शेखपुर में 695वां उर्स व मेला रवायती अंदाज में सम्पन्न

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फर्रुखाबाद:(कमालगंज)हजरत शेख मखदूम बुर्राक लंगर जहां रहमतुल्लाह अलैह का 695वां उर्स व मेला रवायती अंदाज में सम्पन्न हुआ|
कमालगंज थाना क्षेत्र के गांव शेखपुर में हर साल की तरह इस साल हजरत शेख मखदूम बुर्राक लंगर जहां रहमतुल्लाह अलैह का सालाना उर्स व मेला बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हुआ। दूरदराज से आए हजारो लोगो ने दरगाह पर चादरपोशी की व मुरादे मांगी। मेले में तरह-तरह के झूले व चाट व हल्वा पराठा बिकता हुआ नजर आया। जगह-जगह पुलिस प्रशासन मुस्तैद रहा। इस दरगाह पर हर साल लाखो की संख्या में हर मजहब और समुदाय के लोग बाबा के मजार के दर्शन करते है जहां का खास तवर्रूक सेव के लड्डू हैं जिन्हें शेखपुर के लड्डूओ के नाम से जाना जाता है।
हजरत शेख मखदूम बुर्राक लंगर जहां रहमतुल्लाह अलैह का 695वां उर्स व मैला रवायती अंदाज में 18 फरवरी (12 जमादिउल आखिर) से शुरू होकर 24 फरवरी (18 जमादिउल आखिर) तक चला। यह उर्स हर साल इस्लामी कैलेंडर के मुताबिक 12 जमादिउल आखिर से शुरू होकर 18 जमादिउल आखिर तक मनाया जाता है। क्योंकि शेख मखदूम आज से 695 साल पहले अपनी चिल्लागाह भोजपुर में 746 हिजरी सन 1351 में 12 जमादिउल आखिर को बीमार पड़े और 17 जमादिउल आखिर को आपका विसाल हो गया और 18 जमादिउल आखिर को आपको आपकी वसीयत के मुताबिक शेखपुर में सुपुर्दे खाक किया गया। जहां इस वक्त आपकी आलीशान दरगाह है। इस उर्स को छडियों वाला मेला भी कहा जाता है। तारीख बताती है कि हजरत शेख मखदूम ने अपने विसाल से कब्ल वसीयत की थी कि जहां पर एक मिट्टी का लोटा पानी से भरा हुआ मिले और एक रीठे का पेंड़ हो व एक भीगा हुआ कपड़ा मिले उसी जगह पर मुझे दफन करना। वसीयत के मुताबिक जब वह जगह तलाश की तो शेखपुर मे मिली। शेखपुर उस वक्त बांसो का एक घना जंगल था। उस मुकाम को जहां आपको दफन होना था। जब बांस के पेंड़ काटकर साफ किया गया तो उन बांसों से मुरीदीन ने उनकी छडियां बनाई और दौड़ते हुए भोजपुर पहुंचे। भोजपुर में आशिकाने मखदूम हजरत, मखदूम को भोजपुर में ही दफन करना चाहते थे लेकिन दीगर मुरीदीन और आपके बेटे आपको वसीयत के मुताबिक शेखपुर में दफन करना चाहते थे। इसी बात को लेकर दोनो पक्षों में टकराव हो गया और लाठियां खिंच गई। इसी बीच आपका लाशा मुबारक परवाज कर गया और आवाज आई “ले चल पीर” और दोनो पक्ष लाशे मुबारक के पीछे-पीछे दौड़ पड़े। आपका लाशा मुबारक जिन ऊँचे-नीचे, ऊबड-खाबड रास्तो से होकर बघार नाला पार करता हुआ शेखपुर पहुंचा वही कदीमी रास्ता आज भी कायम है। चाहें बघार नाला सूखा हो या दस फिट पानी से भरा हो या पानी उफान मार रहा हो शेख जी का डोला उसी रास्ते से गुजरेगा और छडीवाज उनके पीछे-पीछे होगे। तब से ही ये छडियों की परम्परा आज तक चली आ रही है।
24 फरवरी को खिरका शरीफ (मोहम्मद सल० अलैह वसल्लम का लिवासे पाक) बाद नमाजे जोहर हजारों मुरीदीन छडियों की हिफाजत में शेखपुर दरगाह से भोजपुर ले गए और शाम 4 बजे सज्जादा नशीन हजरत मौलाना अजीजुल हक गालिब मियां की पालकी मुरीदीन की छडियों के साये में नारे तकबीर अल्लाह हु अकबर और ले चल पीर ले चल पीर की सदाओं के बीच दरगाह शेखपुर पहुंची। इस पूरे सफर में मुरीदीन के हौंसलों को तपती हुई धूप और पथरीला रास्ता भी न रोक सका 4 किलोमीटर जाना और 4 किलोमीटर आने का सफर लम्हों में तय हो गया और सज्जादा नशीन भोजपुर से शेखपुर आलमे बेहोश में पहुंचे।
दरगाह पर सज्जादा नशीन को हजरत शेख मखदूम की मजार शरीफ का तवाफ कराया गया और बड़े अदब और एहतराम के साथ आपके जिस्म से खिरका शरीफ उतारा गया और मजार के उत्तरी दरवाजे के सामने बिठाया गया और फिर लतीफ शेखपुर ने दफ बजाकर फारसी भाषा की रूबाई पढ़ी “यके दीदम ए मोहम्मद बांद अज खुदारा लाइलाह इलल्लाह” इस रूबाई को पढ़ने के थोड़ी देर बाद सज्जादा नशीन होश में आए और कुल शरीफ हुआ और सज्जादा नशीन ने अमनो अमान व सलामती और मुल्क की खुशहाली के लिए दुआएं खैर की।
शेख मखदूम का जन्म 577 हिजरी सन 1181 में बगदाद में हुआ था। आपका नाम महमूद इबने बदर है और आपको मखदूम बुर्राक लंगर जहां के खिताबात से नवाजा गया। आपने सन 1260 में मुल्क सीसतान की बादशाहत को ठोकर मार दी और रुहानी दुनिया में निकल पड़े और एक चौथाई दुनिया का भ्रमण करने के बाद अपने पीरो मुर्शिद हजरत शेख रूकनुद्दीन रुकने आलम अबुल फताह मुल्तानी के हुक्म से 746 हिजरी सन 1350 में गंगा नदी के किनारे भोजपुर तशरीफ लाए। दरगाह मखदूमियां शेखपुर में 936 हिजरी में जहीरूद्दीन बाबर 984 हिजरी में जलालुद्दीन अकबर और 1095 हिजरी में औरंगजेब और इनके बाद 1195 हिजरी में नवाब बहादुर मुजफ्फरजंग ने हाजिरी दी और नजरारे पेश किए और 24 सितंबर 1958 में तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट जनाब एल एन आचार्य ने दरगाह को मिलने वाली पेंशन को निरंतर जारी रखा। दरगाह शेखपुर कौमी एकता गंगा जमुनी तहजीव का संगम है तथा सर्वधर्म सम्भाव और सम्प्रदायिक सद्भाव की अनोखी मिसाल है।(कमालगंज से मुईद खान)