कहाँ खो गई कथा कहानी ——-

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(एक ख़तम होती परंपरा को बचाने की कोशिश)
कहानी सुनना किसे अच्छा नहीं लगता .पहले बड़े बूढ़े कहानी सुनते थे ,बच्चे सुनते थे.लेकिन धीरे धीरे यह कहानी सुनाने -सुनने की परंपरा ख़त्म हो रही है.यह लेख इसी परंपरा को बचाने की कोशिश है|

मेरा भी एक ननिहाल है हरदोई जिले में| उस गावं से,शहर से ढेरों यादें जुडी हैं। उन्हीं में से कुछ बचपन की यादें भी है।उस गाँव में हमारे परबाबा रहते थे। गरमी की छुट्टियों में हम लोग वहां जाते थे।खूब मजा आता था। सारे बच्चे किसी बगीचे में इकट्ठे हो जाते। बस धमा चौकड़ी शुरू। कभी सीसो पाती,कभी गेंद तड़ी। कभी कोई खेल तो कभी कोई। कभी आपस में झगड़ा भी हो जाता। लेकिन थोड़ी देर में ही फ़िर सब एक साथ खेलने लगते। पर गाँव में खेल कूद धामा चौकड़ी से भी अच्छा जो पल होता था,वह था रात का।

अँधेरा होते ही सारे बच्चे हमारे घर के सामने इकट्ठे हो जाते। बान की बिनी खटियों पर सब अपनी अपनी जगह पर बैठ जाते। फ़िर इंतजार होता था नानी का| इंतजार इसलिए कि उन्हीं के दिमाग में भरा था हजारों कहानियों का खजाना। बिना नानी की कहानी सुने नींद तो आने से रही| तो नानी के आते ही शुरू हो जाता था कहानियों और किस्सों का दौर। कभी राक्षस की कहानी तो कभी भूत की। कभी रजा रानी की जिनमे सीख ही सीख भरी होती थी। बच्चे बड़े ही मनोयोग से सुनते थे कहानियाँ। एक एक शब्द पर हुंकारी भरना,कोई शब्द छूट जाय तो उसे पूछना,बगल के सोते बच्चे को तड़ी मार कर जगाना…ये सब कुछ खासियतें हुआ करती थीं उस कथा महफ़िल की।

उस समय हमारे अन्दर कहानी सुनने का एक नशा होता था।अगर बीच में किसी बच्चे को घर बुला लिया जाता तो दूसरे दिन वो कहानी का वह हिस्सा किसी साथी से सुन लेता था।पर आज के बच्चों में वो बात दिखाई ही नहीं पड़ती।एक तो बेचारों पर कोर्स की किताबों का बोझ,दूसरे चैनलों के सीरियल,वीडियो गेम्स का असर।अब अगर किसी बच्चे से आप कहिये भी कि आओ बेटा/बेटी कहानी सुना दें तो वह तुंरत आपसे पीछा छु्ड़ाने की कोशिश करेगा,या फ़िर कामिक्स के किसी ऐसे पात्र की कहानी सुनाने की फरमाइश कर देगा जिसका नाम आपके पुरखों ने भी नहीं सुना होगा।

मुझे ही नहीं आप में से बहुतों को मौका मिला होगा बचपन में ऐसी कथा महफिलों में कहानियाँ सुनने का।लेकिन आप जरा गौर फरमाइए कि क्या आज आपके आस पास का कोई बच्चा कहानियाँ सुनने में वैसी रूचि दिखाता है जैसी हम में थी?

सिर्फ़ बड़े लोगों द्वारा ही नहीं,हमारी संस्कृति में तो कहानी सुनाने की परम्परा ही रही है।चाहे वो सत्यनारायण भगवान की कथा के रूप में,ललही छठ,भैयादूज की कथा,करवाचौथ या फ़िर किसी अन्य देवी देवता की कथा के रूप में।या फ़िर पौराणिक,जातक,लोककथा,नीति कथाओं के रूप में।और इन कहानियों के पीछे चाहे जो भी अलग अलग मकसद रहे हों,लेकिन कुछ बिन्दु तो सभी के साथ जुड़े थे।हर कहानी में एक उद्देश्य,एक मैसेज जरूर रहता था।हर कहानी सुनने वाले को एक संस्कृति, रीति रिवाज से परिचित कराती थी।कहानी मनोरंजन भी करती थी।
जहाँ तक बच्चों की कहानी की बात है,तो उन्हें कहानियाँ सुनाने के पीछे कई मकसद होते थे|
० बच्चों का मनोरंजन करना।
० बच्चों में सुनने और समझने की दक्षता बढ़ाना।
० उनकी एकाग्रता की शक्ति बढ़ाना।
० उनके शब्द ज्ञान को बढ़ाना।
० उनकी कल्पना शक्ति को बढ़ाना।
0 उन्हें कहानियों के माध्यम से कोई संदेश,सीख या नयी बात सिखाना।
और ये सभी मकसद पूरे भी होते थे उन कहानियों के माध्यम से।
परन्तु आज …?

आज तो नेशनल बुक ट्रस्ट,आई.सी.ड़ी.एस.,सर्व शिक्षा अभियान……सभी को कोशिशें करनी पड़ रहीं है,कि बच्चों को कहानियाँ सुनायी जायें।बड़ी बड़ी वर्कशाप,गोष्ठियां,सेमिनार किए जा रहे है इस मुद्दे को लेकर।
मैंने भी अपने लेखन की शुरुआत बच्चों की कहानियो से ही की थी।और आज भी मैं ख़ुद को मूलतः बाल कथा लेखक ही मानता हूँ।इसलिए मैं भी आप सभी बुद्धिजीवियों से,और खासकर माताओं पिताओं से कहूँगा कि ,किस्सागोई…कहानी सुनाने और सुनने की इस ख़तम हो रही परम्परा को बचाएं।अपने घर में छोटे बच्चों को कहानी रोज सुनायें ।उनसे भी सुनें।कहानी चाहे नई हो या पुरानी। कहानी तो कहानी ही होती है।