फर्रुखाबाद: आजादी के 65 साल बाद भी मुल्क का जनमानस अपने ही द्वारा चुने गये राजनेताओं की काली करतूतों से शर्मिंदा है। सब जानते हैं कि तमाम बड़े नेता ऐसे हैं, जो भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जा चुके हैं। कोई मुख्यमंत्री हैं, तो कोई केन्द्रीय सरकार के कैबिनेट का सम्मानित सदस्य रह चुका है। यदि विधायकों और सांसदों पर चल रहे तमाम मुकदमों की गिनती की जाए, तो वह आसानी से चार अंकों के आंकड़ों को पार कर जाती है। हमारे पूर्वजों ने हुकूमत के कितने महान काम किए थे? सिर्फ छह दशकों में इन्हें धूल में मिला दिया गया।
हमारे देश में यह परम्परा बन चली है, राजनीति किसी मुद्दे को या तो आसमान पर चढ़ा देती है या उसे गर्त में मिला देती है। निगमानंद गंगा को बचाने के लिए 115 दिन से अनशन पर थे। हिन्दुस्तान के कुछ आदरणीय संत पिछले हफ्ते एक तरफ बाबा रामदेव का अनशन तुड़वाने के लिए देहरादून के हिमालयन अस्पताल के चक्कर लगा रहे थे वहीं दूसरी ओर वहीं अचेत पड़ा एक युवा संन्यासी अपने जीवन की अंतिम सांसे ले रहा था। उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। वजह? ब्राण्ड का सवाल?
हरदम चटपटी सनसनीखेज खबरें छापने/दिखाने वाले अखबारों और टीवी चैनलों ने स्वामी निगमानंद के गंगा को अवैध खनन और प्रदूषण से बचाने के लिए किये गए अनशन पर ध्यान देना मुनासिब नहीं समझा। अगर समाचार माध्यमों और स्टिंग आपरेशन करने वाले टीवी चैनलों ने उनके अनशन के बारे में जनता को बताया होता, तो इस वीर सपूत 34 वर्षीय युवा संन्यासी की जान नहीं जाती। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक माध्यमों की यह उपेक्षा बेहद लज्जाजनक है। यह मीडिया के संवदेनहीनता और संवादहीनता का ही सूचक है।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार अधिनियम कानून (मनरेगा) के अन्तर्गत हर परिवार को साल में 100 दिन का रोजगार देने का कानून बनाया है। लेकिन साल में दो 365 दिन होते हैं, 265 दिन क्या वे भूखे मरेंगे? एक साल में उसे 27 प्रतिशत दिनों की रोजगार गारंटी दी जाती है और बाकी बचे 73 प्रतिशत दिनों की रोजगार गारंटी की जिम्मेदारी कौन लेगा? जबकि प्रतिमाह के हिसाब से आंकड़े निकाला जाय तो 100 दिन की रोजगार गारंटी योजना महीने में सिर्फ 8.33 प्रतिशत दिन अर्थात् 8 दिन ही ठहरती है तो बाकी के 22 दिनों की जिम्मेदारी कौन लेगा? जबकि ठीक इसके विपरीत संगठित क्षेत्र अर्थात सरकारी सेवा में कार्यरत लोगों की शनिवार और रविवार की छुट्टी रहती है सिर्फ ये ही दिन जोड़ दिया जाय तो महीने में 8 और साल में 104 दिन की छुट्टी होती है।
इसके अलावा राष्ट्रीय पर्व त्योहार एवं अन्य छुट्टियां अलग से मिलती हैं। क्योंकि यह संगठित क्षेत्र है तो सरकार भी इनके लिए संगठित होकर कार्य करती है। बाकी असंगठित क्षेत्र के लोगों के लिए लालीपाप का झुनझुना थमा देती है। आधी-अधूरी योजनाएं लागू करके वाहवाही लूटी जाती है और गरीबों का मजाक उड़ाया जाता है। एक तरफ सरकार संगठित क्षेत्रों के लिए सप्ताह में दो दिनों की छुट्टी देती है तो दूसरी तरपफ मनरेगा रोजगार गारंटी के नाम पर दो ही दिन रोजगार की गारंटी देती है। इसलिए इंडिया और भारत में गैप बढ़ता ही जा रहा है। जब तक ऐसी योजनाएं लागू रहेगी इंडिया और भारत के गैप को मिटाया नहीं जा सकता।
आज जहां हमारे देश में भुखमरी और गरीबी के कारण लोग अपने जिगड़ के टुकड़े बच्चे को बेच देते हैं, क्योंकि वह उस बच्चे की क्षुधा को शांत करने में सक्षम नहीं है। कहां गई हमारी मानवता, हृदय की व्यथा और राज्य सरकार/केन्द्र सरकार, गैर सरकारी संगठन, धन्ना सेठ, समाज के पुरोधा और सामाजिक उत्थान करने वाले, दम्भ भरने वाले शुभचिंतक? हमारे दोनों भारत यानी भारत और इंडिया में गैप बढ़ता ही जा रहा है? जो देश के लिए कुछ करने योग्य हैं, वे सिर्फ अपने लिए करने में लगे हैं। आज जहां सरकारी बाबू करोड़पति हो गये है, वहीं आई.ए.एस. आॅफिसर अरबपति हो गये हैं ये आंकड़े सरकार द्वारा ही अभी बिहार और उत्तरप्रदेश के राज्य के बारे में जारी की गई है। ऐसे माहौल में हम किस आजादी की बात करते हैं?