फर्रुखाबाद: वर्तमान में छात्रवृति की डाटा फीडिंग करने वाली फर्म वी के प्रिंटर पर डाटा फीडिंग के लिए 5 रुपये प्रति छात्र अवैध वसूली का आरोप लगा है| ये आरोप बिलकुल भी निराधार नहीं लगता है| क्यूंकि किसी भी प्रकार से 81 पैसे में डाटा फीडिंग नहीं की जा सकती| इतने में तो मजदूरी भी नहीं निकलती फिर कंप्यूटर प्रिंटर, बिजली, टैक्स इन सबका खर्चा कहाँ से निकलेगा| इसीलिए बिना अतिरिक्त पैसे लिए किसी के लिए भी ये काम करना नामुमकिन होगा| 81 पैसे की सरकारी कीमत इसलिए रखी गयी है ताकि कोई प्राइवेट अन्य फर्म इस काम को अपने हाथ में न ले ले|ये फर्म समाज कल्याण विभाग के बाबू आत्रेय राठोर की पत्नी के नाम से है| कभी साइकिल से चलने वाला बाबू इस काले कारोबार की बदोलत अथाह सम्पत्ति बटोर चुका है| सेंट्रो कार से चलता है| लगभग 25 लाख की मशीनरी सहित कम्पूटर लैब चलाता है| उसके इस खेल में पूरी सह उसके अफसरों की होती रही है| आखिर ये सब नहीं करेगा तो कहाँ से अफसरों को खुश रखेगा और कैसे अपनी कुर्सी बरक़रार| वैसे इस फर्म पर गत 2004 के लोकसभा चुनाव में भी मतदाता सूची में गड़बड़ी के आरोप लगे थे जिसमे लाखो खर्च करने के बाद ये बचे थे| हालाँकि उसमे गड़बड़ी को नकारना अफसरों के लिए जरूरी था क्यूंकि गर्दन उनकी भी लपेटे में थी| बाद में त्रुटी को कंप्यूटर की गड़बड़ी बताकर मामला रफा दफा किया गया था| कांग्रेस प्रत्याशी लुईस खुर्शीद सहित हजारो वोट गायब करने का आरोप लगा था|
ऐसी विवादित फर्म से सरकारी अफसरों को प्रेम क्यूँ?
वर्ष 2005 से जनपद में छात्रवृति में करोडो रुपये का घोटाला हो चुका है| साल दर साल ये आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है| इस घोटाले को छुपाने के लिए विभाग के अफसरों और बाबुओ ने बड़ी तिकड़म निकाल रखी है| घोटाला खुल न जाए इसलिए इस काम को विभाग का एक बाबू अपनी पत्नी के नाम फार्म बनाकर सात साल से डाटा फीडिंग का काम करता है और समाज कल्याण विभाग के बाबू और अफसर मिलकर इस सरकारी धन को लूट आपस में बाट रहे हैं| मामला खुल न जाए इसलिए घर की बात घर मी रखी जा रही है| इसीलिए कभी किसी भी बड़े अखबार में इश्तहार निकाल नए टेंडर करने की जहमत नहीं उठायी गयी|
चंद पैसो को बचाने के लालच में जड़ पड़ गयी छात्रवृति घोटाले की-
वर्ष 2005/06 में तत्कालीन जिलाधिकारी के राम मोहन राव ने दबाब बनाकर ये ठेका कम से कम पैसे पर आवंटित करने की जो कोशिश की उसका परिणाम ये निकला कि 1.20 रुपये प्रति एंट्री वाला काम सरकारी बाबू आत्रेय राठौर की पत्नी की फर्म वी के प्रिंटर सहित दो अन्य फर्मो को ये काम 81-85 पैसे प्रति एंट्री में दे दिया गया| जिन फर्मो ने टेंडर के समय अच्छे ऊँचे रेट में निविदा हासिल की उन्हें ये काम नहीं दिया गया, बल्कि बाद में ये रेट कम करने का दबाब बनाया गया| जो अच्छे काम करने वाले थे वे निचली दरो में काम करने को तैयार नहीं हुए और काम बेहद ही कम दरो पर आवंटित हो गया| जाहिर है सरकारी बाबू जनता था कि काम से मुनाफा सीधे रस्ते से नहीं आया तो गड़बड़ माल कमाया जा सकता था| जो किसी भी साफ़ सुथरे काम करने वाले के लिए नामुमकिन था|
घोटाले दर घोटाले को छुपाने के लिए काम को बाहर नहीं जाने दिया गया-
विकास भवन के बाबू ने अपने कुटरा कालोनी स्थित सरकारी आवास में बड़ा सा कंप्यूटर केंद्र खोला और बिजली और टैक्स दोनों की चोरी करते हुए इस छात्रवृति की डाटा फीडिंग शुरू करा दी| एक दूसरे ठेकेदार जो की नगरपालिका में जूनियर इंजिनियर है को भी ये काम मिला था| तीसरा ठेकेदार जय नारायण वर्मा रोड पर डाटा फीडिंग का केंद्र लगाये था| काम वेहद ही घाटे का था मगर ये सभी ठेकेदार कमा रहे थे| कैसे? छात्रवृति फीडिंग में ही घोटाले का खेल चालू कर इन तीनो फर्मो ने काली कमाई शुरू की| वर्तमान में ये फर्म वहां से हटा कर फतेहगढ़ के किसी मोहल्ले में सिफ्ट कर दी गयी है| इस फर्म के द्वारा स्थापना से आज तक सेवाकर भी चोरी किया जा रहा है जो कि लाखो में है| इतना ही नहीं विभाग द्वारा भी किसी प्रकार का सेवाकर व् टीडीएस नहीं कटा गया| एक अनुमान के मुताबिक फर्म अब तक लगभग 1 करोड़ से ऊपर का काम कर चुकी है| फर्म चूँकि विभाग के बाबू की बेनामी है लिहाजा सभी प्रकार की अनिमियताओं में भी छूट दी गयी|
कम्पूटर पर छात्र वृति के रिकॉर्ड को दर्ज करते समय ही घोटाले की नीव रख दी फर्म ने-
परिषदीय स्कूलों के अलावा प्राइवेट स्कूल अपने यहाँ पंजीकृत छत्र संख्या बढ़ा रहे थे| प्रति बच्चा नाम बढ़ाने के लिए एक फिक्स धनराशी डाटा एंट्री वाले वसूल रहे थे| जो कि कम से कम 20 रुपये प्रति छात्र और अधिक से अधिक 100 रुपये तक होती| ये था कम पैसे में ठेका लेकर कमाने का तरीका| प्रथम वर्ष ही लगभग एक लाख से ऊपर अधिक छात्र प्राइवेट स्कूलों के फर्जी चढ़ाए गए और जमकर कला कारोबार किया गया| ये पैसा उन छात्रो के लिए लिया जाता रहा जो कि बच्चे होते ही नहीं थे| इस तरह लाखो छदम नामो से छात्रवृति निकली गयी और स्कूल प्रबन्धक, विभाग के अफसर और बाबू माल खाते रहे| सारा धंधा नगद और उधर दोनों तरीके से चला| जो केस उधार के थे उनकी छात्रवृति विद्यालयों के सही बैंक खातो में न भेज कर इधर उधर की बैंको में भेज दिया जाता| जब स्कूल प्रबन्धक पैसे के लिए कहता तो रिश्वत की पूरी वसूली के बाद पैसा सही बैंक में भेजा जाता| शमसाबाद और कायमगंज के स्कूल्स का पैसा कमालगंज के बैंक में जाने का यही मकसद होता था| इन मामलों में बैंक की भूमिका भी संदिघ है|
अफसरों ने जाँच के नाम पर कारवाही करने की जगह उगाही की-
वर्ष 2008-09 में खुद मैंने शोध कर ये घोटाला पाया और ये रकम करोडो में थी| इस बाबत पूरी रिपोर्ट और शिकायत तत्कालीन बेसिक शिक्षा अधिकारी राम सागर पति त्रिपाठी को सौपी जिन्होंने उस रिपोर्ट के आधार पर न केवल अपने आंकड़े सुधरने का प्रत्न किया बल्कि स्कूल प्रबंधनो से जाँच के नाम पर लाखो वसूल डाले| उस वक़्त समाज कल्याण अधिकारी का चार्ज राम अनुराग वर्मा के पास था| जाहिर है माल की मलाई उनके मुह भी लगी होगी|
ऐसे होता रहा खेल-
एक छोटा सा उदहारण- कम्पिल में नेशनल पब्लिक स्कूल जो कि एक कमरे का विद्यालय था उसमे लगभग 1200 बच्चो की कक्षा 1 से पांच की संख्या के लिए छात्र वृति का भुगतान किया गया और जब मामला खोल दिया तो अलगे वर्ष केवल 600 बच्चे रह गए छत्र वृति के लिए| ये विद्यालय जेड ए जमाल नाम का एक व्यक्ति चलता है| जेड ए ज़माल को यही बाबू आत्रेय मेरे पास लेकर आया जिसमे मुझे खरीदने की असफल कोशिश की थी| जेड ए जमाल लगभग एक दर्जन मदरसे जिले के विभिन्न जगहों में चलाते है जिसमे मुख्य धंधा छात्रवृति खाने का ही है| शिक्षा से इस आदमी का कोई लेना देना नहीं है| इसी प्रकार कई अन्य प्रकरण भी फाइलों में कैद होकर रह गए|
मामला फसते देख फर्म ने बिना अनुमति के स्कूल के स्कूल नए वर्ष की फीडिंग में डिलीट कर दिए
उस वर्ष फर्रुखाबाद जनपद में लगभग 150 से ज्यादा फर्जी स्कूल छात्रवृति के लिए वेबसाईट पर नामांकित किये गए जिनका कोई अस्तित्व नहीं था| इन स्कूलों का कोई रिकॉर्ड बेसिक शिक्षा कार्यालय में नहीं था| ये मिलान आज भी किया जा सकता है| हंगामा कटा तो अगले वर्ष इनमे से 100 के लगभग गायब हो गए| कमाल की ये है फर्म को अपनी तरफ से किसी भी स्कूल या बच्चे का नाम जोड़ने की अनुमति नहीं होती थी| बाबजूद इसके ये फर्म अपनी तरफ नाम जोड़ने और काटने का गोरख धंधा करती रही| आज भी पुराने रिकॉर्ड खंगाल कर इस बाट की पुष्ठी की जा सकती है| वर्ष 2009-10 में वेब साईट से हटाये गए कई स्कूल और उनके बच्चो के नाम के लिए बेसिक शिक्षा ने नहीं लिखा|
जब तक एनआईसी जागा, बहुत देर हो गयी-
अलबत्ता ये सारा काम एन आई सी की निगरानी में हो रहा था और जब तक एनआईसी पूरी तरह मामला समझ पता तब तक करोडो का खेल हो चुका था| जब भी हंगामा कटा, जाँच हुई तो जाँच करने वाला रिश्वत वसूल फाइलों को दफ़न कर गया| बात साफ़ थी सरकारी धन का गबन, जिम्मेदारी अफसरों की भी थी लिहाजा कोई घोटाला खोलने का मतलब जिला स्तर के अधिकारी भी लपेटे में होते| मगर सरकारी फाइले और बैंक रिकॉर्ड आज भी सच उगलने को तैयार हैं| जरुरत है किसी एक इमानदार अफसर की|
जेएनआई के पास आज भी वो सारे रिकॉर्ड मय शोध के हैं ये साबित करने के लिए कि घोटाला कब, कितना, क्यूँ और कैसे हुआ|
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