एक मामूली से निजी स्कूल की छत की चारदीवारी गिरने से 20 बच्चो की घायल होने की खबर तो एक मात्र अनहोनी का सूचक है| ऊपर वाले की मेहरबानी से बच्चे बच गए वर्ना बेसिक शिक्षा कार्यालय के बाबू और अधिकारियो ने तो मौत की दीवार को चंद रिश्वत के टुकड़ो में पास कर ही दिया था| अखबारों के तीसरे पन्ने खबरों से मासूमो के घायल होने की खबरों से सराबोर होंगे| प्रशासनिक अफसरों ने स्कूल संचालक के खिलाफ मुकदमा लिखाने के फरमान जारी कर दिया| हो सकता है की मुकदमा लिखा भी जाए मगर क्या इससे व्यवस्था में कुछ सुधार आ पायेगा? क्या अन्य वे स्कूल जो मासूमो की सुरक्षा से खिलवाड़ कर सिर्फ बच्चो की शिक्षा का व्यवसाय करने में जुटे है उन पर कोई लगाम लग पायेगी? शायद नहीं क्योंकि व्यवस्था सुधारने का माद्दा और सोच न तो प्रशासनिक अफसरों में है और न ही शिक्षा विभाग में| चापलूसी से लवरेज तारीफ सुनने का शौक रखने वाले अफसर चांदी के जूते के बदले अपना ईमान जो बेच रहे है| इन्हे न लाज है और न ही कोई शर्म|
संजय शर्मा के स्कूल के बच्चे घायल हो गए| संजय शर्मा पर अपराधिक मुकदमा लिखाने से पहले क्या यह पड़ताल नहीं होनी चाहिए कि इस स्कूल को गैर मानक से बने भवन में स्कूल चलाने के लिए किस किस अफसर और बाबू ने संस्तुति कर हस्ताक्षर किये थे| अपराध करने वाले के साथ साथ उसके सहयोगी बेसिक शिक्षा विभाग के अफसरों पर कार्यवाही क्यों नहीं होनी चाहिए| दो चार दिन अखबारों में सुर्खिया बटोरने के लिए जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी के फरेबयुक्त बयान भी छपेंगे| मगर असल में होगा कुछ नहीं| बेसिक शिक्षा अधिकारी अपने अधीनस्थों को कई कड़ाईयुक्त पत्र लिख्नेगे, सूचना मांगेगे, और आदेश लिखेंगे| आखिर शासन और प्रशासन में अपनी खाल जो बचानी है| यही होता है सरकारी दफ्तरों में| जब अफसर पर बन आती है तब वो एक पत्र बैक डेट में अधीनस्थों को लिख मारता है ताकि शासन को जबाब दिया जा सके कि उसने तो समय पर कार्यवाही की थी और उस पत्र की एक प्रति भी भेज दी जाती है| ऐसे सैकड़ो हजारो पत्र फाइलों में सड़ते रहते है और उन पर इतनी धूल जमी होती है कि प्रधानमंत्री का स्वच्छता अभियान भी उसका बाल बांका बिगाड़ नहीं सकता|
बात स्कूल की एक दीवार गिरने भर नहीं है| शिक्षा विभाग का तो पूरा ही चरित्र गिरा हुआ महसूस होता है| बच्चो को बाटने वाली निशुल्क स्कूल ड्रेस से लेकर किताबो और दोपहर के भोजन तक पर गिद्ध निगाह स्कूल के अधिकांश मास्टरों से लेकर अफसरों की रहती है| शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के तहत पहले से चल रहे उन स्कूलों को जिनके भवन या अन्य मानक पूरे नहीं है उन्हें 2013 तक सभी मानक पूरे कर एक शपथ पत्र देना था उसके बाद ही वे स्कूल सचालित कर सकते थे| मगर लानत है कि जिले में ऐसे कोई शपथ पत्र जमा नहीं हुए और हुए तो फर्जी| इस सबंध में नियम विरुद्ध नगर शिक्षा अधिकारी का प्रभार लिए सर्व शिक्षा अभियान के समन्वयक अनिल शर्मा का कहना है कि इस नियम की जानकारी उनके संज्ञान में नहीं है| वे अब मामले की पड़ताल करेंगे| अपनी सफाई में श्री शर्मा ने कहा कि इस स्कूल की मान्यता पहले से ही है| हालाँकि स्कूल संचालक संजय शर्मा का कहना है कि उन्होंने इस वर्ष ही मान्यता का रिनोवाल कराया है| खैर काम के प्रति लापरवाही या अनदेखी और ऊपरी कमाई पर खास नजर रखने वाले अफसरों से इससे ज्यादा की उम्मीद ही वर्तमान में यूपी में रखी जा सकती है| श्री शर्मा कोई हटकर काम नहीं कर रहे है| दो चार चार्ज और मिल जाए इस बात के लिए लालायित रहने वालो से ज्यादा की उम्मीद भी जनता न करे| फिर भी सवाल तो बनता ही है|
किसी का घर जला तो किसी को जहाँ रोशन होने का गुमा हुआ-
स्कूल के बच्चे घायल हुए तो आवास विकास कॉलोनी में सरकारी अस्पताल के इर्द गिर्द जमे प्राइवेट नर्सिंग होम वालो की भी उड़ के लग आई| कहावत है कि “कसाई के कोसे पड़रा नहीं मारता” फिर भी हर शमशान घाट का महाब्राह्मण सुबह उठकर अपने दरवाजे पर लगे खूटे को तो ठोकता ही है इस उम्मीद के साथ कि दो चार लाश आ जाए तो दाल रोटी चले| हाल इससे इतर नहीं है आवास विकास में इलाज की मंडी के| सरकारी लोहिआ अस्पताल में इलाज के लिए आये बच्चे देर शाम ढलते ढलते चले गए| कुछ मामूली इलाज के बाद घर गए तो कुछ नर्सिंग होमो के दलाल उठा ले गए| सरकारी व्यवस्था में विश्वास की कमी के चलते कोई माँ बाप अपने बच्चे का इलाज लोहिआ अस्पताल में नहीं कराना चाहता| क्या यही समाजवाद है? क्या यही व्यवस्था है? क्या इसी के लिए लोग वोट डालते है? एक अकेले “चौहान” क्या पाएंगे यहाँ तो डकैतो कि पूरी फ़ौज खड़ी है| क्या समाज और क्या प्रशासन? ये दुनिया तो लुटेरो की बस्ती सी लगती है|
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