फर्रुखाबाद: होली के बारे में पुराने लोगों से पूछो तो कहेंगे अब कहाँ होती है होली.. होली तो उनके ज़माने में होती थी. क्या मौज- मस्ती होती थी. पहले से चंदा वसूली, हुडदंग में शरारत का अंदाज़ और लोगों को रंग से
सराबोर करने की योजना बन जाती थी. मोहल्ले के लोग नौजवान टोली की हर गतिविधि पर नज़र रखते थे न जाने कब किसके दरवाजे पर कीचड भरी मटकी फोड़ दी
जाए और कब किसका तखत या दरवाजे के पटले होली में डाल दिए जाएँ.
कुचिया में होली की अलग ही छठा होती थी. मोहल्ले के फूलमती मंदिर पर युवा होली की योजना बनाते थे. कई संगठनों से जुड़े ओम प्रकाश मिश्रा कंचन बताते हैं कि एक बार मोहल्ले के युवकों ने मोहल्ले के मटरू लाल के घर से कोरों की लकड़ी उठाने की योजना बनायीं. लकड़ी उठाते समय कैसे भी मटरू लाल को पता लग गया. जिससे जय जय राम क्षत पर फंस गए उनकी खूब पिटाई लगायी गयी. पुलिस में रिपोर्ट भी हुई तब से हम लोगों ने लकड़ी उठाने से तौबा कर ली.
लोक जाग्रति के सचिव महेश वर्मा बताते हैं कि उनके मोहल्ले के शिव नारायण होली का चंदा नहीं देते थे. इसलिए लड़के हर होली पर उनके दरवाजे पर गंदगी
से भरी मटकी फोड़ आते थे. प्रेम प्रकाश, दया शंकर, नारायण, राम किशन आदि होली की टोली में शामिल रहते थे. एक बार बात बाद गयी. पुलिस आई. दरोगा जी
ने बात समझी और हंस कर कहे दिया- यह तो बच्चों का मामला है. बैलगाड़ी से होली के लिए सेंथा खींचने का काम बहुत पहले शुरू हो जाता था.
राधा माधव संकीर्तन मंडल से जुड़े आचार्य मनमोहन गोस्वामी बताते हैं कि बचपन में होली की वाही उमंग होती थी-रंग- गुलाल की बौछार, गुझिया की बहार और गले मिलने का व्यवहार… 1994 में जब से राधा माधव संकीर्तन मंडल से जुड़े तब से उनके मन में होली के भाव ही बदल गए. होली को बरसाने में जाकर मानाने की बात ही कुछ और है. वहां भगवान के साथ होली खेलने का का मिलता है और संतों के दर्शन होते हैं. पहले होली के प्रति जो घृणा का भाव रहता था ब्रिज में जाकर वहां की होली देखकर वह भाव परिवर्तित हो गया. मुझे लगा की वर्ष में होली से अच्छा कोई त्यौहार ही नहीं है…..