फर्रुखाबाद: राजनीति करने वाला कुछ भी बिना मतलब नहीं करता| एमएलसी एवं कथित समाजसेवी मनोज अग्रवाल ने नगरपालिका अध्यक्ष पद के चुनाव प्रचार के लिए सामूहिक विवाह वाली बहनों को एक महीना मायके (फर्रुखाबाद नगर) में रहकर वत्सला अग्रवाल के लिए चुनाव प्रचार करने को बुलाया है| अपने आवास पर बैठक बुलाकर इन बहनों को जेठ की तपती दुपहरी में दहेज़ का कर्ज चुकाने का अवसर प्रदान किया गया है| नगरपालिका चुनाव में लालाजी का प्रचार कुछ यूं सामंती चित्रण कराएगा| गरीब की गरीबी का मजाक एक सेठ कुछ यूं उडाएगा| लगभग 200 लड़कियों के परिवार सहित 1000 कार्यकर्ता दहेज़ का कर्ज चुकाने को वत्सला अग्रवाल के लिए घर घर कुण्डी खट्खायेगा|
समाजसेवा का लबादा ओढ़ सेवा का स्वांग चतुर राजनैतिज्ञ यूं ही नहीं रचता| सेवा के नाम पर कर्ज चढ़ाकर उसे सूद समेत वापस लेना भी बखूबी जानता है| मनोज अग्रवाल ने भी सत्ता में काबिज होने के बाद एक चतुर खिलाड़ी की तरह गोटे बिछाई है| पूरी नगरपालिका की मशीनरी मय ठेकेदार मनोज अग्रवाल की सत्ता के साथ खड़े हुए और सेवाव्रत के बड़े बड़े बैनर तले सामूहिक विवाह के कई कार्यक्रम हुए| फिल्म बनी, बड़े बड़े नेता और अधिकारी शरीक हुए| जनता के पैसे वाले सरकारी इंतजाम मनोज अग्रवाल की मिलकियत नजर आये| सवाल सामूहिक विवाह में किसी का घर बस जाने पर नहीं है| इससे बड़ा पुण्य का काम नहीं हो सकता था| मगर अब जिस तरह से उस कथित समाजसेवा “सेवाव्रत” को कैश कराया जायेगा दुर्भाग्यपूर्ण होगा|
कन्यादान महादान की संज्ञा लिए शास्त्रों में उपकृत किया गया है| मगर दान किया हुआ वापस मांगना महापाप भी कहा गया है| जब सेठ और सेठानी वातानुकूलित व्यवस्था का आनंद लेंगे, उनके एहसान तले दबे लोग उनके लिए जेठ की तपती गर्मी में वोट मांगेंगे| ये किसी पुरानी सामंती व्यवस्था का नजारा जैसा होगा जिसे मुंशी प्रेमचंद ने गोदान से लेकर गबन में सौ साल पहले चित्रित किया था| सेठ और सेठ के समर्पित कार्यकर्ता जब नगर की इन बेटियो और उनके परिजनों को “वर्कर” की संज्ञा दे तो सेवाव्रत पर सवाल उठाना लाजिमी है|
हैं उस्तरे की धार पर लोकतंत्र की मूंछे, लेखनी की अब जमानत जब्त है| विज्ञापनों की गर्माहट से नगर के महान पत्रकारों की लेखनी की स्याही अब सूख चुकी है| अब नगरपालिका में पिछले पांच साल हुआ जन विरोधी कृत्य नहीं लिखा जायेगा| राजा के दरबार से मोहरों के इनाम के लालच में गरीब धनिया का दर्द नहीं आईने-अकबरी रचा जायेगा|
इस शहर की हालत पर एक काबिल शायर का शेर अर्ज है-
एक मुफ़लिस, किसी बेबा की बेचारी बेटी|
निकलती है जब सड़क पर, नजरे झुका लेती है||
उस वक़्त का मंज़र नहीं देखा जाता ‘आलम’|
जब कुरते के पैबंद को वो बस्ते से छुपा लेती है||