पढ़ें: आम आदमी के केजरीवाल बनने तक का सफर

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kejriiiiiiiनई दिल्ली: दिल्ली अब आप की हो गई है। आप यानी आम आदमी पार्टी की। उसके संयोजक अरविंद केजरीवाल अगले पांच साल के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री चुन लिए गए हैं। अरविंद केजरीवाल यानी वो शख्स जो एक आम आदमी से भारतीय राजनीति का प्रथम विद्रोही बनकर उभरा और देखते ही देखते दिल्ली के तख्त पर जा बैठा। अब उसकी इस तख्त पर वापसी हुई है लेकिन पहले से ज्यादा (बल्कि दोगुने ज्यादा) भरोसे और ताकत के साथ। ऐसे में ये जानना जरूरी है कि केजरीवाल की शख्सियत में ऐसा क्या खास है जिसके चलते लोगों ने तमाम सियासी दिग्गजों को नकारते हुए उनपर ही एक बार फिर दांव खेला।

जिंदगी सिर्फ जीने का ही तो नाम नहीं है। जिंदगी जीने के लिए एक मकसद चाहिए और ये मकसद अरविंद केजरीवाल को मिला आईआईटी खड़कपुर से मैकेनिकल इंजीनियरिंग करने के बाद। देश के नामी संस्थान से इंजीनियरिंग करने के बाद उनके बहुत सारे साथी विदेश जा रहे थे, नौकरी करने के लिए, पैसा कमाने के लिए लेकिन सिर्फ 21 साल के अरविंद के दिमाग में कुछ ऐसा चल रहा था जिसने उन्हें बाहर जाने से रोक दिया। आखिर क्यों जाऊं मैं, ये मेरा देश है, मुझे इसके लिए काम करना है।

इसी उधेड़बुन में उन्होंने टाटा स्टील में असिस्टेंट मैनेजर की नौकरी शुरू की लेकिन यहां उनका मन नहीं लगा। सोचा एमबीए करें या सिविल सर्विसेस और जीत दिमाग की नहीं दिल की हुई। मन देश के लोगों में लगा था और उसका जरिया बनी सिविल सर्विसेस।

1992 में अरविंद केजरीवाल ने सिविल सर्विसेस का इम्तिहान दिया और लिखित परीक्षा में आसानी से कामयाब भी हो गए लेकिन एक दिन अचानक वो भिवानी के अपने घर में पहुंचे और ये कहकर सबको चौंका दिया कि मैं कुछ दिन के लिए घर छोड़ना चाहता हूं। मेरी चिंता मत करिएगा, मैं जहां भी रहूंगा ठीक रहूंगा। घर में मां गीता देवी परेशान, बाकी रिश्तेदार परेशान लेकिन अरविंद नहीं माने।

मन हर तरफ दौड़ रहा था, कहां जाऊं, किससे मिलूं। ठंडे दिमाग से सोचने के बाद उन्होंने ट्रेन पकड़ी और सीधे असम का रुख किया लेकिन एक जादुई सी शक्ति उन्हें खींचती हुई कोलकाता तक ले आई। जब होश संभला तो 24 साल के अरविंद ने खुद को एक लाइन में लगा पाया। सैकड़ों लोग चुपचाप, कतारबद्ध मदर टैरेसा से मिलने का इंतजार कर रहे थे। अरविंद की बारी आई तो उन्होंने मदर टैरेसा से सिर्फ इतना कहा- मां, मैं आपके साथ काम करना चाहता हूं। मदर टैरेसा ने अरविंद का हाथ थामा और बोलीं जाओ, कुछ दिन कालीबाड़ी में काम करो।

कोलकाता से अरविंद केजरीवाल का बेहद भावनात्मक रिश्ता है। 24 साल के किस नौजवान में इतना बूता होता है कि टाटा स्टील जैसी नामी कंपनी से इस्तीफा दे दे। सिविल सर्विसेस में चुने जाने के बाद अपना घर छोड़ दे लेकिन अरविंद केजरीवाल तो अपनी धुन में थे। एक जज्बा था कि उन्हें यहां तक ले आया था।

मदर टैरेसा के आश्रम में अरविंद केजरीवाल करीब 2 महीने तक रहे। उन्होंने पैदल चलते-चलते शहर की हर सड़क नाप डाली जो गरीब, बेसहारा उन्हें सड़क किनारे पड़े नजर आते अरविंद उन्हें मदर टैरेसा के आश्रम में ले आते। यहां अरविंद ने सीखा कि जो बीमार है, लाइलाज है उसे भी इज्जत से मौत पाने का हक है इसलिए जब तब हो सके उसकी सेवा करो।

कोलकाता की गरीबी और व्यवस्था की जवाबदेही ने केजरीवाल को झकझोर कर रख दिया कुछ दिनों के लिए उन्होंने रामकृष्ण मिशन में अपना हाथ बंटाया। घर से दूर उस ऐहसास को जीया कि घर ना होने का मतलब क्या होता है। गरीब का मतलब क्या होता है और देश के आम आदमी को नर्क में ढकेलते जा रहे सिस्टम का मतलब क्या होता है।

करीब 6 महीने तक असम, पश्चिम बंगाल में रहने के बाद अरविंद केजरीवाल ने हरियाणा में कुछ दिन नेहरू युवा केंद्र के लिए भी काम किया। इस बीच घर वालों ने खोजते-खोजते उन्हें ये संदेश पहुंचा ही दिया कि सिविल सर्विसेस के इंटरव्यू की तारीख आ गई है। केजरीवाल घर पहुंचे, इंटरव्यू दिया और कल तक कोलकाता की गलियों की खाक छान रहा ये शख्स इंडियन रेवेन्यू सर्विसेस के लिए चुन लिया गया।

केजरीवाल ने पहला पद संभाला देश की राजधानी दिल्ली में। अब वो इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में असिस्टेंट कमिश्नर थे। भारी भरकम पद, भारी भरकम रुतबा और उम्र सिर्फ 24 साल। लेकिन जल्द ही केजरीवाल को ऐहसास हो गया कि वो गलत जगह पहुंच गए हैं। अरविंद अपने साथियों से लगातार अपनी चिंता के बारे में बताते रहे लेकिन सभी ने यही सलाह दी- जल्दबाजी में कोई गलत फैसला ना लो।

वक्त बीतता गया, केजरीवाल भीतर से छटपटाते रहे लेकिन वो इस सिस्टम का हिस्सा बनने के लिए तैयार नहीं थे। नौकरी के 8 सालों ने अरविंद केजरीवाल में ये समझ पैदा कि कि इस देश का सिस्टम काम कैसे करता है। कैसे फाइलों. सरकारी आदेशों और अफसरों के बीच आम आदमी लगातार पिसता है, लेकिन कुछ कर नहीं पाता।

केजरीवाल ने बदलाव की शुरुआत घर से ही की। जो गंदगी आयकर विभाग में थी उसे साफ करने का बीड़ा उठाया। हर किसी की जिंदगी में एक वक्त ऐसा भी आता है जिसमें लिया गया फैसला आने वाली जिंदगी तय कर देता है। केजरीवाल के लिए ये वक्त था साल 2000 का। एक रात ऐसे ही उन्होंने अपने भाई और रिश्तेदार से 50 हजार रुपए उधार लिए और परिवर्तन नाम की संस्था की नींव रख डाली। मकसद उन लोगों की मदद करना जिन्हें आयकर विभाग में छोटे-छोटे कामों के लिए घूस देनी पड़ती है।

अब अरविंद केजरीवाल ने नौकरी में रहते हुए ही बिना अपना नाम सामने लाए लोगों की मदद करनी शुरू की। सिर्फ डेढ़ साल में परिवर्तन ने बिना घूस दिए 800 लोगों की शिकायतें सुलझाईं और अपने सीनियर अफसरों को ये पता तक नहीं चलने दिया उनके बीच का ही कोई शख्स आम आदमी को इंसाफ दिला रहा है।

हालांकि कुछ महीनों बाद ही केजरीवाल को ऐहसास हो गया कि नौकरी और परिवर्तन एक साथ नहीं चल सकते। हर तरफ भ्रष्टाचार था, हर विभाग में भ्रष्टाचार था। जो लोग पहले दलालों के पास जाते थे वो बिजली, पानी, राशन कार्ड की दिक्कतें लेकर उनके पास आने लगे। अरविंद केजरीवाल को यहां जिंदगी का दूसरा और अहम सबक मिला।

लोगों को खुद अपने अधिकारों के लिए लड़ना होगा। संस्थाएं फौरी तौर पर मदद तो कर सकती हैं लेकिन समस्या को जड़ से खत्म करने के लिए आम आदमी को ही आगे आना होगा। इस हालात में अब आगे क्या। अरविंद इस सवाल से उलझ ही रहे थे कि साल 2001 में दिल्ली सरकार ने सूचना का अधिकार कानून पास कर दिया।

सूचना का अधिकार केजरीवाल के लिए बड़ी उम्मीद लेकर आया। लेकिन जब उन्होंने कुछ विभागों से इस कानून का सहारा लेकर जानकारी मांगी तो जवाब ये मिला कि इस कानून के बारे में उन्हें कुछ पता ही नहीं है। दरअसल सरकार ने कानून तो पास कर दिया लेकिन उसे अमल में लाने का आदेश ही नहीं दिया। बिना तनख्वाह के छुट्टी पर चल रहे केजरीवाल धरने पर जाकर बैठ गए। दबाव में आई सरकार को आखिरकार नोटिफिकेशन जारी करना पड़ा।

अब अरविंद केजरीवाल के हाथ अब तक का सबसे बड़ा हथियार था। दो साल से बिजली कनेक्शन नहीं लगा- आरटीआई डालो, 10 दिन में कनेक्शन लगेगा, राशन कार्ड नहीं मिला- आरटीआई डालो, राशन कार्ड घर देकर जाएंगे वो भी बिना घूस लिए। अरविंद केजरीवाल ने सूचना के अधिकार कानून को घर-घर जाकर लोगों को समझाना शुरू किया। जो अफसर फंसते वो विरोध भी करते लेकिन बुलंद हौसले वाले इस शख्स ने कभी परवाह नहीं की। जब एक दिन उनके एक साथी का गला काट दिया गया तब अरविंद को हकीकत का अंदाजा हुआ। अगर सूचना का अधिकार कानून आम आदमी की मदद करता है तो हमारा ताकतवर सिस्टम उसका उतना ही विरोध भी करता है।

केजरीवाल ने हिम्मत नहीं हारी। वो लोगों को आरटीआई एक्ट का फायदा उठाने के लिए समझाते रहे। लोगों में परिवर्तन होता उन्हें दिखा भी। 2004 के आसपास का ये वो वक्त था जब सियासी हल्कों में और प्रशासनिक अमले में अरविंद केजरीवाल को आयकर विभाग के ज्वाइंट कमिश्नर से ज्यादा आरटीआई कार्यकर्ता के तौर पर जाना जाने लगा। कुछ महीनों बाद ही अरविंद केजरीवाल ने नौकरी के बंधन से भी मुक्ति पा ली। जब जंग लड़नी ही है तो फिर बंधन क्यों। उन्होंने अपना आंदोलन जारी रखा और अब मांग ये थी कि सूचना का अधिकार कानून पूरे देश में लागू किया जाए।

आम आदमी के बीच जाकर केजरीवाल ने आरटीआई एक्ट के समर्थन में माहौल बनाना शुरू किया। नतीजा ये कि आखिरकार साल 2005 में संसद को सूचना का अधिकार कानून पास करना पड़ा। अब इस देश के आम आदमी के पास वो ताकत थी जो अफसरों की नींद कुछ देर के लिए ही सही उड़ा सकती थी। उनको जवाबदेह बना सकती थी। केजरीवाल ने शहर-शहर जाकर नौजवानों को इस कानून की बारीकियां समझाईं। इस आंदोलन की कामयाबी के चलते अरविंद केजरीवाल को 2005 में मैगसैसे पुरस्कार से नवाजा गया। सीएनएन-आईबीएन ने उन्हें 2006 में इंडियन ऑफ द ईयर का भी अवॉर्ड दिया

लेकिन परिवर्तन की जिद में केजरीवाल आगे ही बढ़ते गए। मैगसेसे पुरस्कार से मिले 45 लाख रुपये से उन्होंने एक दूसरी संस्था खड़ी कर ली। नाम दिया पब्लिक कॉज रिसर्च फाउंडेशन। ये संस्था देश भर के लोगों को आरटीआई एक्ट और तमाम दूसरे कानूनों से जुड़ी जानकारी समझाने का काम करती है। आखिर ये कानून ही तो है जो आम इंसान को उसके अधिकार दिलाता है।

एक कानून ने अगर केजरीवाल की जिंदगी बदली तो अब दूसरे कानून के जरिए वो पूरे देश की किस्मत बदलना चाहते हैं। सिस्टम में रहकर सिस्टम की कमियां जानना और फिर उसे कानूनों के जरिए दूर करना। अगर आज अरविंद केजरीवाल की पहचान आरटीआई कार्यकर्ता के तौर पर है तो वो ये भी जानते हैं कि इस कानून की अपनी सीमाएं हैं। अगर परिवर्तन करना है तो आमूलचूल करना होगा। हर तरफ-हर स्तर पर करना होगा। इसलिए फिर उन्होंने नारा लगाया- जन लोकपाल बिल का।

2011 में इंडिया अगेंस्ट करपशन के बैनर तले अन्ना हजारे के नेतृत्व में केजरीवाल और उनके साथियों ने जन लोकपाल के लिए आवाज उठाई। अन्ना भ्रष्टाचार विरोधी जनलोकपाल आंदोलन को राजनीति से अलग रखना चाहते थे, जबकि अरविंद केजरीवाल और उनके सहयोगियों की यह राय थी कि पार्टी बनाकर चुनाव लड़ा जाए। इसी उद्देश्य के तहत आम आदमी पार्टी के गठन की आधिकारिक घोषणा 26 नवंबर 2012 को भारतीय संविधान अधिनियम की 63वीं वर्षगांठ के अवसर पर जंतर मंतर, दिल्ली में की गई।

पार्टी पहली बार दिसंबर 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में झाड़ू चुनाव चिह्न के साथ चुनावी मैदान में उतरी। पार्टी ने चुनाव में 28 सीटों पर जीत दर्ज की और कांग्रेस के समर्थन से दिल्ली में सरकार बनाई। अरविंद केजरीवाल ने 28 दिसंबर 2013 को दिल्ली के 7वें मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। 49 दिन के बाद 14 फरवरी 2014 को विधान सभा द्वारा जन लोकपाल विधेयक प्रस्तुत करने के प्रस्ताव को समर्थन न मिल पाने के कारण अरविंद केजरीवाल की सरकार ने त्यागपत्र दे दिया। एक साल बाद केजरीवाल अब फिर से 14 फरवरी को दिल्ली के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने जा रहे हैं।