FARRUKHABAD : गंगा का जल स्तर बढ़ने के साथ ही लोगों के दिलों की धड़कनें भी बढ़ती जा रही हैं। एक तरफ गंगा का जल स्तर खतरे के निशान से ऊपर की तरफ निरन्तर बढ़ता जा रहा है। उसी के साथ दूसरी तरफ बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों के निवासियो की रात की नींद और दिन का चैन जो पहले ही बाढ़ छींन चुकी है। एक बार फिर गायब होता जा रहा है।
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बाढ़ की इस विभीषिका में सैंकडों घर पहले ही बहकर गंगा की गोद में समा चुके हैं। जैसे तैसे जिन्दगी के दिन काट रहे बाढ़ पीडि़त अब यह सोच सोचकर परेशान हैं कि अब उनके पास क्या बचा है जो एक बार फिर मां गंगा उनसे छींनने के लिए अपना रौद्र रूप पुनः धारण कर रही हैं। बाढ़ की यह विभीषिका क्षेत्र के लिए नई नहीं है। हर साल बाढ़ आती है इनके घरों, गृहस्थी और खेती को चट करके चली जाती है।
हर साल बाढ़ पीडि़तों की सहायता के नाम पर सैंकड़ों कल्याणकारी और सहायतार्थ कार्यक्रमों की घोषणा की जाती है। अगर ईमानदारी से जांच करके देखा जाये तो इन सहायतार्थ कार्यक्रमों के नाम पर बांटी गयी सहायता का सौवां हिस्सा भी संभवतः बाढ़ पीडि़तों तक नहीं जा पाता। न तो कभी इनके सुरक्षित पुनर्वास की ओर ईमानदारी से कोई प्रयास किये गये और न ही इनको और इनकी खेतियों को बचाने के लिए कोई ठोस उपाय किये गये।
अगर सहानुभूति पूर्वक इनके संबंध में सोचा गया होता तो आज क्षेत्र में जो हालत है वह नहीं होती। इन तक जाने के सभी सम्पर्क मार्ग ध्वस्त पडे हैं जिन पर पानी की तेज धार बह रही है। घरों के नाम पर टूटे फूटे खडहट्टों, त्रिपाल और टीन के टुकडों की छतों और बांस बल्ली के टुकडों की दीवारों तथा मचानों पर जिनमें ये पीडि़त अपनी रातें गुजार रहे हैं। ऐसे में भी इनको चैन नसीब नहीं क्यों कि बाढ़ के प्रकोप के साथ ही क्षेत्र में संक्रामक रोगों की भी बाढ़ आ जाती है। इन क्षेत्रों का कोई भी घर ऐसा नहीं जिसमें कोई न कोई बीमारी और दवाओं के अभाव में कराह न रहा हो।
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जहां तक चिकित्सीय सुविधाओं को इन तक पहुंचाने की सुविधा है तो बाढ़ के कारण बही सड़कों, खडंजों और इनके ऊपर बह रहे पानी ने इस सुविधा को भी इनसे छींनकर इनकी असुविधाओं को और बढ़ा रखा है। यातायात के साधनों का इन तक न पहंुचना भी एक बड़ी समस्या है। बीमारों को अस्पताल तक लाना और उनको दवा दिलाकर उनकी जान बचाने का काम परिजन जैसे तैसे कर तो रहे हैं किसी को साइकिल पर लादकर और किसी को कांधों पर उठाकर बाढ़ के पानी से पार कराकर ये लोग उन्हें इलाज मुहैया करा रहे हैं। सरकारी तौर पर जो कुछ भी हो रहा है वह केवल किनारे किनारे की बात है। बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों मंे अंदर तक जाना वर्तमान में इनके बस की बात नहीं।
क्षेत्र में चूल्हा जलाना भी इस समय एक टेढ़ीखीर बना हुआ है। जलाने के लिए न तो इनके पास सूखी लकड़ी बची है और न ही सूखा स्थान, जिस पर ये अपना चूल्हा जला सकें। चारपाईयों पर तख्ते रखकर और या लकड़ी की ऊंची चैकियों पर ये लोग मिट्टी के तेल के स्टोव जलाकर जैसे तैसे पेट की आग बुझाने की जुगत कर पा रहे हैं। ऐसे में मिट्टी का तेल मिलना भी एक बड़ी चुनौती बना हुआ है।