अपनों से अपनी बात –
हर आंख का आंसू पोंछना होगा तभी जनतंत्र आयेगा- महात्मागांधी।
‘‘इसके लिए हर मतदाता को निष्पक्ष और निर्भीक होकर शत प्रतिशत मतदान का संकल्प करना होगा। मैने कभी यह दावा नहीं किया कि मैं दूध का धुला हुआ हूं या मुहं में सोना डाले हूं। मैं भी सामान्य इंसान हूं। मानवीय कमजोरियों और गलतियों से पर नहीं हूं। हां मेरा प्रयास सदैव यह रहता है कि मेरे से कम से कम गलतियां हों। मानवीय कमजोरियां मेरे ऊपर हावी न होने पायें। मैं इस सम्बंध में कोई सफाई और दुहाई भी नहीं दूंगा। लोकतंत्र में असली मालिक और निर्णायक जनता है। मैं अपने को पूरी निष्ठा, ईमानदारी और विश्वास के साथ जनता के निर्णय के प्रति अपनी वचनबद्धता स्वीकार करता हूं।’’ – सतीश दीक्षित
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चुनाव लोकतंत्र के प्राण हैं। मतदाता लोकतंत्र का प्रणेता। मतदान लोकतंत्र का महाउत्सव है। लोकतंत्र के पुष्पित पल्लवित होने के लिए निष्पक्ष और निर्भीक होकर शत प्रतिशत मतदान उतना ही आवश्यक है जितना हमारे जीवित रहने के लिए शुद्ध वायु। मतदान का कम प्रतिशत लोकतंत्र के लिए हमारी आस्था की कमी को दर्शाता है। यह प्रवृत्ति लोकतंत्र और हमारे समाज के लिए घातक है। परिस्थितियां कितनी भी विषम और घातक क्यों न हों। हमें हिम्मत नहीं हारनी है। कम मतदान और वोटों के बंटवारे ने चुनावों को मखौल बना दिया है। हमारे चुनाव दिखावे, लोभ, लालच, दबाव, धमकी व धौंस के प्रतीक बन गए हैं। महंगे चुनावों ने भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है। यह भी कम दुर्भाग्य पूर्ण नहीं हैं। महंगे चुनावों ने भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है। यह भी कम दुर्भाग्य पूर्ण नहीं है कि हमारे अधिकांश राजनैतिक दल और सरकारें चुनाव सुधारों को लेकर गंभीर नहीं हैं। उनसे बहुत ज्यादा उम्मीद भी रखना बेकार है। अल्पमत की सरकारें जनता के सरोकारों से प्रायः कोई मतलब नहीं रखतीं। इसके चलते दलीय और संसदीय लोकतंत्र से लोगों का भरोसा धीरे-धीरे दूर हो रहा है। इस बात को एक उदाहरण से समझा जा सकता है।
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वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में जनपद फर्रुखाबाद लोकसभा क्षेत्र में हुए मतदान में कुल 46.09 प्रतिशत मतदान हुआ। इसका मतलब यह हुआ कि सभी राष्ट्रीय, क्षेत्रीय एवं निर्दलीय उम्मीदवारों को जो वोट मिला, उससे अधिक मतदाताओं ने मतदान ही नहीं किया। कम मतदान और वोटों के बंटवारे के चलते विजयी उम्मीदवार को जो वोट मिला वह लोकसभा क्षेत्र के कुल मतदाताओं का मात्र 13 प्रतिशत है। यही विजयी उम्मीदवार आज केन्द्र में मंत्री हैं। यही स्थिति कमोवेष और संसदीय क्षेत्रों की है। मतदान की यह स्थिति लोकतंत्र के लिए बहुत घातक है।
वोटों के बटवारे और कम मतदान ने दलीय लोकतंत्र को मखौल बना दिया। अधिकांश राजनैतिक दल शत प्रतिशत मतदान के अभियान में कोई रुचि नहीं दिखाते। क्योंकि उनका सारा खेल अपने निजी वोट बैंक पर ही निर्भर करता है। अगर मतदान का प्रतिशत बढ़ेगा तब फिर वोट बैंक का खेल प्रभावित होगा। इस बात को इस तरह समझा जा सकता है। हमारे चुनाव जातिवाद से बहुत अधिक प्रभावित हो गए हैं। कम मतदान ने जातिवाद को और अधिक बढ़ावा दिया है। यही कारण है जातिगत आधार पर जीते लोग आम मतदाता के हितों की रक्षा और जन समस्याओं के समाधान के स्थान पर अपने जातिवादी क्रिया कलापों को ही आगे बढ़ाने का कार्य करते हैं। यदि मतदान का प्रतिशत बढ़ेगा तब फिर जातिवाद का कुचक्र अपने आप समाप्त होने लगेगा। जनप्रतिनिधि केवल जातीय आधार पर कार्य करने के स्थान पर सामान्य मतदाता के सुख दुख में शामिल होंगे तथा जन समस्याओं के समाधान के प्रति तत्पर होंगे। कुल मतदाताओं की बात छोडि़ए आजादी के बाद से आज तक क बार भी केन्द्र में ऐसी सरकार नहीं बनी जो डाले गए मतों के बहुमत (50 प्रतिशत से अधिक) के बल पर गठित हुई हो। यही कारण है कि कम मतदान और वोटों के बंटवारे के चलते हमारी राजनीति दिन प्रतिदिन चुनाव दर चुनाव जातिवाद, धनबल, बाहुबल, धमकी, धौंस और माफियातंत्र की गुलाम होती चली गयी। भ्रष्टाचार का बोल वाला होता चला गया जिसके चलते महंगाई अपने पैर पसारती चली गई। आज स्थितियां नियंत्रण से बाहर हैं। किसी को कोई समाधान नजर नहीं आता, क्योंकि राजनीति में जमे मठाधीश अपने निहित स्वार्थों और वोट बैंक के खेल को छोड़कर मतदान के प्रतिशत को बढ़ाने का कार्य देशहित और समाज के हित में कराना ही नहीं चाहते।
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इस विषम समस्या का समाधान यही है कि हम निष्पक्ष और निर्भीक होकर अपनी पसंद के उम्मीदवार को अधिकाधिक मतदान करना सुनिश्चित करें।
हम चाहते हैं कि हमारी समस्त समस्याओं का त्वरित समाधान हो, परन्तु यह कैसे हो हम इस पर विचार नहीं करते। अपनी समस्याओं के समाधान की अपेक्षा हम अपने उन जनप्रतिनिधियों से करते हैं जिन्हें हम मत (वोट) ही नहीं देते। हमारे जनप्रतिनिधि अपनी जाति-विरादरी सहित कम मतदान और वोटों के बटवारे के बल पर जीतते हैं। ऐसे जनप्रतिनिधि केवल और केवल उन लोगों को किसी न किसी प्रकार बहलाए रखना चाहते हैं जो उन्हें निष्पक्ष और निर्भीक होकर वोट नहीं देते। केवल लोभ लालच, धमकी, धौंस, विरादरी या धर्म के नाम पर वोट देते हैं।
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याद रखिए जब तक निष्पक्ष और निर्भीक होकर शत प्रतिशत मतदान की परिस्थितियां नहीं बनेगी, चाहें जैसी व्यवस्था की जाए हमारी किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता।
इस प्रकरण में सर्वाधिक दुख की बात तो यह है कि हमारे जनप्रतिनिधि वोटों के बटवारे और कम मतदान प्रतिशत को ही अपने लिए उपयोगी मानते हैं। इस प्रक्रिया के चलते चुनाव दिन प्रतिदिन महंगे होते जा रहे हैं। महंगा या कीमती नेता ईमानदार होगा तथा भ्रष्टाचार का विरोधी होगा। इसकी कल्पना करना भी बेकार है।
इसलिए यदि हम चाहते हैं कि हमारी राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक समस्याओं का समाधान हो। हमारा जनतंत्र धनाधारित न होकर जनाधारित हो। तब फिर हमारे पास निष्पक्ष और निर्भीक होकर शत प्रतिशत मतदान करने का संकल्प लेने के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं है।