संविधान के 46 वें संशोधन से 6 से 14 साल के बच्चों को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करना मौलिक अधिकार बना दिया गया, परंतु हजारों बच्चे ऐसे हैं, जिनके लिए यह अधिनियम अभी भी बेमानी है। इन बच्चों में तमाम ने स्कूलों का मुंह नहीं देखा और जो बच्चे स्कूलों तक पहुंचे भी, वे बीच में स्कूल छोड़कर मेहनत मजदूरी में लग गये। अधिनियम के तहत बच्चों को घर-घर खोज कर अनिवार्य रूप से स्कूलों में पंजीकृत कराना होता है, और उन्हें स्कूलों में रोक कर पढ़ाई करानी होती है। इसके लिए हमेशा पहली जुलाई से 31 जुलाई तक स्कूल चलो अभियान चलाया जाता है। इसके बावजूद बीते सत्र में हजारों ऐसे बच्चे खोजे गए, जिन्होंने स्कूलों का मुंह नहीं देखा था। शासन को इस संख्या पर संदेह हुआ, तो दोबारा अभियान चलाया गया फिर भी शहर की मलिन बस्तियों के साथ स्टेशन के आसपास झुग्गी झोपड़ी में रहने वालों के बीच पढ़ाई न करने वाले बच्चों को नहीं खोजा जा सका। मोटे अनुमान के तौर पर बस्तियों में बाल श्रम करने वाले हजारों बच्चे ऐसे हैं, जो अभी भी पढ़ाई से दूर हैं। ओर यदि किसी तरह बच्चों को स्कूलों तक ले भी आएं, तो पहली कक्षा में प्रवेश लेने वाले आधे से अधिक बच्चे पांचवीं कक्षा उत्तीर्ण करने से पहले ही स्कूल छोड़ जाते हैं। आंकड़े गवाह हैं कि आठवीं तक पहुंचते- पहुंचते तो 20 प्रतिशत बच्चे भी नहीं बचते, जबकि उन्हें नि:शुल्क यूनीफार्म, छात्रवृत्ति, मिडडेमील जैसी सुविधाएं प्राप्त हैं। ऐसे में शिक्षा का अधिकार किन बच्चों को मिल रहा है, यह एक बड़ा सवाल है। इस वर्ष भी सभी बच्चों को स्कूलों तक लाने व उन्हें पढ़ाई पूरी होने तक रोकने का जोरदार अभियान चलेगा। सभी बच्चों को शिक्षा का हक दिलाने की कोशिश होगी। इस अभियान के लिये शासन से आने वाले मोटे बजट का कायदे सें बंदर बांट किया जायेगा।
बीते साल के आंकड़ों के अनुसार कक्षा एक से कक्षा 8 तक हर कक्षा में छात्र संख्या घटी है। आखिर तक मात्र 20 प्रतिशत बच्चे ही रह जाते हैं। कक्षा एक से पांच तक बच्चों को फेल भी नहीं किया जाता, फिर ये बच्चे कहां चले जाते हैं।? इन बच्चों के लिए भी शिक्षा अधिकार बेमानी है।