फर्रुखाबाद: चुनाव में दफ्तर खोलने के लिए एक उम्मीदवार ने 5 से 10 हजार रुपये और उसके बाद 2 हजार रुपये रोज मुहैया कराये थे। इसलिए दफ्तर खोलने की विशेषकर मुस्लिम मोहल्लों में होड़ लग गयी। नतीजतन हर चौराहे- तिराहे दफ्तर खुल गए। लोगों को खुश करने या यूं कहें कि उपकृत करने का के इससे अच्छा तरीका और क्या हो सकता था। चुनाव में न तो कोई किसी का समर्थक था और न किसी को कोई चुनाव लड़ा रहा था। होड़ थी तो केवल इस बात कि कौन कितना माल काट ले।
नारे “जाति पे न पाति पे ……….” जरूर लग रहे थे पर पूरा जोर तो इसी पर लगा था। ज्यादातर मीटिंगें मुस्लिम मोहल्लों में हो रही थीं और इन्हीं में दफ्तर खुल रहे थे। मौका ऐसा था कि लोग जरदोजी कारखानों में मजदूरी छोड़कर चुनाव में नारे लगाने से लेकर जलूस और मीटिंगों में भीड़ बढाने में जुट गए। कुछ कारखाना मालिक बताते हैं कि इन दिनों कारखानों में कारीगरों की हाजिरी 50 प्रतिशत तक कम रही।
इस बार चुनाव माफियाओं ने उम्मीदवारों को खूब ठगा। भीकमपुरा में एक बड़े नेता के जनसंपर्क के दौरान कदम-कदम पर चुनाव कार्यालय नज़र आये। जनसम्पर्क कर रहे नेता जी इन सभी दफ्तरों में गए भी। शायद इसलिए भी कि इन में तो उनका माल लड़ा था। भीकमपुरा चौराहे के एक दफ्तर में उम्मीदवार द्वारा दिए गए झंडे-झंडी से सजावट तो की गयी थी पर जिस कमरे को दफ्तर बनाया गया था उसमे न रौशनी का इंतजाम था और न बैठने का। कुछ ऐसा ही हाल दूसरे दफ्तरों का भी दिखा। इस मामले में तफ्तीश की गयी तो पता लगा की दफ्तर के नाम पर उम्मीदवार 5-5 हजार रुपये बाँट रहे थे। इसके बाद रोजाना खाना और प्रचार के लिए भी 2-3 हजार की जुगत थी। इसलिए लोगों ने दफ्तर खोलने के लिए फर्जी नामों ने अर्जियां लगानी शुरू कर दीं। उम्मीदवार और उनके कारिंदे इससे बहुत खुश थे। धड़ाधड़ दफ्तर खुलने की परमीशन मिलने लगी। कदम कदम पर दफ्तर खुले, फिर भी तमाम अर्जियां पेंडिंग रह गयीं। यहाँ बताते चलें कि इन उम्मीदवार के दफ्तर देखते हुए केवल एक पैसे वाले उम्मीदवार ने कार्यालय जरूर खोले। परंतु यह दफ्तर सेनापति, नित्गंजा, मदरबादी, भाऊटोला, नई बस्ती, खतराना, चिल्पुरा और बज़रिय जैसे मोहल्लों में खोलने कि जरूरत क्यों नहीं समझी गयी????? एक पार्टी के उम्मीदवार ने अपने दफ्तर में मुश्ताक को चाय बनाने के लिए रखा। लोग सवाल करते रहे की चाय बनाने के लिए मुश्ताक ही क्यों रखे गए। उनके दफ्तर के लंच पैकेटों में बिरयानी तो आये दिन बनी पर कड़ी- चावल एक भी दिन नहीं। येही था जाति पे न पाती पे —- का असली मर्म???
चुनावी मौसम का लुत्फ़ उठाने वाले भी बहुत चतुर चालक थे, उन्हें मालूम था की यह बहारें तो 19 फरवरी तक की ही हैं। इसलिए मौका हाथ से चूकने देने का मतलब था बेवकूफी। दो ही दफ्तर ऐसे थे जिनमे माल भी था और लज़ीज़ खाना भी। तो लोग तके रहते थे की खाना किस वक्त बतना है। एक केन्द्रीय चुनाव कार्यालय के सामने एक सज्जन चार पाई बिछाकर नेकर- बनियान बेंचते हैं। उनके पास दफ्तर खुला तो उन्होंने चुनाव तक चारपाई फ़ैलाने का नाम नहीं लिया।
दागी कर दिया-
कांग्रेस के दो नेता मन की न होने से गाल फुलाए घूम रहे थे। इनमे एक ने तो भोजपुर से टिकट मांगी थी और टिकट न मिलने पर घर बैठ गए। वे कभी साक्षी महाराज के भी ख़ास हुआ करते थे। दूसरे भी कांग्रेस के महामंत्री तक रहे। चुनाव प्रचार से गायब थे। उनके दोस्त जो इस समय जिला कांग्रेस के उपाध्यक्ष हैं ने अपने नेता को विश्वास में लेकर खटकपुरा की मीटिंग में इन दोनों को बुलवाकर भाषण करा दिया। हालाँकि यह दोनों नेता बाद में फिर नहीं दिखे पर उपाध्यक्ष जी बोले दोनों को दागी तो कर ही दिया। इनमे से एक तो सपा की जीत सुनिश्चित होने का प्रचार कर रहे थे। हार के हंगामे और जीत के जश्न के पहले कुछ और मामले होंगे पर्दा- बेपर्दा……………..