दिल्ली: मनरेगा की नाव पर सवार होकर वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों की वैतरणी पार कर यूपीए दो की सत्ता पर काबिज होने वाली सरकार के लिए अब यही योजना अगले लोकसभा चुनाव में खतरे की घंटी बन सकती है।
मनरेगा में मुश्किल से काम मिलने, समय पर मेहनताना का भुगतान न होने के साथ आधा अधूरा भुगतान जैसी शिकायतें अब आम हो चुकी हैं।
सख्त कानून के बावजूद राज्य इन्हें मानने को तैयार नहीं हैं। सात वर्षों के बाद भी मनरेगा कामगारों को बेरोजगारी भत्ता देने संबंधी प्रावधान फाइलों से आगे नहीं बढ़ पाए हैं।
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इसके चलते केंद्र सरकार के लिए अब मनरेगा बड़ी मुसीबत बन गई है। हालांकि केंद्र ने राज्यों को हिदायत दी है कि यदि उन्होंने जल्द ही बेरोजगारी भत्ते के नियम नहीं बनाए तो मनरेगा फंड को रोकना सरकार की मजबूरी होगी।
ग्रामीण विकास मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी मानते हैं कि मनरेगा में भ्रष्टाचार का दीमक इस कदर घुस गया है कि अब इसे साफ करना संभव नहीं है। सख्त कानून के बाद भी राज्य इसे मानने को तैयार नहीं हैं।
केंद्र सरकार के सामने दिक्कत यह है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के कारण राज्यों के लिए आवंटित फंड को ज्यादा समय तक पूरी तरह से रोक पाना संभव नहीं है। राज्य सरकारें इसी का फायदा उठा रही हैं।
ना सिर्फ भाजपा बल्कि कांग्रेस शासित राज्यों में भी मनरेगा कामगारों को काम न मिलने पर बेरोजगारी भत्ता नहीं मिल पा रहा है। जबकि मनरेगा कानून के तहत बेरोजगारी भत्ता मिलना उनका कानूनी अधिकार है।
मंत्रालय के मुताबिक उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, केरल, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, पंजाब, तमिलनाडु, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर, असम, गोवा और अरुणाचल प्रदेश सहित कुल अठारह राज्य ऐसे हैं। जिन्होंने मनरेगा कामगारों को काम न मिलने पर बेरोजगारी भत्ता देने के लिए नियम-कायदे ही नहीं बनाए हैं।
हालांकि कुछ राज्य ऐसे भी हैं, जो मनरेगा कामगारों को बेरोजगारी भत्ता दे रहे हैं। इन राज्यों में कामगारों को काम मांगने के 15 दिनों तक यदि काम नहीं मिलता है तो उनके खाते में स्वत: ही बेरोजगारी भत्ता जमा हो जाता है।