फर्रुखाबाद: मशहूर शायर अदम गोंडवी की शैर-”तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकड़े झूंठे हैं और दावा किताबी है” आज अनायास ही याद आ गई| लेकिन क्या पता था कि ऐसे ही झूठे आंकड़ों की हकीकत सामने आने वाली है| लेकिन ईश्वर जो करता है उसका कुछ प्रयोजन जरूर होता है| सब कुछ ऐसे ही नहीं होता| स्वास्थ्य महकमे की फाइलों में दबी एक ऐसी ही सच्चाई आज अचानक सामने आ गई| क्या अंधेरगर्दी है? आप भी इस खबर को सुनकर ताज्जुब मान जायेंगे| क्या आपको पता है जिले में चल रहे अधिकाँश निजी अस्पताल अबैध हैं? जी हाँ यह हकीकत है और इसको खुद सीएमओ भी स्वीकार करते हैं|
जिले में चल रहे ज्यादातर निजी अस्पतालों के पास क्षेत्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं है| जिन अस्पतालों के पास अनापत्ति प्रमाण पत्र हैं वह उँगलियों पर गिनने लायक हैं| नियमानुसार बोर्ड के अनापत्ति प्रमाण पत्र के बिना किसी निजी अस्पताल संचालक को अस्पताल चलाने का लाइसेंस जारी नहीं किया जा सकता| अब यह सोचने की बात है कि जब निजी अस्पतालों के पास अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं है तो उनका सञ्चालन कैसे हो रहा है? और यदि लाइसेंस जारी नहीं हुआ तो ऐसे सभी अस्पताल अवैध हैं| उनके खिलाफ स्वास्थ्य विभाग और जिला प्रशासन को कार्रवाई करनी चाहिए| उनको शील कर देना चाहिए और संचालकों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवानी चाहिए| लेकिन ऐसा भी नहीं हो रहा| सभी निजी अस्पताल धड्हल्ले से चल रहे हैं और संचालक आए दिन लाखों के बारे-न्यारे कर रहे है| कार्रवाई नहीं होने के दो ही अर्थ निकलते हैं पहला तो यह कि इन अस्पतालों की ओर से अफसरों को इतना चढ़ावा चढ़ा दिया जाता है कि उनके खिलाफ बोलने की जरूरत ही नहीं समझी जाती| दूसरा यह कि इन अस्पतालों के खिलाफ कार्रवाई करने से अफसर घबडाते है, उसका चाहे जो भी कारण हो| लेकिन एक बात तो समझ में आती है की बलि हमेशा बकरी के बच्चे की ही चढ़ाई जाती है| झोलाछाप के खिलाफ आए दिन अभियान चलते हैं लेकिन इन अवैध निजी अस्पतालों के खिलाफ कोई अभियान नहीं चलाया जाता|
अब मुद्दें की बात पर आते हैं, दरअसल अस्पतालों में मरीजों के इलाज पर प्रयोग होने वाली दवा व उपचार में प्रयुक्त अन्य अपशिष्ट पदार्थ ‘जैविक कचरा’ सेहत के लिए सबसे अधिक नुकसान दायक है| इस कचरे से गंभीर बीमारियों के फैलने का खतरा रहता है| जैविक कचरे से छय रोग के फैलने की सबसे अधिक आशंका रहती है| अस्पताल संचालकों को जैविक कचरे के सुरक्षित निस्तारण के लिए किसी ऐसी फर्म या कंपनी से अनुबंध करना होता है जिसको क्षेत्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड मान्यता देता हो| वह कंपनी उस अस्पताल से 200 किमी से अधिक दूरी पर स्थित नहीं होनी चाहिए| इसके अतिरिक्त अस्पतालों में ऐसे सयंत्र भी लगवाए जा सकते हैं जिनसे जैविक कचरे का सुरक्षित निस्तारण हो सके और वह सयंत्र प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड के मानक पर सही हों| इस कसौटी पर खरे उतरने वाले अस्पतालों को क्षेत्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड अनापत्ति प्रमाण पत्र प्रदान करता है| अस्पताल का लाइसेंस लेने अथवा नवीनीकरण करवाने के समय यह अनापत्ति प्रमाण पत्र अन्य पत्रावलियों के साथ फ़ाइल में लगाना अनिवार्य होता है| सीएमओ कार्यालय अनापत्ति प्रमाण पत्र के बिना लाइसेंस जारी नहीं कर सकता है|
जिले में चल रहे अधिकांश निजी अस्पतालों के पास क्षेत्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं है| कई अस्पताल संचालक मथुरा की किसी फर्म से अपना अनुबंध होने दावा करते हैं| लेकिन उसको बोर्ड मान्यता प्रदान नहीं करता है| क्योंकि फर्म निर्धारित मानक से अधिक दूरी पर है| यही वजह है कि निजी अस्पतालों के पास अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं है|
इस सच्चाई को सीएमओ डॉ राकेश कुमार भी स्वीकार करते हैं| लेकिन उनके पास इस बात का कोई जबाब नहीं है कि फिर ऐसे निजी अस्पताल चल कैसे रहे है? इस सवाल पर उनका एक ही जबाब है कि ऐसे सभी अस्पतालों को नोटिस जारी कर दिए गए हैं| नोटिस का जबाब नहीं देने वाले अस्पतालों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी, उनके लाइसेंस निरस्त किए जाएंगे| नोटिस जारी किये हुए भी एक महीना हो गया है| साथ ही उनका यह भी कहना है कि ऐसे अस्पतालों के खिलाफ क्षेत्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को कार्रवाई करनी चाहिए| वाह क्या चौकस धंधा है, एनओसी के बिना लाइसेंस जारी करें आप और कार्रवाई करे बोर्ड|