नई दिल्ली: केंद्र की यूपीए सरकार हाल ही केंद्रीय सूचना आयोग द्वारा दिए गए उस फैसले के विरोध में अध्यादेश लाने पर विचार कर रही है जिस फैसले के तहत सीआईसी ने देश के बड़ी राजनीतिक दलों को प्राप्त चंदे की पूरी जानकारी आरटीआई के तहत देने को कहा था। साथ ही सीआईसी ने आदेश दिया था कि बड़े राजनीतिक दल आरटीआई के तहत आते हैं और उनकी जवाबदेही जनता के प्रति है।
बताया जा रहा है कि सरकार ‘सार्वजनिक संस्था’ की परिभाषा में बदलाव कर राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे से बाहर करने का विचार कर रही है।
आश्चर्य की बात यह है कि सरकार इस अध्यादेश को उस तारीख से पहले मान्य करार देगी जिस तारीख को सीआईसी ने अपना यह फैसला दिया था।
इस अध्यादेश के संबंध में एक प्रस्ताव रिपोर्ट कार्मिक मंत्रालय को कानून मंत्रालय ने भेजा है।
लेफ्ट दलों के छोड़कर अन्य सभी दलों की दलील है कि वह सरकार द्वारा वित्तपोषित नहीं हैं और इसलिये सार्वजनिक संस्था के दायरे में नहीं आते और इस वजह से उन्हें आरटीआई के दायरे में नहीं रखा जा सकता है। कैमरे पर सभी दल अभी तक यह स्थिति बता रहे हैं कि वह सभी प्रकार से जांच को तैयार है और पूरी पारदर्शिता के पक्षधर हैं।
बता दें कि 3 जून को सीआईसी ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद आदेश जारी कर कहा था कि राजनीतिक दलों को हर प्रकार के रिकॉर्ड की मांगी गई जानकारी लोगों को देना चाहिए।
इस आदेश के तहत राजनीतिक दलों को अब हर वह जानकारी देनी होगी कि उन्हें पैसा कहां से मिलता है और वह किस प्रकार खर्च किया जाता है। दलों को यह भी बताना पड़ सकता है कि आखिर वह किस प्रकार अपने प्रत्याशियों का चुनाव करते हैं।
अपने आदेश में सीआईसी ने यह भी कहा था कि राजनीतिक दल सरकार से तमाम फंड प्राप्त करते हैं जो जनता का पैसा है और इसलिए उनकी जवाबदेही जनता के प्रति है। सीआईसी ने कहा था कि तमाम दलों को सरकार जमीन, सरकारी आवास दिए गए हैं। आयकर में छूट दी जाती है और चुनावों के समय रेडियो और दूरदर्शन पर समय दिया जाता है।
साथ ही सीआईसी ने कहा था कि राजनीतिक दलों का सीधा प्रभाव आम आदमी पर पड़ता है और वह सीधे तौर पर जनता से जुड़े हैं। इस वजह से दल जनता के सीधे जवाबदेह हैं।
सीआईसी का यह आदेश जाने-माने वकील प्रशांत भूषण और आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चंद्र अग्रवाल की याचिकाओं पर दिया गया था।