फर्रुखाबाद: ईद-उल-जुहा अर्थात बकरीद मुसलमानों का प्रमुख त्योहार है। इस दिन मुस्लिम बहुल क्षेत्र के बाजारों की रौनक बढ़ जाती है। बकरीद पर खरीददार बकरे, नए कपड़े, खजूर और सेवईयाँ खरीदते हैं। बकरीद पर कुर्बानी देना शबाब का काम माना जाता है। इसलिए हर कोई इस दिन कुर्बानी देता है।
शहर व कस्बों के ईदगाहों में बकरीद की नामज अदा करने के लिए भारी तादात में लोग जमा हुए| छोटे बड़े सभी ने अल्लाह ताला से अमन और शान्ति की दुआ माँगी| वहीं ईदगाह में हाजी ने नमाज अदा करवाई|
दुनिया में कोई भी कौम आपको ऐसी नहीं मिलेगी जो कोई एक खास दिन त्योहार के रूप में न मनाती हो। इन त्योहारों से एक तो धर्म का विशेष रूप देखने को मिलता है और अन्य सम्प्रदायों व तबकों के लोगों को उसे समझने और जानने का। अगर मुसलमानों के पास ईद है तो हिंदुओं की ईद दीवाली है। ईसाइयों की ईद बड़ा दिन (क्रिसमस) है तो सिखों की ईद गुरु पर्व (गुर पूरब) है।
कुर्बानी का मतलब आमतौर पर ईद-उल-जुहा यानी बकरीद के दिन ऊंट, बकरे आदि को जब्हि (काटना) कर देने से है। यह ठीक है लेकिन हकीकत यह है कि इस्लाम धर्म कौम से जिंदगी के हर क्षेत्र में कुर्बानी मांगता है। इसमें धन व जीवन की कुर्बानी, नरम बिस्तर छोड़कर कड़कती ठंड या भीषण गर्मी में बेसहारा लोगों की सेवा के लिए जान की कुर्बानी वगैरह ज्यादा महत्वपूर्ण बलिदान हैं। कुर्बानी का असल अर्थ यहां ऐसे बलिदान से है, जो दूसरों के लिए दिया गया हो। जानवर की कुर्बानी तो सिर्फ एक प्रतीक भर है कि किस तरह हारत इब्राहीम (बाइबल में अब्राहम) ने अल्लाह के लिए हर प्रकार की, यहां तक कि बेटे तक की कुर्बानी दे दी लेकिन खुदा ने उन पर रहमत की और बेटा जिंदा रहा।
ईद-उल-जुहा या ईद-उल-फितर मुसलमानों के उसी प्रकार दो खास फेस्टिवल हैं जैसे हिंदुओं के होली या दीवाली। ईद-उल-जुहा की एक खासियत यह भी है कि इसके कई नाम हैं। इसे नमकीन ईद और ईद-ए-कुर्बां भी कहते हैं। मगर लोग आमतौर पर इसे ‘बकरीद’ कहते हैं। यह हजयात्रा के समापन पर यानी अंतिम दिन मनाई जाती है। इस्लाम में इसे ‘सुन्नते इब्राहीमी’ का नाम दिया गया है। हजरत इब्राहीम क्योंकि अल्लाह को बहुत प्यारे थे, उनको ‘खलीलुल्लाह’ की पदवी भी दी गई है।
वैसे इस शब्द का बकरों से कोई रिश्ता नहीं है और न ही यह उर्दू का शब्द है। असल में अरबी में ‘बक़र’ का अर्थ है बड़ा जानवर जो जिब्ह किया जाता है। उसी से बिगड़कर आज भारत, पाकिस्तान व बांग्लादेश में इसे ‘बकरीद’ कहते हैं। ईद-ए-कुर्बां का अर्थ है बलिदान की भावना। अरबी में ‘.कर्ब’ बहुत पास रहने को कहते हैं यानी इस मौके पर ईश्वर मनुष्य के बहुत करीब हो जाता है।
कुर्बानी उस जानवर को जिब्ह करने को कहते हैं जिसे 10, 11, 12 या 13 जलिहिज्ज (हज का महीना) को खुदा को प्रसन्न करने के लिए दी जाती है। कुरान में लिखा है : ‘हमने तुम्हें हौज-ए-.कौसा दिया तो तुम अपने अल्लाह के लिए नमाज पढ़ो और कुर्बानी करो।’
वैसे तो इस पावन पर्व की नींव अरब में पड़ी, मगर तुजक-ए-जहांगीरी में लिखा है : ‘जो जोश, खुशी और उत्साह भारतीय लोगों में ईद मनाने का है, वह तो समरकंद, कंदहार इस्फाहान, बुख़ार, .खोरासां, बगदाद, और तबरेज जैसे शहरों में भी नहीं पाया जाता, जहां इस्लाम का आगमन भारत से पहले हुआ। बादशाह सलामत जहांगीर अपनी रिआया के साथ मिलकर ईद-उल-जुहा मनाते थे। .गैर मुसलिमों की दिल आजजारी (दिल टूटना) न हो, इसलिए ईद वाले दिन शाम को दरबार में उनके लिए विशेष शुद्ध वैष्णव भोजन हिंदुओं बावर्चियों द्वारा ही बनाए जाते थे। बड़ी चहल-पहल रहती थी। बादशाह सलामत इनाम-इकराम भी खूब देते थे। मुगल बादशाहों ने कुर्बानी के लिए गाय की सख्त मनाही की थी क्योंकि गाय बिरादरान-ए-वतन (हिंदुओं) के निकट पवित्र मानी जाती थीं और आस्था का पात्र थी।’
यह बात सोलह आने सच है कि न सिर्फ अकबर व जहांगीर के वक्त बल्कि आज भी ईद का जो असली मनोरंजन है, वह भारत में ही देखने को मिलता है। ईद वाले रोज ऐसा लगता है कि मानो यह मुसलमानों का ही नहीं, हर भारतीय का पर्व है।
ईद-उल-जुहा या ईद-उल-आहा का इतिहास काफी पुराना है जो हारत इब्राहीम से जुड़ा है। हारत इब्राहीम आज से कई हाार साल पहले ईरान के शहर ‘उर’ में पैदा हुए थे। जिस वातावरण में उन्होंने आंखें खोलीं, उस समाज में कोई भी बुरा काम ऐसा न था जो न हो रहा हो। आपने इसके खिलाफ आवाा उठाई तो सारे कबीले वाले और यहां तक कि परिवार वाले भी आपके दुश्मन हो गए। रेगिस्तानों और तपते पहाड़ों में ज्यादातर जीवन जनसेवा में बीता। संतानहीन होने की वजह से उन्होंने खुदा से गिड़गिड़ाकर प्रार्थना की जो सुनी गई और उन्हें चांद सा बेटा दिया, जिसका नाम इस्माइल रखा गया।
अभी इस्माइल की उम्र 11 साल भी न होगी कि हारत इब्राहीम को सपना आया, जिसमें उन्हें आदेश हुआ कि खुदा की राह में कुर्बानी दो। उन्होंने अपने सबसे प्यारे ऊंट की कुर्बानी दे दी। मगर फिर सपना आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दो। उन्होंने अपने सारे जानवरों की कुर्बानी दे दी। मगर तीसरी बार वही सपना आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दो।
वह समझ गए कि अल्लाह को उनके बेटे की कुर्बानी चाहिए। वह जरा भी न झिझके और पत्नी हाजरा से कहा कि नहला-धुलाकर बच्चे को तैयार कर दिया जाए। हाजरा ने ऐसा ही किया क्योंकि वह इससे पहले भी एक अग्निपरीक्षा से गुजरी थीं, जब उन्हें हुक्म दिया गया कि वह अपने बच्चे को जलते रेगिस्तान में ले जाएं। हजरत इब्राहीम बुढ़ापे में रेगिस्तान में बीवी और बच्चे को छोड़ आए।
बच्चे को प्यास लगी। मां अपने लाडले के लिए पानी तलाशती फिरी, मगर पानी तो क्या पेड़ की छाया तक न थी उस बीहड़ रेगिस्तान में। बच्चा प्यास से तड़पकर मरने को हुआ। वह एडि़यां रगड़ने लगा। हजरत जिबरइल ने हुक्म दिया कि फौरन चश्मा (तालाब) जारी हो जाए। पानी का फौव्वारा हजरत इस्माइल के पांव के पास फूटा और रेगिस्तान में यह करामत हुई। उधर, मां सोच रही थी कि शायद इस्माइल की मौत हो चुकी होगी। मगर ऐसा नहीं था। वह जीवित रहे। अब इस घटना के बाद जब यह पता चला कि बेटे का गला पिता द्वारा खुदा के लिए काटा जाएगा, तो हाजरा ने कोई हावभाव प्रकट नहीं किए। वह ऐसी बन गईं मानों मां नहीं, वह पत्थर की कोई देवी हों।
जब हजरत इब्राहीम इस्माइल को कुर्बानी की जगह ले जा रहे थे तो इबलीस (शैतान) ने उनको बहकाया कि क्यों अपने जिगर के टुकड़े को जिब्ह करने पर तुले हो, मगर वह न भटके। हां, छुरी फेरने से पहले नीचे लेटे बेटे ने पिता की आंखों पर रूमाल बंधवा दिया कि कहीं ममता आड़े न आ जाए और हाथ डगमगा न जाएं। पिता ने छुरी चलाई और आंखों पर से पट्टी उतारी तो हैरान हो गए कि बेटा तो उछलकूद कर रहा है और उसकी जगह एक भेड़ की बलि खुदा की ओर से कर दी गई है। यह देखकर हारत इब्राहीम की आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने खुदा का बहुत शुक्रिया अदा किया। यह खुदा की ओर से इब्राहीम की एक और अग्निपरीक्षा थी। तभी से यह परंपरा चली आ रही है कि जलिहिज्ज के इस महीने में जानवर की बलि दी जाती है।
वैसे बड़ी ईद (ईद-उज़-जुहा) और छोटी ईद दोनों भिन्न होते हुए भी सामाजिक रूप से समान होती हैं। ईद की विशेष नमाज पढ़ना, पकवानों का बनना, मित्रों से मिठाई बांटना, नए कपड़े पहनना, सगे-संबंधियों, मित्रों के घर जाना आदि दोनों में समान हैं।