनें हैं। कर्नल रावत के मुताबिक, शादी से पहले वह काफी बोल्ड हुआ करती थीं। अपनी बात बेबाकी से रखने वाली डिंपल कभी किसी बात को कहने में हिचकती नहीं थीं। अब शादी के बाद बेहद शांत स्वभाव की हो चुकीं डिंपल स्पोर्ट्स में काफी रुचि रखती हैं। घुड़सवारी उनको बेहद पसंद है। इसकी वजह से आज भी पहाड़ों पर जब जाने का मौका मिलता है तो घुड़सवारी ज़रूर करती हैं।
रामगोपाल यादव
प्रो. रामगोपाल यादव समाजवादी पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव के छोटे भाई हैं। पेशे से अध्यापक रहे श्री यादव वर्तमान में उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के सांसद हैं। वह मुलायम सिंह यादव के थिंक टैंक भी कहे जाते हैं। यादव परिवार में सबसे पढ़े-लिखे केवल प्रो. रामगोपाल यादव ही हैं। प्रो. रामगोपाल यादव समाजवादी पार्टी के राष्ट्रींय महासचिव और राज्य सभा सांसद हैं। वह पार्टी में मजबूत हैसियत रखते हैं। हालांकि, उन्हें राजनीति में लाने का श्रेय बड़े भाई मुलायम सिंह यादव को जाता है। रामगोपाल यादव ने अपने भाई शिवपाल यादव के साथ 1988 में राजनीति में कदम रखा। वह इटावा के बसरेहर ब्लॉक प्रमुख का चुनाव जीते। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
प्रो. रामगोपाल ने वर्ष 1989 में जिला परिषद का चुनाव जीतकर अध्यक्ष की कुर्सी थामी। वर्ष 1992 में राज्यसभा के सदस्ये बने। इसके बाद रामगोपाल लगातार राज्यसभा पहुंच रहे हैं। अब भी राज्यसभा के सदस्य हैं। वह मुलायम सिंह यादव के राजनैतिक सलाहकार भी रह चुके हैं। हाल ही में आईएएस दुर्गा शक्ति नागपाल के मामले में केंद्र सरकार द्वारा रिपोर्ट मांगने पर रामगोपाल यादव ने तो यहां तक कह दिया कि यूपी को आईएएस की जरूरत ही नहीं है। इस बयान को विश्लेषक यूपी सरकार और समाजवादी पार्टी में उनकी बड़ी हैसियत के रूप में लेते हैं।
प्रो. रामगोपाल यादव को जन्मर 29 जून, 1946 को इटावा के सैफई में हुआ। उनका विवाह 4 मई, 1962 को फूलन देवी से हुआ। उनके तीन बेटे और एक बेटी है। बेहद गरीब परिवार में पैदा हुए प्रो. रामगोपाल ने काफी मेहनत कर पढ़ाई की। परिवार में वह एकमात्र सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे सदस्य हैं। रामगोपाल यादव ने एमएससी (भौतिकी), एमए (राजनीति विज्ञान) किया। बाद में उन्होंने ‘डॉ. लोहिया का सामाजिक और राजनीतिक दर्शन’ विषय पर शोध किया और पीएचडी उपाधि ली।
उनकी उच्च शिक्षा कानपुर विश्वविद्यालय और आगरा विश्वविद्यालय में पूरी हुई। बेहद गरीबी में पले-बढ़े प्रो. रामगोपाल यादव की संपत्ति नेशनल इलेक्शन वॉच की रिपोर्ट के अनुसार 1.28 करोड़ रुपए से अधिक है। इनमें से 98 लाख रुपए की संपत्ति जमीन-जायदाद व भवन के रूप में है, जबकि करीब 22 लाख रुपए के गहने, बॉन्ड, फिक्स डिपोजिट व बैंकों में जमा रकम है। उन पर 1.26 लाख रुपए का कर्ज भी है। वह डॉ. राममनोहर लोहिया ट्रस्ट के सचिव हैं।
प्रो. रामगोपाल यादव 1969 में केके पीजी कॉलेज में फिजिक्स के लेक्च्रर बने। बाद में उन्होंने राजनीतिक विज्ञान विभाग के अध्यक्ष के तौर पर शिक्षण कार्य किया। इसके बाद वह चौधरी चरण सिंह डिग्री कॉलेज के प्राचार्य रहे। कहा जाता है कि कोई बड़ा फैसला लेते समय मुलायम सिंह यादव प्रो. रामगोपाल से सलाह लेते हैं।
शिवपाल सिंह यादव
नाम शिवपाल सिंह यादव जन्मतिथि 06 अप्रैल, 1955 शैक्षिक योग्यता बी.ए., बी.पी.एड. पिता स्व. श्री सुघर सिंह यादव माता स्व. श्रीमती मूर्ति देवी पत्नी श्रीमती सरला यादव संतान पुत्र -एक पुत्री -एक ,मुलायम के पांच भाइयों में सबसे छोटे भाई शिवपाल सिंह यादव ने ही सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया। ‘‘शिवपाल बड़े तेज-तर्रार थे। शिवपाल को छोड़कर मुलायम के किसी भाई का राजनीति में जाने का इरादा नहीं किया। शिवपाल दैनिक भास्कर डॉट कॉम से बातचीत में बताते हैं कि 70 के दशक में चंबल के बीहड़ जिले इटावा में राजनीति की राह आसान नहीं थी। 1967 में जसवंतनगर से विधानसभा चुनाव जीतने के बाद मुलायम सिंह के राजनैतिक विरोधियों की संख्या काफी बढ़ चुकी थी। राजनैतिक द्वेष के चलते कई बार विरोधियों ने मुलायम सिंह पर जानलेवा हमला भी कराया। यही वह समय था, जब हम शिवपाल सिंह और चचेरे भाई रामगोपाल यादव मुलायम सिंह के साथ आए। शिवपाल ने मुलायम सिंह की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी संभाली।
शिवपाल ने बताया कि मुलायम सिंह के जीवन पर लिखी अपनी किताब ‘लोहिया के लेनिन’ में मैंने इसका जिक्र भी किया है, ‘‘नेता जी जब भी इटावा आते, मैं अपने साथियों के साथ खड़ा रहता। हम लोगों को काफी सतर्क रहना पड़ता, कई रातें जागना पड़ता था।’’ मुलायम सिंह के नज़दीकी रिश्तेदारों में रामगोपाल यादव इटावा डिग्री कॉलेज में फिजिक्स पढ़ाते थे। इसीलिए लोग इन्हें ‘प्रोफेसर’ कहने लगे। वे कहते हैं, ‘‘सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे होने के कारण रामगोपाल रणनीति बनाने और कागजी लिखा-पढ़ी में मुलायम सिंह की मदद करते थे और मैं नेताजी की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी संभालता था।” शिवपाल ने बताया कि 1988 में रामगोपाल और शिवपाल सिंह ने एक साथ राजनीति में कदम रखा। रामगोपाल इटावा के बसरेहर ब्लाक के अध्यक्ष निर्वाचित हुए तो शिवपाल इटावा के जिला सहकारी बैंक के अध्यक्ष चुने गए। इसके बाद 1992 में रामगोपाल राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए तो मैं पहली बार 1996 में जसवंतनगर से जीतकर विधानसभा पंहुचा। इसके बाद रामगोपाल लगातार राज्यसभा पहुंच रहे हैं और मैंने अपनी विधायकी सफलतापूर्वक बरकरार रखी है।
शिवपाल सिंह यादव ने मुलायम सिंह यादव के सहकारिता मंत्री रहते हुए पहली बार 77-78 में किसानों को एक लाख क्विंटल और अगले वर्ष 2.60 लाख क्विंटल बीज बांटे थे। उनके कार्यकाल में प्रदेश में दूध का उत्पादन तो बढ़ा ही, साथ ही पहली बार सहकारिता में दलितों और पिछड़ों के लिए आरक्षण की भी व्यवस्था की गई। सहकारिता आंदोलन में मुलायम के बढ़े प्रभाव ने ही शिवपाल के लिए राजनीति में प्रवेश का मार्ग खोला।
1988 में शिवपाल पहली बार जिला सहकारी बैंक, इटावा के अध्यक्ष बने। 1991 तक सहकारी बैंक का अध्यक्ष रहने के बाद दोबारा 1993 में शिवपाल ने यह कुर्सी संभाली और अभी तक इस पर बने हुए थे। 1996 से विधानसभा सदस्य के साथ-साथ आज कई शिक्षण संस्थाओं के प्रबंधन भी करते हैं। वे एस एस मेमोरियल पब्लिक स्कूल, सैफई, इटावा के अध्यक्ष चुने गए। चौ. चरण सिंह पी जी कॉलेज, हैवरा, इटावा प्रबंधक, डॉ. राममनोहर लोहिया इंटर कॉलेज, धनुवां, इटावा प्रबंधक, डॉ. राम मनोहर लोहिया इंटर कॉलेज, बसरेहर, इटावा प्रबंधक, जन सहयोगी कन्या इंटर कॉलेज, बसरेहर, इटावा प्रबंधक, डॉ. राममनोहर लोहिया, माध्यमिक हाई स्कूल, गीजा, इटावा प्रबंधक, मनभावती जन सहयोगी इंटर कॉलेज, बसरेहर, इटावा पूर्व पद कैबिनेट मंत्री, कृषि एवं कृषि शिक्षा, कृषि विपणन, पी.डब्ल्यू.डी., ऊर्जा एवं भूतत्व खनिकर्म अध्यक्ष, मंडी परिषद अध्यक्ष, जिला सहकारी बैंक, इटावा निदेशक, पी.सी.एफ. प्रमुख महासचिव, समाजवादी पार्टी अध्यक्ष, जिला पंचायत, इटावा अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश सहकारी ग्राम विकास बैंक लिमिटेड, लखनऊ विधानसभा, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा विमुक्त जातियों संबंधी संयुक्त समिति सदस्य (1997-98) अभिरुचि समाज सेवा एवं राजनीति व्यवसाय कृषि निर्वाचन क्षेत्र 289, जसवंतनगर, जनपद इटावा के साथ-साथ प्रदेश में लोक निर्माण, सिंचाई ,राजस्व ,गन्ना जैसे महत्वपूर्ण विभागों की ज़िम्मेदारी भी है।
धर्मेंद्र यादव
धर्मेंद्र यादव मुलायम सिंह के बड़े भाई अभय राम के बेटे हैं। वह इस वक्त बदायूं से सांसद हैं और इससे पहले मैनपुरी लोकसभा सीट से चुनाव जीत चुके हैं। तब वह 14वीं लोकसभा के सबसे युवा सांसद थे। धर्मेंद्र यादव का राजनीति से नाता छात्र जीवन के समय से ही है। इलाहाबाद में पढ़ाई के दौरान समाजवादी जनेश्वर मिश्र के सानिध्य में उन्होंने छात्र राजनीति की। इलाहाबाद में सपा का परचम लहराने का श्रेय जनेश्वर मिश्र को जाता है तो उनके सहायक के तौर पर धर्मेंद्र का भी नाम लिया जाता है।
जब धर्मेंद्र एमए की पढ़ाई पूरी करने वाले थे, तभी वर्ष 2003 में मुलायम सिंह यादव ने उन्हें सैफई बुला लिया। तब धर्मेंद्र के चचेरे भाई व सैफई ब्लॉक प्रमुख रणवीर सिंह का हार्ट अटैक से अचानक मौत हो गई थी। उस समय स्थानीय राजनीति को संभालने का दायित्व मुलायम सिंह ने धर्मेंद्र को दिया। सैफई महोत्सव के सचिव वेदव्रत गुप्ता कहते हैं कि उस समय सैफई को संभालने वाला धर्मेंद्र की टक्कर का कोई नहीं था। वह 2003 में सैफई ब्लॉक प्रमुख के पर पर निर्वाचित हुए। तब मुलायम सिंह यादव मैनपुरी लोकसभा सीट से सांसद थे।
वर्ष 2004 में मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश का मुख्ययमंत्री बनने पर यह सीट छोड़ दी। तब धर्मेंद्र यादव उपचुनाव में डेढ़ लाख वोट से जीतकर मैनपुरी से सांसद बने। मैनपुरी से लोकसभा उपचुनाव जीतने वाले धर्मेंद्र यादव महज 25 वर्ष की आयु में सांसद बन गए। तब वह 14वें लोकसभा के सबसे युवा सांसद थे। बाद में वह वर्ष 2009 में दोबारा बदायूं से चुनाव लड़े और जीते। धर्मेंद्र यादव वर्ष 2005-2007 तक यूपी को-ऑपरेटिव बैंक के चेयरमैन रहे। माफिया डॉन डीपी यादव के राजनैतिक कॅरियर पर विराम लगाने का श्रेय भी धर्मेंद्र यादव को जाता है।
डीपी यादव वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव के वक्त आजम खां के माध्यम से सपा में आने का रास्ता ढूंढ लिया था। इसे लेकर काफी राजनीतिक रस्साकशी हुई। तब समाजवादी पार्टी के युवा सांसद धर्मेन्द्र यादव की जिद के चलते डीपी यादव को पार्टी में एंट्री नहीं मिल सकी। इसकी वजह से कुछ वक्त तक आजम खां नाराज भी रहे थे। विधानसभा चुनाव में धर्मेंद्र यादव की बदौलत बदायूं के मतदाताओं ने सपा के पांच उम्मीदवारों को विधायक बनाया।
धर्मेंद्र यादव की आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई सैफई में हुई। इसके बाद शिक्षा के लिए वह इलाहाबाद चले गए। यहां छात्र राजनीति की और युवा नेतृत्व को उभारने का मौका दिया। धर्मेंद्र ने एलएलबी और राजनीति विज्ञान से एमए की पढ़ाई की हुई है। धर्मेंद्र का विवाह नीलम यादव से हुआ है। नेशनल इलेक्शन वॉच के मुताबिक धर्मेंद्र यादव के पास 56 लाख रुपए की संपत्ति है, जबकि 98 हजार रुपए का कर्ज है।
उन्होंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से राजनीति विज्ञान विषय में एमए किया है। उन्होंने यह डिग्री और मैनपुरी से लोकसभा चुनाव की जीत एक साथ वर्ष 2004 में पाई। अक्टूबर 2012 में धर्मेंद्र यादव ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिन्दी में संबोधन दिया था। रणवीर सिंह सैफई महोत्सव के अध्य्क्ष धर्मेंद्र यादव हैं।
अक्षय यादव
मुलायम सिंह के खानदान के सातवें राजनेता अक्षय यादव हैं। वह सपा महासचिव रामगोपाल यादव के बेटे और मुलायम सिंह यादव के भतीजे हैं। अक्षय ने एमबीए किया है और बीज का कारोबार संभाल रहे हैं। पिछले चार साल से फिरोजाबाद में कार्यकर्ताओं के साथ वक्त बिता रहे हैं। 26 वर्षीय अक्षय यादव को समाजवादी पार्टी ने फिरोजाबाद लोकसभा सीट ने सपा ने टिकट दिया है। इस सीट से अक्षय का पुराना नाता है।
पिछले पांच साल से इस इलाके में वह काम कर रहे हैं। जब अखिलेश यादव ने वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में फिरोजाबाद और कन्नौज से चुनाव लड़ा था, उस समय फिरोजाबाद के चुनाव प्रबंधन की कमान अक्षय यादव ने संभाली थी। इसके बाद अखिलेश ने फिरोजाबाद सीट छोड़ दी और उपचुनाव में पत्नी डिंपल यादव को खड़ा किया। अपनी भाभी डिंपल का चुनाव प्रबंधन भी अक्षय ने संभाला था। लेकिन कांग्रेस नेता व सिनेस्टार राज बब्बर ने डिंपल को हरा दिया। बाद में वर्ष 2012 में कन्नौज लोकसभा उपचुनाव में अक्षय ने ही चुनाव प्रबंधन किया।
अक्षय यादव समाजवादी पार्टी महासचिव प्रो. रामगोपाल यादव के सबसे छोटे बेटे हैं। उनकी शुरुआती पढ़ाई इटावा के सैफई में हुई। बाद में उच्च शिक्षा दिल्ली में पूरी की। उनकी शादी ऋचा यादव से हुई। उनकी एक बेटी भी है। पढ़ाई पूरा होने के बाद करीब तीन साल पहले अक्षय वापस सैफई आ गए। उन्होंने यहां बीज संयंत्र लगाया। बीज का कारोबार अच्छा चल रहा है। अब वह बिजनेस के साथ-साथ राजनीति में भी कदम रख चुके हैं। अक्षय का सबसे बड़ा शौक रायफल शूटिंग है। वह पढ़ाई के दौरान कई बार राष्ट्रीय शूटिंग चैम्पियनशिप में हिस्सा ले चुके हैं।
अंकुर यादव
प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री शिवपाल सिंह यादव के पुत्र 25 वर्षीय आदित्य यादव उर्फ अंकुर उत्तर प्रदेश प्रादेशिक को-ऑपरेटिव फेडरेशन (यूपीपीसीएफ) के निर्विरोध अध्यक्ष हैं। . सफेद कुर्ता-पाजामा से इतर पैंट, शर्ट, कोट और हाथ में महंगी रोलेक्स घड़ी पहने बीटेक डिग्रीधारी आदित्य समाजवाद के बदलते चेहरे की ओर इशारा कर रहे हैं। राजनीति में सफलता की पहली सीढ़ी चढ़ने के लिए आदित्य ने अपने पिता शिवपाल सिंह यादव के पद-चिन्हों पर चलते हुए सहकारिता का सहारा लिया है। खुद शिवपाल सिंह ने भी इटावा जिले के सहकारी बैंक के अध्यक्ष पद से सियासी पारी की शुरुआत की थी। यूपीपीसीएफ का अध्यक्ष बनने के साथ ही आदित्य का नाम मुलायम सिंह परिवार के उन सदस्यों की सूची में 13वें नंबर पर शुमार हो गया है, जो राजनीति में एंट्री कर चुके हैं। हालांकि, आदित्य तीन वर्षों से राजनीति में सक्रिय हैं और 2010 में वे जसवंतनगर ब्लॉक से इटावा जिला विकास परिषद का चुनाव भी लड़े, पर पहली बार बाजी हार गए।
सहकारिता के माध्यम से ही सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया। इसकी वजह जानने के लिए थोड़ा पृष्ठभूमि में जाना होगा। 1977 में यूपी में रामनरेश यादव के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी। उस सरकार में मुलायम सिंह यादव को पहली बार सत्ता सुख मिला और वे सहकारिता मंत्री बने। वहीं से प्रदेश में सहकारिता आंदोलन की शुरुआत हुई। मुलायम सिंह ने सहकारिता को नौकरशाही के चंगुल से निकालकर आम जनता से जोड़ा। उसी दौरान यूपी में सहकारी बैंक की ब्याज दर को 14 फीसदी से घटाकर 13 फीसदी और फिर 12 फीसदी कर दिया गया। तब से ये कहना गलत नहीं होगा कि मुलायम परिवार के पास ही सहकारी बैंक के अध्यक्ष पद का दबदबा बना रहा। अंकुर यादव यूपी को-ऑपरेटिव फेडरेशन लिमिटेड (पीसीएफ) के सभापति पद पर बने हुए हैं और उन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा भी मिला हुआ है। बेहद शांत स्वभाव के हैं अंकुर यादव।
अंशुल यादव
राजपाल और प्रेमलता से दो पुत्र हैं। एक हैं 26 साल के अंशुल यादव और दूसरे 19 साल के अभिषेक यादव। अंशुल यादव भी राजनीति का ककहरा सीख रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में अंशुल ने जसवंतनगर विधानसभा क्षेत्र के तहत आने वाले ताखा ब्लॉक में अपने चाचा शिवपाल सिंह यादव के चुनाव प्रचार की कमान संभाली। अंशुल यादव इटावा व भरथना विधानसभा क्षेत्र में जोर-आजमाइश में लगे हुए हैं।
करीब दो साल से आम लोगों के बीच जा कर अंशुल यादव ने बूथ कमेटियों के गठन में प्रभावी भूमिका निभाई है। नोएडा से एमिटी यूनिवर्सिटी से एमबीए पास करने के बाद राजनीति के मैदान में कूदे अंशुल यादव कहते हैं कि पार्टी की ओर से उनको जिस जिम्मेदारी का निर्वहन करने के लिये कहा गया है, उसी के तहत प्रचार का काम करने में लग गए हैं।
वैसे, उन्हें फार्मूला वन रेस देखने का बेहद शौक है। यही कारण है कि भारत में पहली बार जब इस रेस का आयोजन हुआ तो अंशु भी दर्शक दीर्घा में रेस का लुत्फ उठाते नजर आए। इसके अलावा, उन्हें पढ़ने का भी काफी शौक है। घर में ही लाइब्रेरी बना रखी है।
तेजप्रताप सिंह
इंग्लैंड की लीड्स यूनिवर्सिटी से मैनेजमेंट साइंस में एमएससी करके लौटे तेजप्रताप सिंह सक्रिय राजनीति में उतरने वाले मुलायम सिंह के परिवार की तीसरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं। मुलायम के बड़े भाई रतन सिंह के बेटे रणवीर सिंह के बेटे तेजप्रताप सिंह यादव उर्फ तेजू इस समय सैफई ब्लॉक प्रमुख निर्वाचित हुए हैं। क्षेत्र में समाजवादी पार्टी को मजबूत करने की पूरी जिम्मेदारी तेज प्रताप सिंह ने अपने कंधों पर उठा रखी है। परिवार के सदस्य इन्हें तेजू के नाम से भी पुकारते हैं।
सैफई के पहले ब्लॉक प्रमुख और सैफई महोत्सव के संस्थापक स्वर्गीय रणवीर सिंह यादव के बेटे तेजप्रताप यादव ने जसवंतनगर से अपने बाबा शिवपाल सिंह यादव की जीत में अहम योगदान दिया। सैफई से निर्विरोध ब्लॉक प्रमुख चुने जाने के बाद तेजप्रताप यादव ने पिछले विधानसभा चुनाव में काफी मेहनत की। क्षेत्र के लोग कहते हैं कि तेजप्रताप से पहले उनके पिता रणवीर सिंह यादव चुनाव की जिम्मेदारी निभाते थे। सैफई क्षेत्र की जनता को उन्हें बेहद प्यार मिलता था। लोग उन्हें दद्दू कहते थे।
उनकी लोकप्रियता कुछ ऐसी थी कि रणवीर सिंह जिस गांव-गली मे चुनावी जनसंपर्क के लिए जाते, वहां की जनता में उन्हें सम्मानित करने होड़-सी लग जाती थी। जब तक रणवीर सिंह जीवित रहे, शिवपाल सिंह भी निश्चिंत रहते थे। रणवीर के निधन के बाद यह जिम्मेदारी धर्मेन्द्र यादव के कंधों पर आ गई और उन्हें सैफई का ब्लॉक प्रमुख बनाया गया। उन्होंने भी अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई। लेकिन बाद में वह मैनपुरी संसदीय क्षेत्र से सांसद हो गए। इसके बाद परिवार के लिए हमेशा से नाक का सवाल माने जाने वाले सैफई ब्लॉक पर तेजप्रताप यादव तेजू को खड़ा किया गया और वे यहां से निर्विरोध चुने गए।
प्रेमलता यादव
मुलायम सिंह के छोटे भाई राजपाल यादव की पत्नी प्रेमलता यादव इस समय इटावा में जिला पंचायत अध्यक्ष हैं। आमतौर पर गृहिणी के तौर पर जीवन के अधिकतर वर्ष गुजारने के बाद 2005 में प्रेमलता यादव ने राजनीति में कदम रखा। यहां उन्होंने पहली बार इटावा की जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव लड़ा और जीत गईं। 2005 में राजनीति में आने के बाद ही प्रेमलता मुलायम परिवार की पहली महिला बन गईं, जिन्होंने राजनीति में कदम रखा। उनके बाद शिवपाल यादव की पत्नी और मुलायम की बहू डिंपल यादव का नाम आता है।
प्रेमलता के पति राजपाल यादव इटावा वेयर हाउस में नौकरी करते थे और अब रिटायर हो चुके हैं। रिटायरमेंट के बाद से ही वह समाजवादी पार्टी में अहम भूमिका अदा कर रहे हैं। 2005 में चुनाव जीतने के बाद प्रेमलता ने अपना कार्यकाल बखूबी पूरा किया। इसके बाद 2010 में भी वह दोबारा इसी पद पर निर्विरोध चुनी गई हैं। वैसे, उनके निर्विरोध चुने जाने के दौरान उनके बेटे अंशुल यादव पर एक बसपा नेता पर मारपीट का आरोप भी लगा।
दरअसल, प्रेमलता यादव के खिलाफ चुनाव में खड़ी एक अन्य प्रत्याशी जब अपना नामांकन वापस लेने पहुंची, तो उसी दौरान एक बसपा नेता से उसकी बातचीत होने लगी। इसके बाद नेता ने आरोप लगाया कि अंशुल यादव ने अन्य साथियों के साथ मिलकर उनके साथ मारपीट की और उनके कपड़े फाड़ दिए।
सरला यादव
शिवपाल की पत्नी सरला यादव परिवार की पहली महिला सदस्य हैं, जिन्होंने राजनीति में कदम रखा है। शिवपाल बताते हैं कि उस समय कुछ मज़बूरी ही ऐसी थी कि पत्नी को राजनीति में उतारना पड़ा। हलांकि, वो सक्रिय राजनीति का हिस्सा कभी नहीं बनीं और घर की देख-भाल में ज्यादा समय बिताती थीं। यही कारण है कि अखिलेश के साथ-साथ दोनों बच्चों की भी ज़िम्मेदारी उसी पर थी। मैं राजनीति करने लगा था और नेताजी का कामकाज भी संभालना मेरे लिए चुनौती थी। सरला को दो बार जिला सहकारी बैंक का राज्य प्रतिनिधि बनाया गया। 2007 के बाद लगातार दूसरी बार चुनी गई थी और अब कमान बेटे के हाथ में है।
अरविंद यादव
वैसे परिवार की बात करें तो मुलायम सिर्फ अपने ही परिवार नहीं, चचेरे भाई प्रोफेसर रामगोपाल यादव के परिवार को भी पूरा संरक्षण देते रहते हैं। इसी क्रम में मुलायम की चचेरी बहन और रामगोपाल यादव की सगी बहन 72 वर्षीया गीता देवी के बेटे अरविंद यादव ने 2006 में सक्रिय राजनीति में कदम रखा और मैनपुरी के करहल ब्लॉक में ब्लॉक प्रमुख के पद पर निर्वाचित हुए। अरविंद क्षेत्र की जनता में काफी पहचान रखते हैं। करहल में अरविंद ने समाजवादी पार्टी को काफी मजबूती दिलाई है। लेकिन 2011 के चुनाव में वह आजमाइश के लिए मैदान में नहीं उतर सके। कारण ये था कि इस चुनाव में करहल ब्लॉक प्रमुख की सीट सुरक्षित हो चुकी थी। लेकिन अरविंद ने हार नहीं मानी है और इस समय वे मैनपुरी लोकसभा सीट के तहत आने वाले करहल ब्लॉक में सपा की मजबूती के लिए काम कर रहे हैं।