परिनिर्वाण दिवस: मायावती का राजनीतिक जीवन कांशीराम की देन

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परिनिर्वाण दिवस पर एक बार फिर बसपा के संस्थापक कांशीराम को याद किया गया| दलितों के उत्थान का सपना देखने वाले दिवंगत कांशीराम ने मायावती की क्षमता को पहचाना और राजनीति में आने को प्रेरित किया। कांशीराम का 9 अक्टूबर 2006 को निधन हो गया था। वह कांशीराम ही थे जिन्होंने 40 किलोमीटर की साइकिल यात्रा और सात वर्ष तक दलितों को जगाने के लिए पदयात्रा करने के बाद 14 अप्रैल वर्ष 1984 को बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के जन्मदिन पर बसपा की स्थापना की। उन्होंनें बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की।

बसपा ने तीन बार भारतीय जनता पार्टी के सहयोग और विधानसभा के पिछले चुनाव में अकेले बहुमत की सरकार बनायी और मायावती मुख्यमंत्री बनीं। मायावती को राजनीति में सक्रिय करने के साथ ही वह चुनाव लडऩे से कभी पीछे नहीं हटे। उनका मानना था कि चुनाव लडऩे से पार्टी मजबूत होती है। उसकी दशा सुधरती है तथा जनाधार बढ़ता है। बसपा प्रमुख भले ही उनके पदचिन्हों पर चलने का दावा करती हो लेकिन उनके आचरण उनके विपरित हैं।

कहा जाता है कि अपने संगठन के द्वारा जो भी धन एकत्र हुआ उसमें से कांशीराम ने एक रूपया अपने परिवार वालों को नहीं दिया और न अपने किसी निजी कार्य में खर्च किया। विभिन्न दलों से भी उनके बेहतर संबन्ध रहे। वर्ष 1993 में पहली बार इटावा संसदीय सीट से चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंचे, उस समय समाजवादी पार्टी ने बसपा का साथ दिया था। यहीं से बसपा और सपा की दोस्ती शुरू हुई। 1993 में दोनों पार्टियों की गठबंधन की सरकार उत्तर प्रदेश में बनी और मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने परन्तु वर्ष 1995 में बसपा ने समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गयी।

 

मायावती के बसपा की डोर थमाने के बाद कांशीराम ने बसपा के अन्य दलों से बेहतर संबन्ध बनाने के प्रयास किये। कांशीराम ने पार्टी और दलितों के हित के लिये सपा, भाजपा व कांग्रेस सभी का साथ दिया और सहयोगी बने। उनका मानना था कि राजनीति में आगे बढऩे के लिए यह सब जायज है। उनका राजनीतिक दर्शन था कि अगर सर्वजन की सेवा करनी है तो हर हाल में सत्ता के करीब ही रहना है। उन्होंनें बाबा साहब के इस सिद्धांत को माना कि ‘सत्ता ही सभी चाबियों की चाबी है।’ बसपा नेताओं को मानना है कि वह आज भी कांशीराम का अनुसरण कर दलितों की राजनीति कर रहे हैं।